Monday, February 29, 2016

नफरत की भीड़

आजकल हमारे देश में बहुत कुछ भीड़ तय करती है। एक खास तरह की भीड़। जो उन्मादी है, जो भावुक है, जो क्रूर है, जो असंवेदनशील है, जो नफरत का ढ़ेर खुद के भीतर समेटे चल रहा है, जो देश और समाज के असल समस्याओं के बारे में नहीं सोच पा रहा है, जो प्रोपगेण्डा का शिकार हो चला है। इस भीड़ के कुछ नेता हैं, कुछ दल हैं जो निजी फायदे को साधने के लिये किसी खास विचारधारा का हौव्वा ख़ड़ा करते हैं और भीड़ है जो लोगों की हत्या कर देता है, जो महिलाओं के साथ बालात्कार करता है, जो अदालतों में न्याय का मजाक उड़ाता है, जो खूब गाली देता है, नफरत का एक पहाड़ लिये चलता है।
मेरी चिन्ता है कि मेरे आसपास, उठते-बैठते कई ऐसे लोग हैं जो इसी भीड़ का हिस्सा हैं। उनके साथ उठना-बैठना, लाइक-कमेंट मैं सबकुछ साझा करता हूं। मैं बैचेन हो जाता हूं जब इन आसपास वाले लोगों से धर्म, जाति के नाम पर नफरत फैलानी वाली बातें सुनता हूं...क्या मैं कुछ नहीं कर सकता इन्हें बदलने में? एक बेसिक आदमी होने में?
क्या ऐसे लोगों से दूरी बनाना ही एकमात्र च्वॉइस बच गया है मेरे पास। क्या यह मुमकिन है कि इन सबको छोड़ अपने लिये एक अलग दुनिया बना ली जाये। शायद नहीं..फिर रास्ता क्या है?
जवाब मेरे पास भी नहीं है।

मेरी आस्तिकता

मैं घोर आस्तिक आदमी हूँ। नास्तिक नहीं। लेकिन वो आस्तिकता कोई पत्थर या मूर्ति या अलौकिक के प्रति नहीं। मेरी आस्तिकता प्रेम। परिवार। प्रकृति की तरफ है। जब रोने का मन होता है तो किसी पेड़ के नीचे खड़े हो रोता हूँ। कभी उदास हुआ तो नदी के किनारे जाकर बैठ जाता हूँ। बहुत अकेलापन लगा तो घर पर लंबे फ़ोन कॉल्स करता हूँ।
पहाड़। जंगल। नदी। मिट्टी, और अपने लोगों ने कभी निराश नहीं होने दिया। ये हैं तो जीवन नीरस होने से बच जाता है। प्रेम है जो तमाम दुनियावी धोखे के बावजूद भरोसे को बनाये रखता है।
मेरा अकेलापन इसलिए भी मुझे अँधेरे में जाने से बचा लेता है क्योंकि वहां एक भरोसा है। मुझे डर लगता है उन लोगों के लिए जो अकेले हैं और नास्तिक भी। जिनके पास आस्था और भरोसे के लिए कुछ भी नहीं।
सल्जबर्ग की तस्वीर

बीच रात 3 बजे

तीन बजे के बाद सोने जाने की कोशिश करता हूँ। ठीक चार बजे डर कर बिस्तर पर बैठ जाता हूँ। बीच के एक घंटे में ढ़ेर सारे डराने वाले सपने आते रहे। घर की खिड़की से एक साये को ललकारने, कहीं अँधेरे जगह में फंसने जैसे सपने टुकड़े टुकड़े में आते रहे।
अभी डरकर बैठा हूँ तो हाथ खूब ब खुद मोबाइल पर टाइप करने लगा है।
क्या सच में इतना हिंसक समय हो चला है- कि आदमी अपने कमरे में भी सुरक्षित न रहे। या सब वहम है।
या अकेले रहते हुए। अकेले पड़ जाने के बाद का दिमागी फितूर।
घर-माँ सब याद आ रही है। कोई नहीं है जिसे इस वक़्त एक फोन घुमा लिया जाए। थोडा जी हल्का किया जाए। ये सब लिखने का कोई फायदा! नहीं जानता हूँ लेकिन अपने लिए इस वक्त। इस समय को दर्ज करने के मोह से नहीं बच पा रहा।
ये शहर। ये ज़िन्दगी। ये अकेलेपन। ये अँधेरे में दुबका कमरा और फ्लाइट की शोर। हमें बीमार कर दे रहा है।
उफ़। कितना भयानक है सबकुछ।

Saturday, February 27, 2016

रात आधी बीतने के बाद

आजकल चारों तरफ इतनी नफरत पसरी है कि मैं सारी भाषाओं को भूला देना चाहता हूं। नहीं समझना चाहता तमाम भाषाओं में नफरत भरे शब्द।
डरता हूं कहीं मेरे भीतर ही न जमती जाय नफरत का एक मोटा सा थाक।
मार-काट और हिंसा के सारे फॉर्म से डर लगने लगता है। जीवन में हिंसा की क्रूरता को हर रोज महसूस करता हूं- एक हिंसा जो चौबीस साल पहले की गयी थी, आजतक आधी रातों को भी डरा जाता है। जानता हूं हिंसा की कोई घटना चौबीस साल बाद भी लौट आती है और आधी रात बिस्तर से उठा रुलाती है।
इसलिए डरता हूं-बहुत डरता हूं। डर लगता है।
डर लगता है जब किसी को कहते सुनता हूं कि कर दो गोलियों से छलनी- बीच चौराहे पर खड़ा कर। डरता हूं जब सुनता हूं मेरे सुविधाजनक जिन्दगी से कहीं दूर देश के किसी कोने में हर रोज लोगों को गोलियों से भूना जाता है बड़े आराम से। या इस देश से भी दूर कहीं बच्चों पर गिराये जाते हैं बम।
उन सबके दुख में, हर पिता खो चुके बच्चे में, हर पति खो चुकी औरत में मेरा दुख चुपके से जाकर खड़ा हो जाता है।
मैं उन सारे विचारों को चिल्ला कर नकारना चाहता हूं जो हिंसा और सिर्फ हिंसा की वकालत करते हैं, जो नफरत के अलावा  और सभी आदमी होने के गुणों को भूलाने की बात करते हैँ।
कई बार मैं फँसा महसूस करता हूं। कहीं किसी अँधेरे से सुरंग में। जहां अनजाने में मुझे धकेल दिया गया है।
इस अँधेरे में मैं कोई रास्ता टटोलने की कोशिश करता भी हूं तो चौबीस साल पहले की गयी हिंसा की वह घटना माँस का एक लोथड़ा बनकर हाथों में अटक जाती है। मैं एक बार फिर उस सुंरग में धकेल दिया जाता हूं- जहां गूंजती रहती है रुलाई से पहले की सिसकियां।

 

Thursday, February 25, 2016

जा रे झूठा

 बहुत अरसा हुए कोई अच्छा संगीत सुने। कॉफी पीना अच्छा लगता है। लेकिन अाजकल वहां भी नीरसता है। कोई इस समय को अँधेरा बता रहा है। मुझे उम्मीद लग रही है। तमाम व्यक्तिगत चिन्ताओं ने अलविदा कह दिया है। अब आर या पार।
आज अचानक किस्सा याद आया- बहुत छोटे में क्लॉजअप का एड आता था टीवी पर। दिखाया जाता कि कैसे दांत चमकने लगते हैं- उस टूथब्रश के इस्तेमाल के बाद दाँतों से चमकने की आवाज आती ।
मैं दिन भर में पाँच बार इस्तेमाल करने लगा था उन दिनों। कई दिन तक करता रहा और उचक-उचक बाथरूम के शीशे में देखता रहा। एक दिन बेसिन पर खड़े हो शीशे में दाँत देखने लगा। बेसिन टूट चुका था। भड़ाम।
आजकल ऐसे ही बहुत से झूठ के चंगूल में फंसा पाता हूं। झूठ के कई विज्ञापन बाजार में हैं। विचारों का झूठ। राजनीति का झूठ। दोस्ती और प्रेम का झूठ। हर तरफ झूठ ही झूठ।

लेकिन आज भी झूठ और सच का अंतर नहीं कर पाता। प्रभावित हो जाता हूं। दाँत चमकाने की कोशिश करता हूं और फिर ठगा जाता हूं। कभी किसी विचार के झूठ को अपना बनाता हूं, कभी किसी राजनीति के झूठ को।

हर बार ठगे जाने के बाद भी झूठ से मोह नहीं छूटता। अब तो यह भी लगने लगा है कि झूठ बिना जीवन कितना फीका और नीरस हो जाये। झूठ बने रहो। जीवन चलते रहो।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...