Thursday, February 22, 2018

तस्वीरों का किया कीजै..

तस्वीरें आती रहती हैं। याद बनकर। कभी मेट्रो की। कभी किसी मेले की। कभी किसी कमरे की। कभी किसी कैफे की। कभी पहाड़ों की। कभी गंगा किनारे की। तस्वीरें आती रहती हैं लौट-लौट कर। बस नहीं लौटता तो.....
वे दिन..

कभी-कभी सोचता हूं डिलीट क्यों नहीं करता। तस्वीरें, यादें और जिन्दगी सबकुछ को।

तस्वीरें आती रहती हैं
कभी पैरों के जोड़े बनकर
कभी माथे में चिपकी बड़ी बिन्दी बनकर
कभी कान से लटकता झूमका
कभी जयपुर का लंहगा
कभी आँचल रंगीन

तस्वीरें आती रहती हैं
कभी मंडी हाउस की
उँगलियों में फँसी सिगरेट की
रंग महोत्सव की

उस घर की।
कभी किसी जंगल की, कभी गाँव की
तस्वीरें आती रहती हैं
गजरे की और दो कप साथ के चाय की।

शर्माये से चेहरे की
ढ़ेर सारे फूलों की
एकदूसरे को मुंह चिढ़ाने की
पीली रौशनी और केक खाने को बाया बड़ा सा मुंह


तस्वीरें आती रहती हैं...पुराने पुराने गलियों की
नावों की, बनारस की

भोपाल की, साईकिल की..
जेएनयू की, ढ़ाबे की, मिठायी की
ट्रेन की, पानी की, झरने की,

पुराने जैकेट की, सिंगरौली की...


और

तस्वीरें आती रहती हैं,
नये लोगों की...

बस वो नहीं आते, जिनका आना तय था।

कसमें, वादे, प्यार, वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या

आज जाने की जिद्द न करो
यूं ही पहलू में बैठे रहो

रातभर ही तुम याद आये। रात भर ही हम मरते रहें। रातभर ही लूटते रहे। रातभर बस बातें न हो सकीं। रातभर तुम्हें लिख न सका।

रातभर रहा खूब सारा वक्त। रातभर डरता रहा। एक घर था। हवेली जैसा। किराया काफी कम। हमने ले लिया। तुम डरते रहे। मैं हिम्मत करके जगा रहा।

हमदोनों बैठे रहे। मैंने तुम्हें रोके रखा। जान जाता रहा। तुम लौटे ही नहीं। बात इतनी सी है कि तुम...


Monday, February 19, 2018

सुख़न के साथी, संघर्षों में गुम गए

सब कुछ बड़ा हो गया था। वो ख़ुद भी। मौसम भी और जीवन भी । सुख हाँ सुख ही था दुनियादारी के सारे ही सुख।
सुख तो था लेकिन भरोसा न था। बिना भरोसा का सुख और साथ सब मिट्टी।

तुम थे तो संघर्ष था। ख़ूब सारे संघर्ष। दुःख और अभाव भी। लेकिन तुम बचे रहे दुःख की , उदासी की सारी नदी में, उम्मीद के सागर में।
तुम एक तिनका थे और तिनके पर ही था कितना सारा भरोसा।

अब के सुख में कई साथी दौड़े चले आते हैं लेकिन संघर्ष है नहीं , तो भरोसा भी नहीं।
तो सबकुछ अधूरा पड़ा है।

Thursday, February 15, 2018

प्रेम की तितलियां और सुअर सा चेहरा

पहले वो सामान्य था। सामान्य से थोड़ा बेहतर ही। बिल्कुल बिल्लियों को तरह। उसकी आँखे थी। और मूंछ भी बिल्लियों की तरह उगे थे। बिल्लियों की तरह ही चंचल था। बिल्लियों की तरह ही घर की रसोई से दुध चुरा लिया करता था। और भागता रहता था।

फिर एक जूलाई की बात है। करीब करीब दो साल पहले वाले जूलाई। उस साल शादियां खूब हुई थीं। शादियों में उसका आना जाना भी हुआ था। कुर्ते खरीदे गए थे। खुश खुश में खूब नाचा गया था।
फिर वो थककर सो गया। उसकी नींद खुली तो वो एक बड़े शहर में था। बीच सड़क पर लेटा हुआ था। उसने झटपट अपनी नींद को विदा किया और सामने लिखे सुलभ शौचालय की तरफ भागा।

वहां एक गंदा सा पुराना सा आईना रखा था। आईने में उसने खुद को देखा। वो देखता क्या है कि उसका चेहरा अपनी जगह से गायब है। वहां चेहरे की जगह सुअर सा कसैला मुंह लिये कोई खड़ा है। उसने अपने हाथ टटोले, पैर को आगे-पीछे किया। नहीं वही था। वही और उसी का चेहरा बिल्लियों सा नहीं रह गया था। सुअर हो चुका था। फिर उसने जैसे-तैसे एक गंदी-फटी-मटमैली जगह तलाशी। वहां बहुत सारी उल्टियां थी।

जब वो बिल्ली था तो एक चिड़िया उसकी दोस्त हुआ करती थी। सुअर वाला चेहरा लेकर उसने सोचा पहले चिड़िया के पास चला जाये। लेकिन फिर उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसने सुअर वाले चेहरे को लटकाया। उसके दिमाग में भी सुअर की गंध भरने लगी थी। वो अब सुअर था।

उसने सुअरों जैसा करना शुरू कर दिया। उसने सुअर जैसा ही चुमा। सुअर जैसा ही भागदौड़ मचायी। लोग उसके सुअरपने को देखते हुए भागने लगे।

वो काफी अकेला पड़ गय़ा। लेकिन सुअरपने को नहीं छोड़ा।
अब क्या...

एकदिन एक तितली उस सुअर की पीठ पर आकर बैठ गयी। सुअर के पेट में भी तितलियां चलने लगीं।
सुअर को अपने चिड़ियां दोस्त की याद आयी।
तितली पीठ पर बैठी रही। तमाम डर, आशंकाओं और चिंताओं के बावजूद।

Tuesday, February 13, 2018

ज़िंदगी का नशे में डूब मरना

आसान रहा ज़िंदगी को नशे में डूबते देखना और वजह किसी और को बता देना।
आसान समझता रहा तुम्हारा रोना। कि किसी बटन का दबाने जितना ही। ज़िंदगी को जितना सोचो, बस बीते हुए कल की याद आना।
ये सोचना कि क्यूँ ! और उस बड़े से क्यूँ का यूँ ही डूब मरना।
ज़िंदगी सिल्वीअ और वर्जिन्या के बीच झूलता रहा। लोग अपने हमसफ़र तय कर आगे बढ़ते रहे।
सिल्वीअ तुम कहाँ रह गए। क्या सच में किसी रोज़ दवा खाकर मर गए। या मैंने मारा।
वर्जिन्या भी तो मर रही है हर रोज़ थोड़ा थोड़ा।
बस बचा रह गया मैं पूरा पूरा - हर रोज़ नशे में होश खोता।
चिट्ठियाँ भेजी जाती रहीं। कोई सिरा पकड़ में न आ सका। डाइअरी की एंटरियाँ ठीक शहर में सर्दी शुरू होने से पहले बंद कर दी गयीं।
सर्दियाँ अब जाने को है । प्यार का महीना बीत रहा। लेकिन क्या मज़ाल कि एक पन्ने पर भी कुछ लिखा जा सका हो।

और ये दोस्त ये बुलबुले। ये अर्नस्ट ये बूकाउस्की। ये थे भी कि ख़ाली था भ्रम पाश के होने का, जिसने कहा था ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना।
जबकि उसे कहना था सबसे ख़तरनाक होता है प्रेम का न रह पाना और उससे ज़्यादा उसका न हो पाना और उससे भी ज़्यादा उसे न कर पाना।

भाक साला ज़िंदगी!!

प्यार मुझसे जो किया तो कितना खोया तुमने.....

हवा कनकनी है। फरवरी है और पेड़ पत्तों के बावजूद उदास लटके हैं। ठंड न जाने का नाम ले रही है और न रहने का। याद का भी यही हाल है। जमा है। हर रोज बीच बीच में आता रहता है।
मौसम के मुताबिक उसे अब यहां नहीं होना चाहिए। दुनियादारी भी यही कहती है। मौसम बदलता रहता है। हर किसी को उसके आगे आगे तैयारी करनी पड़ती है।
लेकिन मन कहां मानता है। थोड़ा सा जलाता है. थोड़ा सा प्रतिशोघ की आग से क्षणिक सुख तलाश लेता है। लेकिन फिर लौट आता है वहीं।

कितना भी कर लो जतन आगे नहीं बढ़ पा रहे हम। ईशारों इशारों में बात करने की आदत।
प्यार जो तुमने मुझसे क्या किया पाया...
प्यार जो मुझसे किया तो क्या पाओगे के बीच हम कहीं अटके रह गए।
आँसू भी नहीं निकलते अब जोर जोर से। क्योंकि मौसम को तो बदलना है। हवा में कुछ कुछ बुदबुदाना है। जो दुश्मन समझे मुझे, उसे भी मेरे हिस्से का प्यार मिले..

आमीन आमीन आमीन

Friday, February 9, 2018

प्रेम न कर पाना ही प्रे और म है...

प्रेम को न भूल सकना ही प्रेम है। इतना ही नहीं प्रेम को न कर पाना भी तो प्रेम ही है। और हर रोज जो ख्याल में आये, उसके बारे में लिख न सकना भी प्रेम है।
और जिसे लिख न पाया जा सके और सिर्फ याद ही याद हो...वो भी प्रेम ही है।
और जब जिसे लिखना चाहो और न लिख सको, और जिसे कहना चाहो उसे कह न सको, या उसके बारे में न कह सको तो उस प्रेम में कुछ भी न लिख पाना भी प्रेम ही है।
न कह सको तो चुपचाप सहो...भी प्रेम ही है। याद आये भी और उसे भूलाने की कोशिश में जुटे रह जाना भी प्रेम ही है।
और कुछ न समझ आ सकना भी एक तरह का प्रेम है। शब्दों को भूलना, जीवन का एक ही मकसद न लिख पाने की स्थिति को पाना भी प्रेम ही है, या है प्रतिशोघ।
प्रेम तक जाने वाले सारे पुलों को तोड़ लेना भी प्रेम है। और जहां हो वहां न रह पाना और वापिस न लौट पाना दोनों प्रेम ही है।
जहां हो वहां रह सकना भी प्रेम हो सकता है, बस उसे स्वीकार करने की हिम्मत न भर पाना ही प्रेम है।

प्रेम के इस महीने में एक प्रेम को याद करते हुए, दूसरे प्रेम को जीते हुए...प्रेम न कर पाने का अफसोस लिये...प्रेम के जिन्दाबाद बने रहने का नारा लगाना ही प्रेम है।
आमीन

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...