Saturday, May 26, 2012

आंदोलन: जीवन बचाने की खातिर

एक आंदोलन जूल्म केखिलाफ।

बथानी से लेकर पूरे बिहार में जो जातिय हिंसा हुई..उसके इंसाफ की मांग



फरबिश्गंज  में हुए नरसंहार के खिलाफ 











छोटा कॉमरेड 

Monday, May 14, 2012

सड़क खाली करो कि नीतीश राजा आते हैं


 सड़क खाली करो कि नीतीश राजा आते हैं
स्थान- इन्कम टैक्स चौराहा
शहर- बिहार की राजधानी पटना
समय- दोपहर के दो बजे
अचानक अफरा-तफरी। लोगों को भगाया जा रहा है। एक जीप सायरन की आवाज के साथ रास्ते में चल रहे लोगों की गाड़ियों पर लाठी बरसाती है। चौराहे के चारों ओर रास्तों को बंद कर दिया जाता है। लेकिन एक अठारह साल का लड़का अपनी साईकिल से उस घेरे में आ जाता है। पहले एक सिपाही की सीटी सुनाई देती है, इतने में ही एक सिपाही उसके साईकिल पर लाठी चलाता है। लाठी साईकिल को न लगकर उस लड़के के पीठ पर। लड़का भौच्चक!!
  मैं सड़क के दूसरी तरफ जाता हूं। दो लोग ऑटो से बाहर निकल कर झांक रहे हैं। एक आदमी- लगता  है आज ट्रेन छूट जाएगी। दूसरा आदमी- हमनी जनता से डर लगते हई त काहे आते हई भोट मांगे।
रामनाथ 150 कीमी. दूर अपने गांव से आया है- डॉक्टर के पास लेकिन लगता है वो समय पर नहीं पहुंच पायेगा। एक तो एक हफ्ता पहले नंबर लगता है उसमें भी समय से नहीं पहुंचने पर...
  मैं उससे पूछना चाहता हूं कुछ। लेकिन इससे पहले बहुत से गाड़ियों के सायरन की आवाज एक साथ कानों में घुसती है। मैं नजदीक जाकर देखता हूं। सीएम बिहार की तख्ती लगी गाड़ी गुजरती है। इसके बाद ट्रेफिक को खोल दिया जाता है। सभी अपने-अपने रास्ते चील-पौं की आवाज से गुजरते हैं।
  लेकिन दस मिनट की ये घटना बहुत कुछ मेरे मन के भीतर छोड़ जाती है। मुझे जानकीवल्लभ शास्त्री की पंक्ति याद आती है-
जनता धरती पर बैठी है नभ में मंच खड़ा है
जो जितना दूर मही से उतना वही बड़ा है
सुना है मायावती अपने लिए जेड वाई प्लस किसी सुरक्षा की मांग कर रही है। इसी बीच आए-दिन नेता अपनी सुरक्षा में नये-नये प्लस जोड़ते रहते हैं।
  मैं उसी सवाल को बार-बार दोहराना नहीं चाहता। जानता हूं कि इस सवाल पर बहुत बहस हुआ है लेकिन उनसे कोई फायदा नहीं। नेताओं को सुरक्षा मिलना सही है या लगत इस पचड़े में मैं नहीं पड़ना चाहता।
लेकिन हां, बुरा तो लगता है बॉस। जब आप किसी जरूरी काम से जा रहे हों और आपको ऐसे किसी वीआईपी के कारण बेवजह रोक दिया जाय। साधारण हूं मानता हूं। लेकिन बार-बार इस बात का एहसास दिलाना कि आम-आदमी मजबूर है, उसकी कोई हैसियत नहीं-आपको लगे न लगे। मुझे बुरा लगता है।
और इसलिए इस ब्लॉग के जरीये मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूं।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...