Sunday, February 26, 2017

बुखार के दिन

बुखार जैसे दिन बीत रहे हैं. छूकर देखा तो सच में बुखार ही था. मन भी थका और शरीर भी अब थकने लगा है. गहरी अकेली शाम, कमरे में शाम की गहरी रौशनी आ रही है. खिड़की पे पर्दे डाल दिये. शाम की ये वाली रौशनी डराती है. डराती नहीं शायद खाली और शून्य को लिये आती है. आती नहीं जा रही होती है.

ऐसे बुखार के दिनों में अकेले होना कम ही पसंद होता है. निगाह दरवाजे पर टकटकी लगाये ताकता रहता है. किसी के आ जाने, किसी के हालचाल पूछ भर लेने से लगता है सब ठीक हो जायेगा. दोपहर से टालता रहा, लेकिन दवा लेने जाना ही पड़ा. मेडिकल स्टोर तक आना-जाना बुखार में चलते जाना...बहुत दूर निकल गया...फिर ख्याल आया स्टोर पीछे ही रह गया शायद.

बुखार में सबकुछ अकेले करना...खैर, लापरवाही खुद के लिये ...खैर..

ये सन्नाटा, ये बीचबीच में गुर्राहट भरी आवाज लिये उतरने को बेताब हवाई जहाज, दोपहर छत पर धूप में लेटा बुखार के जाने का इंतजार किया..निर्मल वर्मा को फिर से पढ़ने की कोशिश की- एक चिथड़ा सुख.
नहीं पढ़ा. सुबह से तीन-चार कहानियां मंटो की पढ़ी. दिल बहलता रहा. इंतजार भी बना रहा.....

दोपहर कुछ दोस्त रहे...फिर चले गये..फिर शाम और अब रात...बुखार में इंतजार रहता है..

करीब करीब दिन भर ही फोन बंद रखा..मुझे अब भी सुखद आश्चर्य होता है जब लोग फोन करते हैं, मिलने को बुलाते हैं. सबकुछ से खुद को काटने के बावजूद लोगों का स्नेह देख कई बार खुद पर गुस्सा भी आता है...

बहरहाल बुखार है तो हालचाल लेने वाले का इंतजार भी है..कल तक शायद गायब हो जाये..इंतजार भी बुखार भी..

उम्मीद वो बची रहेगी...

Saturday, February 25, 2017

कठिन दिन

वे दिन अजीब हो चले थे। वो खुद को लेकर इतना सेल्फ डाउट में चला गया था कि उसके आसपास के लोग भी बड़े आराम से उसे हवाबाज कहने लगे थे। ये ऐसे लोग थे जिनके सामने सबसे ज्यादा ओरिजिनल बने रहने की कोशिश की गयी थी। ये लोग उन चुनिंदा लोगों में बचे थे जिनके लिये अब भी मोह कहीं न कहीं अटका रह गया था।
खैर, वो बार बार सबसे दूर, हो जाने की चाहते हुए भी हो नहीं पा रहा था।
कठिन दिन थे।

Thursday, February 23, 2017

भीड़ में ज्यादा अकेलापन

भीड़ में ज्यादा अकेलापन लगता है। जाने पहचाने चेहरे उस अकेलेपन को और गहरा करते चलते हैं।
डर, हाँ वही लगने लगता है।
कितना झूठ और अँधेरा है आसपास। लोग कहते हैं ख़ुशी रहो, खुश दिखो,
लेकिन सुख वो कहाँ गुम रहता है इन दिनों !

Wednesday, February 22, 2017

दुःख के सफर मे अकेले चलना है

आप एक सफर में होते हैं- दुःख के सफर में।
सफर में और भी लोग चल रहे होते हैं- उसी दुःख के सफर में।
सड़कों पर चलते हुए, छोटी नदी में तैरते हुए कोई और भी आपके साथ चला आता है- आप उस दुःख में साथ डूबते-उतराते चले जाते हैं।
लेकिन फिर एक वक़्त आता है, एक बिंदु जहां जाकर साथ वाले का दुःख चला जाता है, दुःख की नदी से वो किनारे लग जाता है, आप बस उसे देख भर सकते हैं किनारे लगते हुए- आपको अच्छा भी लगता है कोई तो किनारे लगा, किनारे लगने वाला भी थोड़ी देर तक आपको तैरते जाते देखता है, फिर लौट जाता है-
आप चलते जाते हैं, दुःख के सफर में- बिलकुल अकेला।

Saturday, February 18, 2017

Diary entry Feb 18

आज दिन भर रेख्ता में रहा। भीड़ में जाने-पहचाने लोगों से बचता हुआ, चुपचाप किसी कोने में बैठ लोगों को जूमआउट होकर देखने की कोशिश की...
फिर एक ख्याल आया मैं लोगों से कट रहा हूं, वैसे ही लोग भी तो मुझसे कट रहे होंगे...ज्यादातर बार हम अपने भ्रम में जीते हैं.
हमें लगता है हमें दुनिया से बचना है, जबकि सच्चाई होती है कि दुनिया में हमारा अपना ही कोई अस्तित्व नहीं..हम एक तिनका भी नहीं..

फिर ...

क्या हम लिखने के लोभ में चीजों को रोमेंटिसाइज कर देते हैं...ओवर रोमेंटिसाइज.. रियलिज्म से दूर..किसी ने कहा शॉ को पढ़ो निर्मल वर्मा को छोड़ो..शॉ चीजों को डिरोमेंटिसाइज करते हैं..
क्या सच में सारी समस्याओं की जड़ वही लिखने का मोह तो नहीं है..डर लगने लगा कहीं हम लिखने के मोह में खुद को ही खत्म न कर लें..
वैसे सही भी है दुनियादारी की नजर में देखो तो खुद के जीवन में कोई एक बिन्दू नहीं है जहां अभाव हो..अकेला रहना खुद का चुना है- सो उसपर भी बहुत शिकायत नहीं की जा सकती।
फिर ये दुख, ये खालीपन है क्या...
और अगर कोई भरा सा कुछ है तो वो क्या है...क्या है जिसे भरा सा कहा जाये...
लेकिन फिर लगता है हम शायद ही उतने रियलिस्टिक हो पायें..क्या खालीपन को भरने के लिये , अँधेरे में रौशनी के लिये रियल हो जाने की कोशिश बहुत उपरी हल जैसा नहीं...

कई बार लगता है दुनिया की तरफ देखना चाहिए....दुनिया के दुख में शामिल होना चाहिए...या तो अपना दुख कम हो जायेगा...या वो उसमें घुलमिल कर और बड़ा हो जायेगा..
लेकिन कुछ तो होगा..कुछ तो होगा जिसे महसूस किया जा सकेगा..
महसूस न किये जाने की फीलिंग भयानक है...फिलहाल सबकुछ उस अँधेरे के हवाले...जहां उजली रौशनी भी कुछ नहीं दिखा पा रही...

Friday, February 17, 2017

डायरी इन्ट्री फरवरी 17

लगता है कुछ खोता जा रहा है- मेरा मैं ही शायद। मैं में हू डूबा, उसी में अब पार नहीं सूझता। Interest in life अब खत्म सा होने लगा है। किसी भी चीज के लिये वो Interest नहीं समझ आता।

दफ्तर, काम जिससे प्रेम था, अब खोने लगा है। विचार बहुत पहले मर चुके हैं, दोस्ती, प्रेम, रिश्ते किसी के लिये भी interest नहीं रह गया है।

अब तक लोगों को भ्रम में रखते आने का दोषी मानता हूं , और खुद को खुद के लिये शायद ही कभी माफ कर पाऊँ।

अपनों के खिलाफ भयानक खिलाफ हो गया हूं, जिनसे प्रेम है उनपर झल्ला रहा हूं, उनसे रूड हो रहा हूं।

अब लगता है या कुछ लगता ही नहीं है- कुछ पकड़ में नहीं आ रहा है।

जीवन का मकसद, जीने की कोई एक वजह नहीं सूझता, और मरने की हिम्मत नहीं।

शाम है अभी, बॉलकनी में फूल खिले हैं, गमले रखे हैं, ख्याल आता है बॉलकनी को जंगल बना दूं, सब सपना है, या नींद में ही चलने जैसा है।

रौशनी बहोत है कमरे में, लेकिन अँदर घनघोर अँधेरा।

साइनआउट
Tonight I am ugly. I have lost all faith in my ability.  My social contact is at the lowest ebb.  I dont care about anyone.

हैल्लो डार्केनेस मेरे पुराने दोस्त

हैल्लो डार्केनेस, मेरे पुराने दोस्त
मैं एकबार फिर आ गया तुमसे बात करने
 क्योंकि मेरी नजर फिर से रेंगने लगी है
जब मैं सोया था उसने अपना बीज छोड़ दिया

और वो जो नजर मेरे दिमाग में बहुत पहले रोप दिया गया था
वो अबतक खामोशी की आवाज के साथ चिपकी है

अपने कठिन सपनो में मैं अकेला ही चलता जा रहा हूं
बहुत पतली सी गली है उस शहर की
उस पीली सी लैंपपोस्ट की रौशनी में
मैंने अपने कॉलर को ठीक किया है
सर्द रात है

जब मेरी आँखे रौशनी से चौधियाती है
मेरी रातें टूट जाती हैं
और मैं खामोशी की आवाज को सुनने लगता हूं

उस नंगी रौशनी में मैंने देखा
दस हजार और उससे भी ज्यादा लोग
आपस में बात कर रहे हैं
लोग सुन रहे हैं बिना सुने

लोग गीत लिख रहे हैं
ऐसी आवाज में जो पहले कभी नहीं सुनी गयी
और किसी में भी, किसी एक में भी नहीं है हिम्मत
कि वो खामोशी की आवाज को चुनौती दे सके


मुर्ख..मैंने कहा,
तुम्हें पता नहीं है क्या कि खामोशी कैंसर की तरह घर कर जाता है

सुनो मेरे शब्द कि मैं तुम्हें सीखा सकता हूं
मेरी बाँहे ले लो, कि मैं तुम तक पहुंच सकता हूं

लेकिन मेरे शब्द खामोश बारिश की बूंदे हो गयी
जो खामोशी के ही कूएँ में आवाज कर रही हैं
लोगों ने तारीफ की, प्रार्थनाएँ की मेरे लिये
सबने मेरी हालात पर चिन्ता जाहिर किया
सबने ही मेरे लिये अपने ईश्वर से रहम की भीख माँगी

शब्द बनते रहे, मैं पीछे छूटता रहा

मंदिरों के साइनबोर्ड पर ईश्वर खुद लिखने आया
लेकिन मैं सुन न पाया
खामोशी में कोई संगीत ।।

(Leonard cohen की The sound of Silence को तोड़-मरोड़ कर की गयी अनुवाद)

Thursday, February 16, 2017

अँधेरे में रहते हुए

हम सब एक अँधेरे को जी रहे हैं। हम सब नहीं शायद सिर्फ मैं। मैं पूरी दुनिया की तरफ से अपनी बात नहीं कह सकता। खाली दिन हैं...शायद नहीं...खुद ही खाली सा है।
फरवरी की दुपहरें कितनी लंबी होती हैं, उतनी खामोश भी और रातें उदास।
बस एक शाम का वक्त है जो इन दिनों राहत सी लेकर आती है।  गुमनामी के अँधेरे में भी ये बातचीत बनी रहे...मोमबत्ती की रौशनी ही सही, कुछ तो दिखना चाहिए...हल्की सी भी उम्मीद की तरह।
हालांकि उम्मीद अपने आप में बड़ा सा झूठ जैसा है। लगता है उम्मीद है वहां, वहां पहुंचो तो पता चलता है वो कहीं दूर झिटक कर जा गिरा है।  हम फिर उस दूरी को तय करने की कोशिश करने लगते हैँ।
शायद सिसफश सी जिन्दगी है.....उम्मीद एक पत्थर है हम हर रोज, हर बार कोशिश करते हैं और पत्थर को उपर पहुंचा आते हैं, जब लौटते हैं तो पाते हैं पत्थर फिर लूढ़क कर वापिस अपनी जगह लौट आया है...
हम रातभर सुस्ता फिर पत्थर को उपर ले जाने की सुबह वाली तैयारी करते हैं। पता नहीं नॉनसेंस सा कुछ भी टाइप कर रहा हूं।
आजकल एक नशा सा लगता है। लगता है किसी हैंगओवर में सबकुछ लिख रहा हूं, जी रहा हूं, कह रहा हूं।

रहती है रोशनी
लेकिन दीखता है अँधेरा
तो
कसूर
अँधेरे का तो नहीं हुआ न
और
न रोशनी का
किसका कसूर?
जानने के लिए
आइना भी कैसे देखू
कि अँधेरा जो है
मेरे लिए
रोशनी के बावजूद

वेणु गोपाल

लड़कियां प्रेम में पागल होती हैं

लड़कियां ज्यादा प्रेम करती हैं। लड़कों से प्रेम हो नहीं पाता। मेरी मानो तो लड़को को प्रेम करना बंद कर देना चाहिए- ज्यादातर बार वे सिर्फ ढ़ोंग कर रहे होते हैं।

लड़कियां अपना सबकुछ प्रेम को मान बैठती हैं। लड़के ऐन मौकों पर प्रेम से भाग बैठते हैं। उनके बस का नहीं।

ये दुनिया ऐसे भी चल सकती है अगर बची रह जाये लड़की और उनका प्रेम। लड़के न भी हों तो चल जाये...और उनका प्रेम....किसी डस्टबीन में जाने लायक सामान।
लड़कियां कभी प्रेम में सफल नहीं हो सकती, हार-जीत दोनों में उनका मैं खत्म हो जाता है- ज्यादातर मामलों में।

लड़के बचे रहते हैं, थोड़ी सी सीख जाते हैं दया, प्रेम, एहसास, लेकिन नहीं छोड़ बाते अपनी कमीनियत, वे वैसे ही बने रहते हैं।

एक हारा हुआ प्रेमी लड़की ही हो सकती है।

लड़के मतलब मैं...प्रेम पाने के लायक नहीं, प्रेम करने के लायक नहीं..प्रेम में डूबने के लायक नहीं..जिन्दगी बेतरतीब सा कुछ भी

Saturday, February 11, 2017

खत्म होते बेटे का माँ को चिट्ठी

प्रिय माँ

ये जब लिख रहा हूं तो अकेला हूं। नहीं सिर्फ इस शहर में नहीं, दफ्तर के इस कमरे में नहीं बल्कि हर जगह। तुम लौट चुकी हो, हजार शिकायतों, दुखों, उदासियों को अपने साथ लिये। मैं पीछे छूट गया हूं पिछले तीन दिन की तसल्ली भरे समय को लिये। तुमने जाने के बाद फोन भी किया, मैं ना-नुकुर में बात करता रहा। पिछले तीन दिन तो ऐसे ही बीते। बहुत बहुत कम बातचीत के साथ- तुम हमेशा चाहती रही बातें हो, चाहती रही हम साथ बैठे, लेकिन मैं व्यस्त रहा- अपने स्मार्टफोन में, अपनी दुनिया में जो ज्यादातर बार कृत्रिम सा लगता है। तुम शिकायत करती रही- हमेशा फोन में क्यों खोए रहते हो, और मैं स्क्रॉल करता रहा। इस बीच महीने भर की यात्रा में गंदे पड़े कपड़े कब साफ हुए, नहीं पता चल सका- दफ्तर के लिये निकला तो देखा, इस बीच अपनी गर्दन झुकाये मैं फोन में रहा- और हाथ में चाय मिलती रही, खाना खाता रहा, अपने दफ्तर जाता रहा।

 

तुमने ठीक ही कहा, ऐसा मिलना तो फोन पर मिलने जैसा ही है। ऐसा मत समझो कि मैं ये सब लिखकर अपनी गलतियों को छिपा रहा हूं. न...बिल्कुल नहीं। बस एक स्वीकोरक्ति है, बस मैं स्वीकार कर रहा हूं...तुम्हें पता है माँ लिखने वाले लोग बड़े बेईमान से होते हैं- अपनी हर गलती पर भावुक शब्द खोज लेते हैं, जबकि सच्चाई है कि घोर भावुकता में कोई शब्द नहीं सूझता। मुझे अभी सूझ रहा है- यही मेरी बेईमानी है, यही दुख है, यही स्वीकोरक्ति है।

दरअसल मुझे लग रहा है मेरे अंदर का मैं मरता जा रहा है। मेरे अंदर की सारी संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं और ऐसा मैं जानबूझकर होने दे रहा हूं...उससे भी ज्यादा इन सब चीजों में मुझे मजा आने लगा है। मैं सुख में हूं- अपनी सारी संवेदनाओं को खत्म करके।

लगता है जैसे सारी संवेदनशीलता मैंने पेशेवर शब्दों तक समेट दिया है। शायद यह एक लंबी प्रक्रिया है। याद है तुम्हें अक्सर अपने बहुत सारे बाहर के काम संभालने होते थे- हम दोनों भाई तुम्हारे रसोई में हाथ बांटते थे, बर्तन धोने से लेकर दूसरे छोटे-छोटे काम। घर-गाँव के लोग कितना मजाक उड़ाते थे- कि घर का काम करता है, लड़की है, और न जाने कितनी बकवास। लेकिन हमें अच्छा लगता था- तुम्हारे मीटिंग में जाने के बाद पीछे साड़ी धो के रख देनी जैसी छोटी-छोटी बातें सुख देती थी। लगता था मम्मी आज आयेगी तो कितना खुश होगी...ऐसी ढ़ेरों बातें याद हैं- तुम्हारी खुशी में हमें सुख महसूस होता था।

 

लेकिन आज वो सुख कहां गया…मैं खुद नहीं समझ पा रहा। पिछले न जाने कितनी मुलाकतें याद है मुझे- जहां मैंने कभी तुम्हारे लिये चाय नहीं बनायी, कभी तुम्हारे साथ रसोई का कोई काम नहीं कर पाया, हालांकि सोचता रहा करुंगा, करना चाहिए, लेकिन नहीं किया...क्यों..

शायद बदल गया हूं...फेसबुक पे, लंबे-लंबे आर्टिकल्स लिखने लगा हूं कि महिलाओं की आजादी की बात, उनके रसोई से आजादी की बात- खूब वाहवाही मिलती है वहां, अब उसी में सुख महसूस होने लगा है- तो वो जो पुराना वाला सुख है अब सूखने लगा है। अब ज्ञान है कि रसोई में मर्दों को भी जाना चाहिए, लेकिन वो इमोशन नहीं है कि माँ को अच्छा लगेगा- उसके लिये रात का खाना बनाया जाय, माँ को अच्छा लगेगा- उसके लिये बेड टी बनायी जाय, कि माँ को अच्छा लगेगा उसके कपड़े धो दिये जायें।

 

मुझे याद है- बचपन में हम अपने कपड़े खुद धुलते थे। अब भी जब तुम पूछती हो- गंदे कपड़े दो, मैं नहीं देता, तुम खुद बैग से निकाल लेती हो, धुल देती हो और मैं पहन लेता हूं- बस इतना ही। कोई दुख, अफसोस और सुख नहीं दिखता वहां।

 

कितना अजीब होता जा रहा हूं। बेहद अंसवेदनशील। दुनिया में हँसते-मिलते-बैठते समझ में नहीं आता लेकिन जब अकेले में बैठो तो वो फर्क महसूस करता हूं...खुद को खोता चला जा रहा हूं- नहीं इसमें कोई शिकायत भी नहीं है...मैं खुश हूं...

याद आता है पहली बार अखबार ज्वॉयन किया था, गोल्फ क्लब की रिपोर्टिंग के लिये गया था।  वहां बहुत आलीशान महफिल जमी थी। लोग खा-पी रहे थे, खेल कम, भव्यता ज्यादा थी। मुझे लगा था कहाँ आ गया...रो पड़ा था।

और एक आज का दिन है- खुद पता नहीं कितनी मंहगी पार्टियों का हिस्सा बनता हूं, मँहगे रेस्तरां, कैफे, जीवन में ही सुखी हूं.....खुद को लगता है कुछ हासिल किया...अहा, उपर से दावा ये कि नौकरी अपनी माँ की खुशी के लिये कर रहा हूं।

हाहाहा, कितनी मक्कारी है न। नौकरी, शहर की मंहगी जिन्दगी, ट्रैवल, सबकुछ खुद करता हूं, और नौकरी करने का सारा इल्जाम तुम पर लगाता हूं। और तुम वहीं हो, जहां हम थे बीस साल पहले, दस साल पहले- अपने दुख और अकेलेपन के साथ। अब तुम्हारा रोना भी परेशान नहीं करता, बस चुप हो जाता हूं...तुम चली जाती हो फिर अपनी दुनिया, अपनी महफिल में खुश हो जाता हूं।

 

करीब पन्द्रह साल से तुमसे दूर रह रहा हूं...इस बीच पिछले पाँच साल में मैं खुद को बेहद असंवेदनशील होते पाया है। जितना तुमसे दूर होता रहा, हमारी मुलाकातें कमती रहीं मैं अंसवेदनशील होता चला गया।

यह सिर्फ तुम्हारे लिये नहीं, दुनिया के लिये भी। तुम्हें बताउं वैसे तो दर्जनों केस हैं- लेकिन एक किस्सा हाल का है- एक दोस्त है। थोड़ा खास सा ही। हाहाहा। ये भी अजीब है जो जितना खास होता है, वो उतनी ही तेजी से गुम हो जाता है। खैर, तो उस दोस्त के साथ कहीं घूमने गया था, मेरी गलतियों की वजह से उसका कीमती सामान गुम गया। हम सब परेशान हुए- लेकिन बहुत फर्क नहीं पड़ा- हमने इधर-उधर खोज की, फिर फोटो खिंचने लगे, अपने फोन में गुम होने लगे। इस बीच वो दोस्त बेहद परेशान रहा। फिलहाल अब उससे वैसा नहीं है। बाद में मैंने उसे कंपनसेट करने की कोशिश की। भूल गया उसके सामान का मुआवजा दे सकता हूं, लेकिन अपने असंवेदनशील होने की कीमत दूंगा...सॉरी..नहीं ये भी फिजूल की बात है।

 

दरअसल ऐसा ही हो गया हूं- किसी के मरने की खबर आती है, फेसबुक स्टेट्स अपडेट कर देता हूं, कई बार समझ नहीं आता तो कुछ नहीं भी लिखता हूं, लेकिन रोता कभी नहीं। आँसू नहीं गिरते, आसपास बड़ी से बड़ी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, लेकिन दिल उफ्फ नहीं करता। अपने रोजमर्रा के काम खुशी-खुशी निपटाता हूं...अब कोई फर्क सा पड़ना बंद हो गया है। अजीब है। दुख जबतक नितांत प्राईवेट न हो, कोई फर्क ही नहीं पड़ता।

सरोकार खत्म हो गये हैं, लोगों के लिये मन में स्नेह नहीं बची है, एक भी दोस्त-यार नहीं जिनके बारे में मैं कह सकूं कि इसे मै प्रेम करता हूं- खुद से प्रेम बढ़ता चला जा रहा है- तुम हो अपना घर है, जहाँ आखिरी उम्मीद बची है- पता नहीं कब वो प्रेम भी खत्म हो जाये, हालांकि जो बचा है वो भी तुम सबकी तरफ से ही है- मुझ में तो उसका छँटाक भी नहीं।

 

माँ, मुझे तुम्हारी जरुरी है...मैं कह नहीं पाउंगा...हो सकता है तुम्हारे साथ रहूं तो बचा रहूं...लेकिन एक मन ये भी कहता है कि अकेले रहो, आजाद रहो...खुद की सोचो...खुद में रमो...सारा सुख अपने लिये बचा लो...और पता है उस मन की मैं आजकल ज्यादा सुनने लगा हूं...

बस इतना ही..

तुम्हारा

बेईमान होता जा रहा बेटा

लिखे में बेईमान, जिये में बेईमान

कहे में बेईमान, ईमानदारी कहीं नहीं।

Ps- कुछ चीजों के बारे में लिखना मुश्किल है। आपके साथ कुछ होता है और आप उसे लिखने बैठ जाते हो- फिर या तो आप उसे ड्रामा बना देते हो या फिर उसे बेहद कम करके आंकते हो, गलत हिस्से को बढ़ा-चढ़ा के लिखते हो या फिर जरुरी हिस्से को इग्नोर कर देते हो। किसी भी हाल में, आप उसे वैसे नहीं लिख पाते, जैसा चाहते हो।
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द अनब्रिज्ड जर्नल्स ऑफ सिल्विया पाथ

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...