tag:blogger.com,1999:blog-8721172124721716732024-02-19T11:24:36.292-08:00Raat ka Reporterदो टके का आदमी...तीन टके की बातAvinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.comBlogger305125tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-77055409750860223582023-09-27T19:08:00.002-07:002023-09-27T19:08:26.205-07:00भटक कर चला आना<p> अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने.</p><p>इधर-उधर की बातें. बातें बीतती जाती बातें. समय. लोग. जगह. स्नेह. एहसास. बस नहीं बदलता तो भीतर कहीं धँसा एक मन. मन जो बैचेनियों को लिये फिरता है.</p><p>कितना सुकून है इन दिनों. उपर उपर. सेहत खराब होते होने के बावजूद. भीतर धँसा मन इतना भागता क्यों है.</p><p>पता नहीं किस सवाल की तलाश में उत्तरों को खोजता रहता है. एक उपर का मन. जो हर रोज की जिन्दगी जीता है या जीने की कोशिश करता है. बिल्कुल सामान्य होने की कोशिश में. दिखने की कोशिश में. पूरी कोशिश किये रहता है. </p><p>बहोत मजबूती से खुद को संभालना. सहेजना मुश्किल है न. कभी कभी सोचता हूं. किसको खोज रहा हूं. क्या सच में कोई सवाल, या कोई लोग. या कोई जगह. या बस ऐसे ही. गुजर जाने की कोशिश को टालते चलते की कोशिश.</p><p>बहोत रोमांच में भी खुद को सामान्य होते देखने कितना गिल्ट भरता है. नहीं गिल्ट नहीं. शायद. खुद को देख सकना. खुद के साथ रह सकना.</p><p>एक उम्र के बाद</p><p>चाहतें </p><p>सिमटी होती हैं</p><p>छोटी-छोटी चीजों में</p><p>किसी रात एक अच्छी नींद</p><p>किसी सुबह गुम गए दोस्त के साथ</p><p>एक चाय</p><p>किसी दुपहर एक पसंद की जगह पर चुपचाप बैठना</p><p>किसी शाम शोर का न होना.</p><p>या इनमें से कुछ भी नहीं.</p><p><br /></p>Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-37731573150432019892021-09-16T17:24:00.001-07:002021-09-16T17:24:46.822-07:00इतिहास मुड़ मुड़ कर चला आता है<p> हमारी आधी जिन्दगी देजावू जैसी ही लगती है. हर रोज उठकर लगता है बीता हुआ कल जी रहे हैं. बीता हुआ कल फिर वापिस चला आता है. कल जो आज को डर में बदल दे.</p><p>बहुत पहले जो बीत गया, किसी और के साथ जो बीत गया, वो फिर किसी नये के साथ कैसे हो सकता है?</p><p>फिर से पुराना ही किस्सा दोहराया जाता है.</p><p>क्या बीत गये से कुछ सीखा जा सकता है</p><p>कि जो अब पलट कर आय़े इतिहास को थोड़ा-थोड़ा उस सीख से ठीक रखा जा सकता है?</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/D78RndZbqa0" width="320" youtube-src-id="D78RndZbqa0"></iframe></div><br /><p><br /></p>Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-81000789906920235752021-05-14T07:54:00.002-07:002021-05-14T08:05:25.752-07:00बाबु जी का जन्मदिन<p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;"><br /></span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-iWNPcglqMx6ol3vXNxIqOJ08XaC0yBJ8bdHvobdtfkavdaETDpGgUYYhv8kAdPwzY-Rmg9vOciGSZdzpzDU5CzanLx2YzIaG6ee2JEjjAZKIzOMG2Ll8xh-st9xUsiBW6SIJfg6DumA/s1068/21273638_1989212878025443_6015841036773488611_o.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="712" data-original-width="1068" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-iWNPcglqMx6ol3vXNxIqOJ08XaC0yBJ8bdHvobdtfkavdaETDpGgUYYhv8kAdPwzY-Rmg9vOciGSZdzpzDU5CzanLx2YzIaG6ee2JEjjAZKIzOMG2Ll8xh-st9xUsiBW6SIJfg6DumA/s320/21273638_1989212878025443_6015841036773488611_o.jpg" width="320" /></a></div><br /><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;"><br /></span><p></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">आज बाबु जी का जन्मदिन है. मैंने उनको सिर्फ तस्वीरों में देखा है. वो भी गिनती के कुछ तस्वीर. उनके साथ की मेरी कोई तस्वीर नहीं. न ही उनकी कोई याद.</span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">उनके बारे में जितना जाना है वो सब सिर्फ किस्सों में. उनके संघर्ष को, उनके आंदोलन को, उनकी आवाम के हक में उठी आवाजों को. सब कहानियों में है. कई बार यकीन नही होता कि मेरे खुद के पिता ऐसे थे. इतने साहसी. सिर्फ उन्नीस साल की उम्र में एक कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता बन गए, जमीन बंटवारे की लड़ाई लड़ी, घर-मकान, खेत-खलिहान में लाल झंडा लहराया.</span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">जानते हुए भी कि एक दिन जान चली जायेगी, एक ईंच पीछे नहीं हटे. और एक दिन सिर्फ 31 की उम्र में शहीद हुए. आज भी उनके कॉमरेड्स हर साल उनके शहीद दिवस पर रैली निकालते हैं, उनको याद करने के लिये एकजुट होते हैं. मैंने अपने पिता को उन्ही रैलियों और सभाओं में दिये गए भाषणों से जाना. इसलिये बहुत सालों तक अविश्वास में रहा. और शायद इसलिए हमेशा उनके बारे में बोलने-लिखने औऱ बताने से बचता रहा. उनके बारे में कहे गए किस्सों से भी भागता रहा. सालों साल यही सिलसिला चला. </span><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">मैं हमेशा खुद की तुलना अपने पिता से करता रहा. उनके साहस की, उनके जुझारुपन की. कुछ भी तो नहीं है मुझमें.</span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;"><br /></span></p><p><span style="color: #050505;"><span style="background-color: white; font-size: 15px;">मेरी माँ को लगता है कई बार कि मैं अपने पिता को याद नहीं करता. लेकिन सच बात तो है कि मेरे पास याद ही नहीं. </span></span><span style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">बहुत सालों तक मैंने उनसे सच में अपने पिता के बारे में बात नहीं की, हमेशा लगता रहा कि उनको दुख होगा, बीत चुके के बारे में बात करने से. </span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">लेकिन अब मैं सुनना चाहता हूं उनके बारे में. उनके बारे में बताना चाहता हूं. उनको ऑउन करना चाहता हूं. क्या पता शायद ऐसा करके मैं भी अपने पिता की तरह बन पाऊं. </span><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">उनकी तरह हिम्मत और प्यार कर सकने की ललक जगी है.</span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक कॉमरेड</span></p><p><span face="system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">लाल सलाम. आपके सपनो को मंजिल तक पहुंचायेंगे.</span></p>Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-2237310844328182752021-01-29T20:37:00.003-08:002021-01-29T21:01:49.535-08:00लाल कमरे में बंद<p>उस कमरे में लाल रौशनी थी. पूरा कमरा ही लाल था. इतना लाल की चेहरे का रंग भी लाल दिखने लगा. </p><p><br /></p><p>वो उस कमरे के एक लाल कोने में बैठी थी. कमरे के ऊपर छत नहीं थी.</p><p><br /></p><p>छत के ऊपर का रंग काले और लाल रंग का मिक्स था.</p><p>आसपास सारे घर टूटे पड़े थे, पूरा शहर टूटा पड़ा था, लोग टूटे पड़े थे, लोगों के टूटने से पहले विचारों का टूटना हुआ था, विचारो के टूटने से पहले संवेदनाएँ बिखरी थीं. संवेदनाओं ने पानी को खत्म किया, पानी ने नदियों को, पहाड़ों को और जंगलों को. नदी, पहाड़, जंगल के लिये जरुरी था पानी का बचे रहना.</p><p>फिर पूरा देश ही बिखर गया. जैसे कोई बड़ा युद्ध हुआ हो. बस वो कमरा बचा रह गया था, </p><p>कमरा नहीं बस उसकी दिवारें, लाल दिवारें, उनके बीच लाल रंग और लाल कोना. जहां वो बैठी थी. अपने घुटनों को पेट में घुसाये.</p><p>आँखों को घुटनों में घुसाये. सारे बिखराव को आँख मीच कर खत्म कर देने की कोशिशों में.</p><p>तभी उसे दूर नदी की आवाज सुनायी पड़ी. उससे भी दूर सरहद के पार एक सूखा हुआ पेड़ जिसमें एक पत्ता लटक रहा था.</p><p>पत्ते का रंग लाल था.</p><p>जो अभी भी टूटा नहीं था.</p><p>उसी लाल रंग से कमरे तक लाल रौशनी आ रही थी. जहां वो अब भी घुटनों में मुंह घुसाये बैठी थी.</p>Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-33100655518505860212020-08-18T19:49:00.006-07:002020-08-18T19:49:44.060-07:00 हमें एवरेज होने से डर क्यों लगता है?<p>आजकल हर सुबह एक उदास ख्याल के साथ जगता हूं। एकदिन ख्याल आया कि मैं अपने घर पर हूं। इस कमरे, इस शहर से बहोत दूर।</p><p>फिर एकदिन लगा, मैं लिखना भूल गया हूं। अब मैं लिखना चाहता भी नहीं। शायद ऐसे ही हम अपने प्रेम को जाने देते हैं। जिन जिन चीजों से एक वक्त में हमें प्रेम रहा, उनके जाने को स्वीकार करने में लंबा वक्त लगता है।</p><p>शायद।</p><p>मैंने 'शायद' शब्द का खूब इस्तेमाल किया है अबतक। लेकिन वो अब बेतुका बचाव भर लगता है बस।</p><p>हां तो आज मैं एक दूसरे ही ख्याल के साथ जगा। खुद के औसत होने को हम क्यों नहीं स्वीकार कर पाते। हम क्यों नहीं स्वीकार पाते कि परफेक्ट होना ही आपका होना नहीं है। हम सब और कम से कम हममें से ज्यादातर औसत, मीडियोकर हैं और यही सामान्य बात है।</p><p>फिर मीडियोकर होने को लेकर इतनी घृणा क्यों?</p><p>क्यों हर काम में हमें परफेक्ट होने की कोशिश करते रहना है?</p><p>बीच बीच में रहकर भी जिन्दगी जीने में कोई हर्ज नहीं।</p><p>बहुत रोमेंटिसाइज्ड लाइफ से कहीं बेहतर है एक सामान्य जिन्दगी जीना, उसको सामान्य, सुंदर और सीमित बनाने की कोशिश करते रहना।</p><p>मुझे गुस्सा क्यों आ रहा है? यह सब लिखते हुए, किसपर ?</p><p>खुद के बीते ख्यालों पर। शायद.</p><p><br /></p>Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-51173729907271742942020-05-03T21:12:00.003-07:002020-05-03T21:12:36.321-07:00किसी रोज के बारे में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-QcI4ox_LqPwx5xvWiXzCFwZZaq7X6Sx0eEyGhF2occjOWGcduAEiEpiBdukwwybhrbXhb3lVfXakOq39eSEcyVO5Jdq_Fa9N9uoUPd1XlouAq_pROXwxllPU_M5BkANx_qp3CHuLue8/s1600/WhatsApp+Image+2020-05-03+at+4.19.43+PM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-QcI4ox_LqPwx5xvWiXzCFwZZaq7X6Sx0eEyGhF2occjOWGcduAEiEpiBdukwwybhrbXhb3lVfXakOq39eSEcyVO5Jdq_Fa9N9uoUPd1XlouAq_pROXwxllPU_M5BkANx_qp3CHuLue8/s320/WhatsApp+Image+2020-05-03+at+4.19.43+PM.jpeg" width="240" /></a></div>
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वो किसी एक जगह क्यों नहीं टिक पाता है? कोई एक बिंदू जहां वो अटक जाये तो कितना अच्छा हो। सुकून हो। लेकिन उस एक बिंदू पर पहुंच कर थोड़ी देर सुस्ता भर पाता है और फिर वहां बेचैनी।<br />
<br />
फिर किसी और बिंदू की तलाश। हर तरफ कुछ नया करने की ललक। जो कर रहा हो उससे जल्दी ही असंतुष्टि।<br />
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<br />
लेकिन क्या ये असंतुष्टि उसके अकेले का है। उसका अपना है। या फिर दुनिया के डर ने पैदा किया है?<br />
<br />
क्या यह सबकुछ ही। शर्मनाक चाहतों से नहीं जुड़ा। या कि दमित कुंठाओं से। या कि ऐसी स्मृतियों से जिसका सिरा न पकड़ में आता हो?<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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वो एकदिन उठकर चुपचाप चला गया। बुदबुदाते हुए अपने ही भीतर। जब लौटा तो उसके हाथों में फूलों की टहनियां थी, और ऊंगलियों में कांटे चुभ रहे थे।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhf6nGLaP0KtAYuwNx0aFwuJk92o4gKSL_ytmZi31-fOT2uAXe8SCncdEshwUh_Yqm7kkv66VkDCSMhRJzvEhVNNzSoXFpZwXE5K7TzF7pS4tmgjBKoX4JujKtOtCTH6MTG8qn4Nks205U/s1600/WhatsApp+Image+2020-05-03+at+6.10.20+PM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhf6nGLaP0KtAYuwNx0aFwuJk92o4gKSL_ytmZi31-fOT2uAXe8SCncdEshwUh_Yqm7kkv66VkDCSMhRJzvEhVNNzSoXFpZwXE5K7TzF7pS4tmgjBKoX4JujKtOtCTH6MTG8qn4Nks205U/s320/WhatsApp+Image+2020-05-03+at+6.10.20+PM.jpeg" width="240" /></a></div>
<span id="goog_1463405942"></span><span id="goog_1463405943"></span><br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-19296523424042612020-03-15T04:13:00.001-07:002020-03-15T04:13:47.464-07:00माँओ के बारे में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुझे लगने लगा है कि हम माँओं के बारे में कितना कम जानते हैं। उनके बारे में कितना कम लिखा गया है। मां और बेटे या फिर बेटी के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश नहीं की गयी है।<br />
<br />
या तो माँ बहुत महान होगी, या फिर बेटा विलेन। फिल्मों से लेकर कहानी तक यही नैरेटिव बिखरा पड़ा है।<br />
<br />
क्या ऐसा नहीं होता कि माएँ भी हद तक इरेटेटिंग हो सकती हैं? कि माएँ अपने बारे में अपनी जिन्दगी के बारे में भी हद दर्जे तक स्वार्थी हो सकती हैं।<br />
<br />
वो। उनका स्पेस। उनकी जिन्दगी। उनका प्रेम। उनका लोगों से रिश्ता। सबकुछ को अच्छा-अच्छा या महानता के चश्मे से ही देखने का प्रेशर क्यों?<br />
<br />
ये त्याग, ये अनकंडिशनल लव क्या हमने दुनिया की सारी माँओ पर थोप नहीं दिया है?<br />
<br />
एक ऐसी जंजीर जिसमें वो जिकड़ी रहती हैं। अपने सपनों को कभी जाहिर नहीं करती, अपनी चाहतों पर ताला डाल कर रखती हैं और फिर उन चाहतों की बजाय 'बच्चों की चाहतें' ही उनकी चाहत बन जाती है।<br />
<br />
और फिर कई बार ये भी तो होता है कि माँ की चाहतों में बच्चे बंधने जैसा महसूस करने लगते हैं।<br />
<br />
कई बार ये भी तो होता है कि हम अपने लिये चाहे गए इच्छाओं में बंद सा महसूस करते हैं.<br />
<br />
<br />
न हमारी माँओ के लिये अच्छा, न हमारे लिये। फिर ये महानता किसके हक में है?<br />
<br />
क्यों महानता की जगह सहजता नहीं होना चाहिए..<br />
<br />
माँ के अपने खुद के लिये सपने, चाहतें, सुख उनके बच्चों से अलग हों...<br />
<br />
बच्चों की चाहतें, माँओ से अलग रहे.<br />
<br />
कोई विलेन न हो, कोई भगवान न हो.<br />
<br />
इंसानी फितरत से भरा एक जिन्दा रिश्ता रहे।<br />
<br />
क्या ये हो सकना इतना मुश्किल है?<br />
<br />
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-55601208420793853482020-01-27T10:32:00.000-08:002020-01-27T10:32:25.951-08:00मेरे साथ ऐसा क्यों होता है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">मेरे साथ ऐसा क्यों होता है कि मैं सुख और शांति में लिख नहीं पाता।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">कई महीनो से मैं लिखना चाहता हूं। लेकिन ऐसा लगता है लिखना भूल गया हूं। क्या मैं सिर्फ दुख को लिख सकता हूं।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">क्या मैं लिखना भूल रहा हूं? लेकिन इस भूलने का कोई अफसोस क्यों नहीं है? क्यों लिखने में इतना सूखापन आ गया है। एकदम रफ।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">ऐसा तो नहीं था। क्या मेरा हासिल यही है?</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">इतनी शांति मे कब रहा? बिना किसी जिम्मेदारियों के। सर्दी में किसी पार्क में धूप सेंकते हुए, रेडियो पर पुराने गाने सुनते हुए, उनींद में डूबे</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">या</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">अपने कमरे में। टेबल लैंप की पीली रौशनी में अपने प्रिय सिंगर को सुनते हुए और पसंद का ड्रिंक और अपना एकांत।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">हां एकांत ही, अकेलापन नहीं। बिल्कूल एकांत। अब ये खलता नहीं। ऐसा नहीं लगता कि अपने एकांत से भागकर किसी के पास चला जाउं।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">पिछले कई महीने से इसी कमरे में लगभग बंद हूं। दिन दिन भर। रात रात भर। कभी किसी के साथ कभी कभी बिल्कूल अकेले।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">नयी चुनौतियों से घिरा, नये कामो मे तल्लीन।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">ओह, सुख तुम यही तो नहीं हो.?</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">नशे में डूबा हुआ, दुनिया के तमाम बोझों से दूर, तमाम चर्चों और नारो से इतर।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">बेचैनियों के बावजूद।</span><br />
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-44628000400076335212019-08-15T10:52:00.001-07:002019-08-15T10:52:23.700-07:00कैसी आजादी?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दिन ऐसे ही बीता। चारों तरफ आजादी मुबारक के संदेश लिये। बार-बार ध्यान कश्मीर से आने वाली खबरों की तरफ। लगभग सारे ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं को, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया है और यहां तक कि 11 साल के बच्चों को भी।<br />
<br />
पूरे कश्मीर को बंद कर दिया गया है। लोग घरों से नहीं निकल पा रहे हैं। लेकिन फिर भी कहा जा रहा है कि सब अच्छा है। कश्मीर के लोग खुश हैं।<br />
<br />
अब अपनी आजादी को लेकर, संवैधानिक अधिकारों को लेकर सच में डाउट सा महसूस हो रहा है। आजादी की बात करने वालों को, न्याय की बात करने वालों को, हक मांगने वालों को डराया जा रहा है। सही को सही कहने वालों पर हमले हो रहे हैं। न्याय को राष्ट्र के नाम पर कूचलने की सामूहिक मंजूरी मिल गयी है।<br />
<br />
आप प्रिविलेज हैं तो ये लिख लेना, बोल लेना, विरोध जता लेने का जो भ्रम है वो बस बचा हुआ है। जिसे आज न कल टूटना ही है।</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-59628897176847141622019-06-23T20:19:00.001-07:002019-06-23T20:19:27.135-07:00सुबह सुबह की बात है..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सुबह जगा तो। गर्मी कम थी। लगा धूप ने थोड़ी आज नरमी बरती है। चाय बनाया। माँ भी है। मैं मेज पर बैठे-बैठे ये लिख रहा हूं तो वो बॉलकनी में बैठी चाय पी रही है।<br />
<br />
कमरे औऱ बॉलकनी को एक पतला पीला पर्दा बांटता है। मां ने पीली साड़ी पहनी है। काली छिट का। माँ को आये कुछ दिन हुए। वो लगातार फोन पर है। उससे लोग छूटते ही नहीं। मैं सोचता हूं।<br />
<br />
कमरे में गांधी भजन। लता मंगेश्कर की आवाज में। अल्ला तेरो नाम। फिर किसी ने वैष्णव जन को ते कहिये गाया।<br />
<br />
कितना सूकून है। मैं बेड पर लेटे लेटे सामने देखता हूं। आज गमलों में पानी माँ ही देगी। मैं मटन बनाऊंगा। ये अकेले रहने की आदत इतनी अच्छी भी नहीं है। मैं सोचता हूं।<br />
<br />
कितना सारा टू-डू लिस्ट की पर्ची मेज के सामने टंगी है। लेकिन कोई हड़बड़ी नहीं। कोई एनजाईटी नहीं। न बाहर, न मन में। बस यही।</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-88370890695285024582019-06-17T11:20:00.001-07:002019-06-17T11:20:02.579-07:00मासूमियत का...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ लोग होते हैं बेहद मासूम<br />
<br />
इतने मासूम कि अपनी मासूमियत से उन्हें घृणा होने लगे<br />
<br />
लेकिन दूसरे उसे समझते हैं ढ़ोगा।<br />
<br />
बहुत लोगों को तो ये यकीन ही नहीं हो पाता कि इस दुनिया में मासूम लोग भी हैं।<br />
<br />
कई बार ही लगता है मासूमियत का आचार बनाकर इस गरमी में उसे सूखने के लिये छत पर छोड़ आना चाहिए।<br />
गर्मी कितनी है इन दिनों..मतलब पिछले हफ्ते तो ऐसे बीते, कट रहे हों जैसे।<br />
<br />
फिर दो दिन से बारिश न होने और आकाश के बादलों को देखकर मुस्कुराने में बीते<br />
<br />
............................................<br />
<br />
बहुत ज्यादा अंदर से आउटरेज का फील करना बहुत बुरा भी नहीं है, या है बुरा पता नहीं।<br />
<br />
कितना कुछ दिमाग में ही है हमारे। अगर उसको कहने लग जाओ तो ज्यादातर चीजें कितनी आसान हो जायेंगी।<br />
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-54318828867414129572019-06-17T11:14:00.001-07:002019-06-17T11:14:13.297-07:00नींद के मामले में मैं थोड़ा कच्चा हूं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नींद और मेरा रिश्ता। मेरे साथ रहने वाले मुझसे रश्क करते हैं। उन्हें लगता है मैं नींद का लकी आदमी हूं। बात सच भी है। मैं पांच सेकंड या दस सेकंड के भीतर सो जाता हूं।<br />
<br />
बहुत सारे वक्त में ऐसा लगा है लोगों को कि मैं उनकी बात नहीं सुन रहा, या कि मैं बहाना करके नींद में चला जाता हूं। जबकि नींद बहुत तेजी से आती है मुझे।<br />
<br />
लेकिन मैं ये भी एक्सपिरियेंस करता हूं कि नींद की एक सीमा है। एक हद। उस हद तक अगर मैं जग जाउं तो फिर मुझे इनसोमैनिक होने से कोई नहीं रोक सकता।<br />
नींद को जीत लेता हूं। उस एक हद को पार करते ही। लेकिन ऐसा बहुत कम ही हो पाता है।<br />
<br />
दुर्भाग्य है कि ज्यादातर मामलों में शायद मैं जब अकेले होता हूं तभी ये जीत होती है। बहुत अकेले होने पर ही।<br />
<br />
---------------------------------------------------------------------<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
क्या मैं </div>
<div style="text-align: center;">
बहुत बेचैनी</div>
<div style="text-align: center;">
मुझे लगता है</div>
<div style="text-align: center;">
मैं इंट्रोवर्ट हूं</div>
<div style="text-align: center;">
ऐसा लोग भी कहते हैं मुझसे</div>
<div style="text-align: center;">
मैं बात ही नहीं करता</div>
<div style="text-align: center;">
मुझे इस बारे में पढ़ना चाहिए</div>
<div style="text-align: center;">
कभी सोचा ही नहीं ऐसा कुछ</div>
<div style="text-align: center;">
कभी किसी ने बताया भी तो नहीं</div>
<div style="text-align: center;">
-------------------------------------</div>
<div style="text-align: left;">
बेचैनी का भी हल निकलेगा।</div>
<div style="text-align: left;">
मैं बहुत लिख नहीं पाता तो इसलिए कि अब मुझे कुछ नया लिखना है</div>
<div style="text-align: left;">
और नया लिखने के लिये </div>
<div style="text-align: left;">
नये अनुभव बेहद जरुरी हैं।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
शहर के भीतर </div>
<div style="text-align: left;">
या शहर से काफी दूर</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-25989285060602815812019-04-25T14:20:00.000-07:002019-04-25T14:20:01.086-07:00हमेशा वॉक ओवर दे देना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हमेशा से यही होता आया है। स्पेस देना। फिर आराम से सामने वाले को वॉक ओवर दे देना।<br />
<br />
दूसरों को। दूसरों पर भरोसा करना। और हर बार भरोसे को तुड़वा लेना। हर बार खुद को रिस्क में डालना।<br />
<br />
<br />
किसी किसी रोज लगता है जिन्दगी के सारे तनाव को एक कागज पर लिखकर कहीं दूर डस्टबीन में डाल आऊँ और फिर फ्रेश लिस्ट बनाऊं। सारे नये सपने। चाहतें। ललक। सबकुछ को एक सादे कागज पर फिर से क्रमवार सजाऊं।<br />
<br />
सारी यादें, सारी वर्तमान की उलझने। सारी दिक्कतें। सारी परेशानियों को कह दूं - बॉस बहुत हो गया। अब गुड बाय करते हैं आपको। मन को हारते देखना हर रोज ही, कितना बुरा है। कितना उदास है हर चीज का क्षणिक होना। स्नेह का न होना। सबकुछ व्यवस्थित होने का एक्ट करते रहना।<br />
<br />
टुक टुक दुनिया को खिसकते देखना और अपने पैर का एक ही जगह जम जाना।<br />
<br />
आईये जी। कुछ परेशानियों का चटनी बनाते हैं। कुछ को करते हैं विदा। चलते हैं नयी उम्मीद की तरफ। देखने का साहस करते हैं पहाड़। रौंदते है पुरानी कसैली यादें।<br />
<br />
कब तक दुख ही लिखा जाता रहेगा? कब तक उदासियों के फुटनोट्स दर्ज किये जाते रहेंगे? कब तक सबकुछ अच्छा बने रहने की उम्मीद की जाती रहेगी? कब तक जिन्दा रहने की कोशिश में घुटता जाता रहेगा? कब तक?<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-83803696750096590022019-02-19T23:50:00.001-08:002019-02-19T23:50:35.652-08:00भरोसा नहीं होना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक कमाल की बात है। आजतक कोई एक ऐसा नहीं मिला जिसके सामने अपने मन की गांठ खोल पाउं।<br />
<br />
बचपन से। कई बार सोचा किसी के साथ इस गांठ को खोला जाये। लेकिन सालों साल बीतते रहे और वो हो नहीं पाया। इस एक गांठ ने लोगों छूटवाये। इस एक गांठ ने पूरा का पूरा गांव उजाड़ा। इस गांठ ने किसी चीज को अपना न होने दिया।<br />
<br />
लेकिन अब लगता है धीरे-धीरे उस गांठ के खुलने का वक्त आया है।</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-14718521093129304942019-02-18T19:28:00.000-08:002019-02-18T19:28:05.561-08:00पराये शहर में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रातभर कबीर को सुनते रहने के बाद की सुबह। फरवरी की सुबह। सर्दी में बारिश थोड़ी सी उदासी लेकर गिरता है। मन सोचता है। क्या एकदिन ऐसा आता है जब पराये शहर में रहते हुए हम अपने घर को बिल्कुल भूल जाते हैं?<div>
<br /></div>
<div>
कि सालों साल दूसरे शहर में जीते हुए हमें याद नहीं रहता हम कहां से आय़े थे..हमारा अपना शहर या गांव का रंग कैसा था..</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
उस खेत को भूल जाते हैं जहां पहली बार छिपकर बीड़ी पी थी या कि उस गली को जहां जोर से चिल्लाकर प्रेम को स्वीकार किया था। या उस नदी को जहां बैठकर कवितायें पढ़ी थीं और प्रेम को करीब से देखा था।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
या कि उस शहर को जहां सबसे ज्यादा तपी हुई जिन्दगी देखी और सारी खुश खबरें भी वहीं सुनी। ये याद रहता है कि खेत में मटर तोड़ते वक्त ओस से पैरों में मिट्टी लग जाती है- एकदम कीचड़ जैसा।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
यहां इस पराये शहर में तो हर दिन मेला है। फिर वो अक्टूबर याद आता है? पुजा और मेला का दिन?</div>
<div>
<br /></div>
<div>
शायद नहीं।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
अच्छा मुझे लगता है ...खैर जाने दो।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मन क्या चाहता है तु बतायेगा कभी।</div>
<div>
मैं हवा में बात करने लगा था। औऱ अब जब ये लिख रहा हूं तो आँखे बेंद कर ली हैं। आंख बंद कर टाइपिंग किये जा रहा हूं। ये क्या कोई टैलेंट है या फिर बीमारी। बीमार औऱ गुलाम। इन की बोर्डस का।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-47285467830352859072019-02-10T10:24:00.001-08:002019-02-10T10:24:30.463-08:00दिल में इक पत्थर लिये चलते हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उसे काफी दिनों तक लगता रहा कि उसने ऑपरेट करवा लिया है और अब वो पत्थर वहां नहीं है, जिसे दिल कहते हैं। लेकिन उस दिन अचानक। तेज बारिश हुई थी। ठंड थोड़ी और। शाम के बीतने का वक्त रहा होगा।<br />
<br />
वो यूं ही कहीं बैठा था। शहर के किसी एक जंगल में। चाय पी थी। और अचानक दर्द शुरू हुआ। उसे समझ नहीं आया। दर्द तो जाना-पहचाना सा था। अभी कुछ दिन पहले तक तो आदत में शुमार। लेकिन काफी दिन पहले अचानक से गायब भी हो गया था। अचानक नहीं शायद। धीरे-धीरे ही सही।<br />
<br />
फिर आज। अचानक। क्यों। वो घबरा गया। हड़बड़ी में तेज चलने लगा। तेज चलने से दर्द कहां जाता है भला। वो जमा रहा।<br />
<br />
कराह। आँसू। वो तेज गाने लगा। तेज गाने से दर्द कहां जाता है भला।<br />
<br />
क्या दर्द ने फिर से उसे याद किया था। नहीं, नहीं। वो तो ऑपरेट हो चुका था। पत्थर निकाल कर उसने खुद ही तो बहुत दूर समुंद्र में बहाया था।<br />
<br />
क्या पत्थर भी तैरना जानते हैं? वो तो काफी भारी होते हैं। भीतर पानी में खो जाते हैं। उन्हें तैरना कहां आता है भला। वो क्या खाक वापिस होंगे।<br />
<br />
कहीं किसी हिचकोले में तो नहीं ऊपर आ गए। और फिर किसी ने किनारे में फेंक दिया हो उठाकर।<br />
<br />
नहीं। नहीं। दर्द में आदमी क्या क्या सोचने लगता है। लेकिन ये दर्द। उसने तो ऑपरेट करवा लिया था।फिर अचानक। वो भाग कर समुंद्र की तरफ जाना चाह रहा था। उसने दौड़ लगायी। औऱ पहाड़ पर चढ़ गया।<br />
<br />
<br />
उसे ऊंचाई से बहोत डर लगता था....</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-78910589122968684862019-02-05T10:24:00.002-08:002019-02-05T10:26:20.482-08:00शहर में अपना तुम्हारा कोना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहुत पहले उसने एक कैफे के बारे में बताते हुए लिखा था कि कैसे शहर का कोई कोई कोना आपका बहोत अपना सा हो जाता है। फिर क्या...<br />
उस कोने को आप साझा करते हैं...और जब वो साझा करने वाला चला जाता है तो फिर आप उस कोने की तरफ जाने से बचने लगते हैं।<br />
<br />
<br />
उसने उस शहर में रहते हुए ऐसे कई कोने बना लिये थे..जिन्हें वो अक्सर दूसरों से साझा किया करता...और फिर एक दिन वहां जाने से बचता।<br />
<br />
धीरे-धीरे उसके सारे कोने खत्म होते गए। बहोत दिन बाद उसे भान हुआ कि कुछ कोने अपने लिये बनाने जरुरी हैं। वो अब अक्सर ऐसे कोने खोजने लगा जहां उसका आना-जाना अकेले का होता है। जहां वो सिर्फ एक सिगरेट जलाता है, एक कप चाय पीता है और सामने की दुनिया को टुक-टुक देखता है।<br />
<br />
दुनिया जो अपने टेबल पर बैठी दुनिया की बात करती है। दुनिया जो लैंपपोस्ट की पीली रौशनी में भागी चली जाती है। दुनिया जो पुलों को क्रॉस करती चली जाती है- बिना ये सोचे कि उस पुल के नीचे एक नदी है और नदी का एक किनारा है जहां से बैठकर नदी-पुल और खुद को देखा जा सकता है।<br />
<br />
वो अक्सर अब ऐसी जगहों में अकेले ही होना चाहता है।<br />
वो जानता है। वो डरता है। वो साझा नहीं करना चाहता। उसे लगता है कि कहीं ये कोना भी यादों में खो न जाये।<br />
<br />
क्या तुम्हारे शहर में भी तुम्हारा अपना कोना है? अपना सिर्फ अपना। जिसे तुमने किसी के साथ साझा नहीं किया...जिसे साझा करते हुए तुम्हें डर लगता है.. कहीं वो भी 'कैजुअल' जगह न हो जाये...?</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-4414689945759613002019-01-18T10:50:00.000-08:002019-01-18T10:50:16.018-08:00मौसम के बारे में बात करें कुछ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज मौसम के बारे में बात करने का बहोत मन हो रहा है। इतनी ठंड है। सर्दी में पैदल चलने का सुख। अपनी राईटिंग टेबल पर बिना मोजे का बैठ जाओ तो ठंड लगने लगती है। ज्यादा देर बैठने का मन ही नहीं होता।<br />
<br />
इस बीच कितना उत्साह है। गर्मियों वाला उत्साह। लेकिन सड़क कितनी सूनी-सूनी सी लगती है। दिल्ली के ये उजाड़ दिन हैं। आईएनएस बिल्डिंग से निकल कर मंडी हाउस की तरफ जाओ तो पूरा विराना सा लगता है। फूल के पेड़ सिर्फ पत्तियों के सहारे दुपहर की धूप सेंकते दिखते हैं। आसमान में जेट जहाजों की तेज आवाज उस विरानेपन से टकराती है।<br />
<br />
आप जिस शहर में होते हैं, वहां के मौसम को सबसे करीब से समझते हैं। सर्द दिनों से लेकर बरसात तक यह समझ फैल जाता है।<br />
<br />
आज मैं अपने एक दोस्त से कह रहा थाः कभी-कभी मन होता है पूरा का पूरा एक केक खरीद कर खुद खा लूं। आज केक खाने का सच में बड़ा मन हुआ।<br />
<br />
उसने कहाः अकेले पूरा का पूरा केक नहीं खा पाओगे।<br />
<br />
मैंने भी रहने दिया।<br />
उसने सच ही कहा।<br />
<br />
शाम को खूब खूब ठंड मेें भी चाय पीते हुए कहीं बैठने का अपना सुख है।<br />
देर शाम घर में लौट कर चुपचाप सोचते जाने का भी।<br />
<br />
मौसम के फूट्नोट्स दर्ज करते-करते मैं क्या-क्या सोचने लगा।<br />
<br />
मुझे लगता है मैं बात करते-करते भटक जाता हूं। हवा में बात करने लगता हूं। मौसम पर बात कर रहा था, तो वहीं टिके रहना चाहिए था।<br />
<br />
जैसे आजकल धूप कितनी कम दिखती है। जैसे धूप ने हमारे दिनों को घेर लिया है। जैसे सर्द रातें तन्हा बना देने का अपना मजा है।<br />
<br />
कभी-कभी लगता है इस मौसम का हम पर कितना असर है। कोई अलाव खोजने का मन क्यों नहीं होता..<br />
<br />
हाहाहाहाहा....व्यर्थ के नक्शे में सबकुछ।<br />
<br />
एक लंबी कविता लिखने सा मन होता है। कहानी भी। मौसमों के ब्योरे, कैसा रहेगा...<br />
<br />
सर्दियां जबतक हैं, तभी तक कविता भी लिखी जा सकती है, कहानियां भी। गर्मी में तो कितना पसीना आने लगता है।<br />
<br />
मैं जो कहना चाह रहा वो क्यों नहीं कह पा रहा...<br />
मैं जो लिखना चाह रहा वो क्यों नहीं लिख पा रहा.....<br />
<br />
क्या मैं सारे मौसमों से पीछा छूड़ाना चाहता हूं...क्या मैं मौसम के बारे में सीधा-सीधा लिखने से बच रहा हूं..इस जनवरी के बारे में...<br />
<br />
शायद हां,<br />
लेकिन फिर भी...<br />
<br />
हर मौसम में खुश रहना चाहिए...खूब सारा ताकत बना रहना चाहिए...खूब सारा मन को होता रहना चाहिए...खूब सारा याद बना रहना चाहिए..खूब सारी जिन्दगी, हँसी और खुशी। 😔<br />
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-33591657302773280032018-10-28T08:26:00.001-07:002018-10-28T08:39:44.435-07:00अक्टूबर की आखरी डायरी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: arial; font-size: 11pt; text-align: justify; white-space: pre-wrap;">अचानक सेे उसने टेबल लैम्प की बत्ती बंद कर दी। कमरे में पीली रौशनी की जगह घुप्प अंधेरे ने ले लिया। लड़का अँधेरे में ही चुपचाप खाने की कोशिश करता रहा। अचानक मन उदास हो चला। रोने जैसा कुछ हुआ। जबिक दिन काफी सुन्दर बीता था। देर रात तक जगकर उसने डेडलाइन से पहले ही अपना काम निपटा लिया था।</span><br />
<div class="mail-message expanded" id="m-3340085969205775741" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">
<div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images " style="margin: 16px 0px; overflow-wrap: break-word;">
<div class="clear">
<div dir="ltr">
<span id="m_-3162314509712527391gmail-docs-internal-guid-af640de1-7fff-dcc3-96ac-2031698afd88">
<br /><br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">सुबह जगा तो खुद की बनायी चाय। काफी दिनों से लटकी एक मोटी किताब के कुछ चैप्टर और थोड़ा बहुत लिखना। दोपहर फिल्टर कॉफी और शतरंज का खेल। एक अच्छी किताब खरीदना। फिर वापिस लौटना। शाम की चाय अपने लोगों के साथ। और अब वापिस अपने ठिये पर।</span></div>
<br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">लड़के की जिन्दगी में ऐसे सुकून के दिन कम ही होते हैं। ज्यादातर हड़बड़ी, शोर, भीड़ और अनमने होकर ही बीतते हैं। लेकिन फिर ऐसे सुकून में भी अजीब सी उदासी का अनुभव होने का क्या मतलब।</span></div>
<br /><br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">अचानक से उसे वे सारे याद आने लगे, जिन्होंने प्रेम किया, जिनसे प्रेम करने की उसने कोशिश की, जिनको वो प्रेम नहीं कर पाया और जो स्नेह के बीच में ही चले गए। कितने ही लोगों का चेहरा फ्लैशबैक में आने लगा।</span></div>
<br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">उस रात अकेले खाते हुए उसे पहली बार लगा कि अकेले खाना दुनिया के चुनिंदा उदासियों में से एक है। उसे वो लड़की याद आ गयी, जो अक्सर कहा करती, ‘मैं अकेले नहीं खा पाती’ और लड़का झूंझला जाता। भूख से कैसे कोई समझौता कर सकता है। वो कभी समझ नहीं पाया भूख पर भी अकेलापन भारी हो सकता है।</span></div>
<br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कभी-कभी बहुत प्रेम से भरे लोग सामने होते हैं, लेकिन उनका प्रेम अनुपस्थित हो जाता है। ऐसा नहीं होता कि वे कहीं चले गए हों, या कि वे प्रेम करने की कोशिशों में न लगे हों, लेकिन सारी इच्छाओं और कोशिशों के होते हुए भी प्रेम रुक नहीं पाता और यह किसी के चले जाने से ज्यादा निराश करने वाली बात है कि प्रेम न रहे और लोग बचे रह जायें।</span></div>
<br /><div dir="ltr" style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">#अक्टूबर की आखरी डायरी</span></div>
</span><br />
<div class="signature-text" style="color: #888888;">
<br class="m_-3162314509712527391gmail-Apple-interchange-newline" />
<div>
<br /></div>
--<br />
<div class="m_-3162314509712527391gmail_signature" data-smartmail="gmail_signature" dir="ltr">
<div dir="ltr">
<br /></div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-2361389156436024502018-10-16T09:36:00.001-07:002018-10-16T09:36:55.519-07:00ओ रे मनवा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन के भीतर कितना कुछ चलता रहता है लेकिन आप चाहकर भी उन चीजों को लिख नहीं पाते।<br />
<br />
आसपास कितना सारा शोर है, भीड़ है। लेकिन फिर भीतर अपने झांक कर देखो तो समझ आता है कि वहां भी कम शोर और भीड़ नहीं है।<br />
<br />
मुश्किल होता है अचानक से इन सबको कम कर लेना, भीतर के शोर को और भीड़ को।<br />
लेकिन चुप रह जाना भी किसी एहसान से कम नहीं है। इस बीच कैसी-कैसी खबरें आती रहीं लेकिन भीतर का शोर काफी हदतक नियंत्रण बाँधे रखा।<br />
<br />
कई बार दो लोगों को बेहतर तरीके से साथ रहने के लिये एक बाहरी दुश्मन चाहिए होता है। अब आपकी बदकिस्मती है कि वो दुश्मन आप बन बैठें।<br />
<br />
खैर,<br />
प्रेम, दोस्ती, इंगेजमेंट, रिश्ते, शादी, वफा, बेवफाई, ढ़ेर सारे प्रेम के बीच खुद के गुम हो जाने का एक रिस्क सा रहता है।<br />
<br />
सारे चक्रवात और झंझवातों से खुद को बचा रखना भी बड़ा जोखिम लेकिन साहस का काम है। नईँ ?</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-69297822025672554692018-10-16T09:28:00.001-07:002018-10-16T09:28:32.206-07:00शिउली<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कोई अक्टूबर का महीना था<br />
<div>
जब शिउली आयी थी</div>
<div>
ठीक पुजा से पहले का वक्त</div>
<div>
<br /></div>
<div>
हर सबुह तीन बजे हम जग जाते</div>
<div>
शिउली भी ठीक तीन बजे ही आती थी</div>
<div>
<br /></div>
<div>
उसकी खूशबू </div>
<div>
आह, तीन बजे सुबह शिउली की खुशबी</div>
<div>
दिनभर जेब में और ख्याल में डूबी रहने वाली खुशबी</div>
<div>
<br /></div>
<div>
हम जाते....</div>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-60162399020891154212018-10-02T11:50:00.000-07:002018-10-02T11:50:24.103-07:00people come and go...dont worry about them<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लोग आयेंगे-जायेंगे...<br />
<br />
उनके बारे में सोच-सोच कर<br />
उनकी यादों में मर-मर कर क्या ही जीना ...<br />
<br />
एक लंबी जिन्दगी में सात साल कितना कम है<br />
उससे भी कम है चार साल<br />
और उससे कहीं कम साल भर<br />
और भी कम दो महीने<br />
दो दिन<br />
दो घंटे...<br />
<br />
<br />
लेकिन इसी बीच लोग आते हैं<br />
इतने दिनों के लिये भी<br />
और लगता है जैसे पूरी जिन्दगी पर उनका हो अधिकार<br />
<br />
और फिर जब जाते हैं तो<br />
अपने साथ ले जाते हैं<br />
उतनेउतने समय भर का हिस्सा<br />
<br />
मानो<br />
जिन्दगी का हिस्सा न हो<br />
<br />
हो शरीर के मांस का कोई लोथड़ा...<br />
<br />
<br />
मुझे आश्चर्य होता है<br />
<br />
कि ऐसे किसी का हिस्सा बनकर<br />
कि ऐसे अपना हिस्सा खोकर<br />
<br />
भी<br />
<br />
लोग चुपचाप जिये चले जाते हैं...<br />
<br />
सच में लोग आते हैं जाते हैं<br />
<br />
उनकी चिंता करने का कोई मतलब नहीं</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-38858130352815931752018-09-23T00:05:00.001-07:002018-09-23T00:05:10.976-07:00भूखे की डायरी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
- तुम्हारे जाने के बाद लग रहा है मैं एक ब्रेक पर हूँ।<br />
- मुझे इस ब्रेक की जरूरत थी<br />
- लगभग ज्यादा से ज्यादा अकेले रहने की कोशिश करता हूँ।<br />
- अभी दो दिन पहले भूख से रोने लगा<br />
- मैं समझ नहीं पाता भूख का ििइंतजाम मैं क्यों नहीं कर पाता<br />
- अच्छा भी लग रहा है और एक खालीपन भी<br />
- लेकिन ये खालीपन बेचैन नहीं कर रहा<br />
- कभी कभी तो पूरा दिन बिस्किट खा कर रह जा रहा हूँ<br />
- दफ्तर में क्यों रणनीतिक नहीं हो पाता<br />
- प्रोफेशनल स्पेस में विद्रोह और भावुक होना आत्मघाती है<br />
- फिर भी हो जा रहा हूँ<br />
- बंगलोर जा रहा, शायद वहां थोड़ा और तसल्ली से रह पाऊँ<br />
- मैं न एक्टिविज्म कर रहा और न जर्नलिज्म<br />
<br />
<ul style="text-align: left;">
<li>- इस सच को दिल लेकिन मान नहीं पा रहा।</li>
</ul>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-23924133214411327152018-09-19T09:58:00.001-07:002018-09-19T09:58:50.147-07:00थर्ड क्लास लोग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">इस मोहल्ले का सबसे थर्ड क्लास ढ़ाबा है। नाम है पंजाबी ढ़ाबा। लेकिन
वहां काम करने वाले सब के सब बिहारी। वहां खाने वाला आदमी सब भी बिहारी। थर्ड
क्लास लोग। जो सस्ता और वाहियात ही खाते रहते हैं। पानी भी ये लोग यही पीते हैं,
सप्लाई वाला। इसी पानी का दाल है, उसी को रोटी में मिला-मिला खा रहे हैं। बिमार भी
नहीं पड़ते। एकदम पत्थर के बने हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">बारह-बारह घंटे जी तोड़ कामचोरी करके आते हैं। थकते भी नहीं हैं।
बैठकर जियो के थर्ड क्लास 15 सौ रुपये वाले फोन में विडियो देख रहे हैं। इतना छोटा
डिस्पले में अपनी छोटी-छोटी आँखे गड़ाये ये लड़का 15 साल का भी है कि नहीं। देश
में तो 18 साल पहले से सब पढ़े, सब बढ़े अभियान चला, लेकिन ये तो पक्का स्कूल नहीं
गया लगता है। देखो तो कैसे मोबाईल में भोजपुरी गीत देख रहा है। सर में तेल चुपड़
कर बैठा है। देश में क्या हो रहा, कोई खबर ही नहीं। फ्रीडम ऑफ स्पीच, डिसेंट,
यूनिवर्सिटी पर हमला, एक्विस्टो पर हमला, मंदिर, मस्जिद, गाय, गोबर किसी चीज की
चिंता ही नहीं है इसे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">अपने गरीबी और गाँव से भागकर यहां चला आया है। शहर की छाती पर बैठकर
अपना हिस्सा मांग रहा है। बेवकूफ कहीं का। शहर हिस्से में देता क्या है। वो आठ बाई
दस का कमरा। जिसमें पांच लोग एक साथ सोते हैं। या शिफ्ट में सोने जाते हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">ये लोग धरती पर हैं क्यो। क्यों नहीं कहीं और चले जाते हैं। शहर की
चकाचौंध। वातानुकूलित हवा। तेज रफ्तार। हंसी-ठहाके। कहीं तो फिट नहीं बैठते ये।
इनको तो होना ही नहीं चाहिये।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">और मैं यहां क्या कर रहा हूं। ये खाना बनाने वाली नौकरानी भी न। हर
हफ्ते छूट्टी चाहती है। अरे, छूट्टी, वीकॉफ, वीकेंड हम पढे-लिखे, मीडिल क्लास
वालों के लिये है या इनके लिये। हमने लड़ी है लड़ाई आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम और
आठ घंटे मन के काम का। इन नौकरों को, इन मजदूरों को। इनको तो चौबिस घंटे काम करना
चाहिए। अच्छा कम से कम अठारह घंटे और सात दिन तो करना ही चाहिए। लेकिन नहीं, उसमें
भी इन्हें बिमार पड़ जाना है। गाँव अपने परिवार के पास भाग जाना है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">ढ़ाबे में एक झूमता हुआ तीसरा थर्ड क्लास मजदूर आया है। दारु क्यों
पीते हैं ये लोग। ड्रिंक करने का सलीका होता है। बड़ी-बड़ी पार्टियों में,
बड़े-बड़े पब में बैठकर दारु पीना एक बात है, लेकिन ये लोग। ये डिजर्व नहीं करते
दारु पीना। ना, ना। ये गरीब हैं क्योंकि ये दारु पीते हैं। अच्छा दारु बस उनको
पीना चाहिए जो नाले के भीतर घुसकर सीवर की सफाई करते हैं। बदबूदार काम है। दारु
पीये बिना होगा नहीं। गैस से मर भी जाते हैं तो पता नहीं चलता इन्हें। बस लाश बाहर
आती है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">खैर, देश में क्लीन इंडिया कैंपेन चकाचक चल रहा है। 530 करोड़ तो
सिर्फ एडवरटिजमेंट में खर्च हुए सरकार के। बहुत खर्च हो रहा है क्लीन इंडिया पर।
अब सीवर सफाई का काम तो मशीन से नहीं करवा सकते न। बहुत खर्च आयेगा उसमें।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">मन भन्ना गया। गरीबों को देखकर। गरीबी पाप है। पिछले जन्म में जो पाप
करता है इस जन्म का गरीब है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi;">अच्छा हम चलते हैं। किसी कैफे से चाय का फोटो इंस्टाग्राम पर पोस्ट
करेंगे। मन भन्ना गया।<o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-872117212472171673.post-58927455127078459212018-09-17T04:26:00.001-07:002018-09-17T04:28:13.214-07:00तुमने खोया है कभी ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एकबार<br />
<br />
तुर्की के प्रेम कवि जमाल सुरैया ने अपनी <a href="http://www.sadaneera.com/poems-of-turkish-poet-cemal-sureya-in-hindi-translation-by-nishant-kaushik/" target="_blank">कविता </a>में पूछा,<br />
"<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "hind"; font-size: 18px;">तुमने अपने पिता को खोया कभी?</span><br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "hind"; font-size: 18px;">मैंने खोया है एक दफा और मैं अंधा हो गया"</span><br />
<div>
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "hind"; font-size: 18px;"><br /></span></div>
<div>
मैंने भी खोया है</div>
<div>
अपने पिता को</div>
<div>
अपने दोस्त को</div>
<div>
अपने प्रेम को</div>
<div>
अपनी यादों को</div>
<div>
<br /></div>
<div>
लेकिन मैं तय नहीं कर पाता कि किसे खोने का दुख जिन्दगी भर रहेगा</div>
<div>
किसे खोने के बाद मैंने खुद को अँधा महसूस किया,</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मैंने अपने पितो को खोया</div>
<div>
लेकिन</div>
<div>
मैं भूखा नहीं मरा,</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मैंने अपने दोस्तों को खोया</div>
<div>
लेकिन</div>
<div>
मैं अकेला नहीं हुआ ।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मैंने अपने प्रेम को खोया</div>
<div>
लेकिन</div>
<div>
मेरा प्रेम नहीं मरा</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मैंने बहुत सारी यादों को खोया</div>
<div>
लेकिन</div>
<div>
स्मृतिविहीन नहीं हुआ ।।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
हां, थका जरुर।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
हर खोने के बाद</div>
<div>
थोड़ा सा ज्यादा ही</div>
<div>
थका।</div>
<div>
क्या तुम कभी किसी के खोने से थके कभी?</div>
<div>
<br /></div>
</div>
Avinashhttp://www.blogger.com/profile/13255219643130766423noreply@blogger.com0