Sunday, September 30, 2012

सरकार मेरे पति को तत्काल रिहा करे- निकहत परवीन



पटना 27 सितम्बर 2012/ मेरे पति फसीह महमूद का सउदी अरब में भारतीय एजेंसियों द्वारा अपहरण किया जाना अवैध और आपराधिक घटना है। जिससे भारतीय खुफिया एजेंसियों की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगता है। मेरे पति के प्रत्यर्पण के सम्बन्ध में पिछले दिनों सउदी सरकार द्वारा दिए गए बयान कि फसीह महमूद के खिलाफ कोई तार्किक आरोप भारतीय एजेंसियां नहीं लगा पाई हैं और इसलिए वो मेरे पति को भारतीय एजेंसियों को नहीं सौपेगी से यह साबित हो जाता है कि मेरे पति निर्दोष तो हैं ही साथ ही उनको अवैध रुप से भारतीय एजेंसियों द्वारा उठाया गया है। जो एक आपराधिक घटना है।

मैंने सरकार से अपने पति के भारतीय एजेंसियों द्वारा गायब करने की बात को बार-बार कहा और अंत में 2े4 मई को हैबियस कार्पस भी दाखिल किया। उस पर गैरजिम्मेदाराना तरीके से महीने से ज्यादा वक्त गुजरने के बाद 9 जुलाई को सरकार ने कहा कि सउदी सरकार ने उन्हें 26 जून को बताया कि फसीह उनकी हिरासत में हैं और भारतीय सरकार ने कहा कि फसीह की गिरफ्तारी में हमारा कोई हाथ नहीं है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब मेरे पति के ऊपर सउदी में कोई आरोप नहीं है तो उन्हें वहां कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है? दूसरे कि जब भारतीय एजेंसियों का उनकी गिरफ्तारी में कोई हाथ नहीं है तो फिर उनके खिलाफ मेरे 24 मई के हैबियस कार्पस के बाद 28 मई को वारंट और 31 मई को रेड कार्नर नोटिस क्यों जारी किया गया?

मैं सरकार से पूछना चाहती हूं कि जब भारतीय सरकार का फसीह की गिरफ्तारी में कोई हाथ नहीं है तो फिर सउदी सरकार, भारत सरकार पर फसीह के खिलाफ तार्किक सबूत न दे पाने का आरोप क्यों लगा रही है या फिर उसके जवाब में भारत सरकार फसीह के खिलाफ कथित सबूत देने की बात क्यों कर रही है? मैं सरकार से यह भी जानना चाहूंगी कि भारत और सउदी सरकार के बीच हए प्रत्यर्पण संधि के मुताबिक जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ दो महीने तक कोेई सबूत नहीं मिलता तो उसे छोड़ दिए जाने का प्रावधान है, ऐसे में जब मेरे पति के खिलाफ जब भारत सरकार कोई सबूत नहीं दे पाई तब भी उन्हें चार महीने बीत जाने के बावजूद क्यों नहीं छोड़ा गया?

मैं सरकार से जानना चाहूंगी कि सरकार खुफिया एजेंसियों को क्यों बचा रही है? पिछले चार महीने से मेरे पति से मुझे और मेरे पूरे परिवार को अलग करके क्यों रखा है? क्या लोकतांत्रिक देश में यह मानवाधिकार हनन नहीं है? मैंने बार-बार मांग की कि मुझे मेरे पति से मिलने का मौका दिया जाय, जो मेरा अधिकार है, इस पर सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया। पर मेरे पति के खिलाफ झूठे सबूत रचने वाली खुफिया एजेंसियां जब-जब अपनी गैरकानूनी और आपराधिक शैली की वजह से फंसती नजर आईं सरकार उनके साथ खड़ी हुई।

ऐसे में मैं मांग करती हूं कि मेरे पति को तत्काल रिहा किया जाय और उनका अपहरण करने वाले भारतीय खुफिया एजेंसियों के दोषी अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाई करते हुए मुकदमा दर्ज किया जाय।


द्वारा-
निकहत परवीन
पत्नी- फसीह महमूद
ग्राम- बाढ़ समेला
पोस्ट आॅफिस- समेला लालगंज
थाना- क्योटी रनवे
जिला- दरभंगा बिहार
मोबाइल नंबर- 07739420290

Release my husband immediately – Nikhat Parveen



Patna, 27 September 2012
The abduction of my husband Fasih Mehmood by Indian Intelligence Agencies in Saudi Arabia is not only illegal but also a criminal act. It raises questions about the activities of the Indian Intelligence Agencies. Saudi Government recently said in the context of my husband’s extradition that, since the Indian intelligence agencies have failed to provide any logical evidence, so they will not be given charge of Fasih. This proves that my husband is innocent and also that his abduction by the Indian agencies is a criminal act.

I have repeatedly told the Government of India(GoI) about his abduction by Indian agencies and also filed a habeas corpus on 24th of May. After irresponsibly spending over a month, on the 9th of July the GoI told me that the Saudi Government had informed the former on 26th of June about the detention of Fasih. At that time the government said that they had no role in his detention.

All these events raise several questions. Firstly, if there is no allegation on my husband in Saudi Arabia then how can he be arrested there? Secondly, if the Indian agencies say that they had no role in his arrest then how is it that after I filed the habeas corpus, they issued a red corner notice against him on  31st  of May and a warrant again on 28th of May?  

I want to know that, despite the GoI claiming to have no role in Fasih’s arrest, why is it that on one hand the Saudi government is accusing the Indian government of not being able to produce any logical evidence against him, and on the other hand the Indian government is talking about producing the said evidence? Also, the extradition treaty between the Indian and Saudi government clearly provides that if there is no evidence gathered against the accused within 2 months, he must be released. Then why is it that despite Indian government’s failure to produce any evidence at all, my husband is not being released even after 4months?

Why is the Government of India trying to save its Intelligence Agencies? Why is my family and I being separated from my husband for the past 4 months? Is this not a human right violation in a democratic country? I have repeatedly demanded that I be allowed to meet my husband but the government did not pay heed to this right of mine. On the contrary, the government has consistently supported the Intelligence Agencies that have produced false evidences against my husband and have also been involved in illegal and criminal activities.

I hereby demand that my husband be released immediately. Also, strict action be taken and cases be filed against guilty officers of the Indian Intelligence Agencies who are responsible for his abduction.

By- Nikhat Parveen - Wife of Fasih Mehmood, Village – Baarh Samela, Post Office – Samela Lalganj, Thana – Kyoti Runway, District – Darbhanga, State – Bihar , Phone - 07739420290

Thursday, September 27, 2012

पटने का लड़का@ facebook

जिदंगी की गाड़ी 9 साल आगे बढ़ चुकी थी। दिल्ली की लड़की अब पटने की बहु बनकर लड़के को रोज कहा करती, “कब तक कलम-घसीट नौकरियों के चक्कर में रहोगे, अपने बैच के दोस्तों को देखो कोई आईएएस तो कोई एसएससी करके सैटल हो गया।” जो बदलाव, क्रांति जैसे शब्द प्यार शुरु करने के उपकरण बने थे वो आज ऐब्स्ट्रैक्ट हो चुके थे।
प्यार, क्रांति की बात करने वालों पर हँस देने का मन होता। उनके लिए एक ही शब्द सूझता- एडोलेसेंट!
और बीता हुआ कल एक घटना मात्र लगता...जिसमें कुछ भी विशेष नहीं। जिसमें विशेष नहीं वो स्टोरी नहीं पत्रकारिता ने इतना तो सीखा ही दिया था


सेन्ट्रल पार्क में बैठे-बैठे अचानक उसने उसके हाथों को जोर से खींच कर अपने उपर लेटा लिया। पटने के लड़के ने गुदगुदी और सिहरन को एक साथ महसूस किया। लड़के को लगा कि कोई फिल्मी सीन सिनेमा के पर्दे से बाहर निकल उसके सामने चलने लगा हो। पटने के लड़के के परिवार और समाज की अपनी (अभाव की) सांस्कृतिक पृष्ठभूमि थी, जहां लड़की के साथ बात करना भी अनैतिकता के मोहल्ले में घुस जाना था, उसके शरीर को छूना साफ पतन।

लड़की उसे समझा रही थी, “प्यार तो विजुअल आर्ट है, यहां वर्डस का कोई महत्व नहीं”।

लड़के को मुख्रर्जी नगर वाले सिनियर भैया की बात याद आ गयी। “अरे सिर्फ बतियाते मत रह जाना, कौन सा शादी करना है, मजे लेकर आना!’’
 
कैम्पस में दोनों के बीच कहां इतनी बातें हो पाती थी। बस एक स्माइल या फिर एक हैलो-हाई उछाल के दोनों सामने से गुजर जाते थे। लेकिन कॉलेज के बाद अचानक एक दिन दोनों हौज खास मेट्रो पर टकरा गए। बातों-ही-बातों में पता चला कि उसका प्लेसमेंट पीटीआई में हुआ है। लड़के ने भी बताया कि उसका सेलेक्शन एचटी हाउस में हुआ है। फिर तो लड़का रोज उसका मेट्रो पर इंतजार करने लगा । राजीव चौक दोनों साथ जाने लगे। कभी लड़की कूद कर लेडीज डब्बे में चली जाती तो लड़के का चेहरा उतर सा जाता था। धीरे-धीरे लड़के ने उसको अपने सपने में लाना शुरू कर दिया था। कभी कॉफी हाउस तो कभी सेंट्रल पार्क। हर रोज के ऑफर से लड़की को कोफ्त होने लगी। एक दिन लड़का मेट्रो पर इतंजार कर रहा था..एक.दो..चार..पांच मेट्रो उसने छोड़ दी। लेकिन लड़की नहीं आयी। उसका फोन भी ऑफ जा रहा था।
दूसरी तरफ लड़की 615 बस में बैठी सोच रही थी- “अब बस से जाया करुंगी। उफ्फ,ये पटने के लड़के!”
 
पटने से आने के बाद पहली बार बिहार से आज एक दोस्त आया।देखते ही हल्ला करने लगा..''अरे,का का लाया है रे।" फिर उसके जवाब का उत्तर सुने बिना ही गांव से लाया झोला खोलने लगा। छेना मुरखी,खुरमा और गया का तिलकुट-एक साथ इन सबको देख कर टूट पड़ा दोस्त पूछता रहा.."अरे और का हाल चाल है तोहार"
लेकिन वो तो बस खाता रहा..खाता रहा और फिर न जाने कहां से दो बूंद पानी आंखों में झलकने लगा।दोस्त डिसाइड नहीं कर पाया कि ये खुशी के आंसू हैं या घर न जाने के गम का।
आपको पता है क्या?
पटने से आने के बाद एक दिन नार्थ कैम्पसिया दोस्त से मिलने चला गया। जब से नार्थ कैम्पस घूम कर आया है।काफी बदला-सा है।फुल-पैन्ट तक तो ठीक मोजे भी Reebok के खरीद लाया है।अब शर्ट को इन करके पहनता है,जिससे फुल-पैन्ट पर BlackBerry लिखा दिखने लगा है।बात-बात पर पैन्ट को उपर के तरफ खींच लेता है,अब मोजे पर लिखा Reebok भी दिखता है। शुक्र है jocky का कुछ नहीं खरीद लाया है।
पटने से आने के बाद खूद को तो नहीं बदल पाया लेकिन उसका मोफलर जरूर बदल गया। जिस मोफलर को अपने कानों के चारों तरफ लपेट कर,खोंस कर पटने में ठंड से बचता फिरता था। वही मोफलर दिल्ली में गले को लपेटे,दाएं-बाएं लटकर स्टॉल बन गया है। क्या पता मोफलर के बदलने में ही उसके बदलने की शुरूआत छिपी हो...-
 
पटने का लड़का अपने यमुना पार वाले वन रुम सेट में सोया हुआ है। दोपहर में लड़की आते ही बरसने लगती है, ''अभी तक खाना नहीं खाया , चाय पी के कब तक जिंदा रहोगे। चलो केएफसी, चिकेन खाते हैं''।
लड़का करवट बदलते हुए कहता है,"नरेन्द्र मोदी मत बनो! पता नहीं महीने के 30 तारीख हो रहे हैं और एटीएम में पैसे पांच को आते हैं"। लड़की चुपचाप चाय बनाने किचेन में चली जाती है।
(मोदी द्वारा कुपोषण के लिए साइज जीरो को जिम्मेवार ठहराने पर एक दम टटका पेश है-पटने का लड़का)
 
"इन बिहारी लड़कों के साथ यही प्रोब्लेम है- दो दिन हाय-हैलो से थोड़ा ज्यादा बात कर लो और इन्हें प्यार हो जाता है।"- लड़की अपने दोस्तों से कह रही थी
इधर
पटने के लड़के को बिहारी लड़के समझा रहे थे- "एक्के दिन में डिग्री ले लेना चाहता है रे, थोड़ा टाइम दे, एग्जाम दे। जानता नहीं, गर्ल्स थोड़ा साइलेन्ट टाइप होती हैं। धीरे-धीरे पटरी पर आएगी"
लड़का झूंझलाता है,"उफ्फ ये बिहारी लड़के! स्साले प्यार को भी संविधान समझते हैं-एकदम स्लो मोशन"।
 
पटने का लड़का अपने मुर्खजी नगर वाले कमरे में लेटा-लेटा सोच रहा,"आखिर ये तैयारी करने वाले लड़के संघी टाइप और इतने कट्टर हिन्दुत्व वाले क्यों होते हैं"
उसे अपना पटने का वो मोहल्ला याद आने लगा जहां एक बार ईद में पड़ोस की लड़की ने कटोरी में ईदी के साथ-साथ अपने होंठों के निशान वाली चिट्ठी भी रख छोड़ा था।
आज भी उसे मुस्लिम लड़की की दी हुई वो ईदी याद आ जाता है।
उफ्फ, ये संघी और कम्यूनल लड़के!
( Pankaj K. Choudhary भैया के स्पेशल आग्रह पर ईदी स्पेशल पेश है-पटने का लड़का)
 
615 से जनपथ की तरफ से उतर कर वे दोनों सेन्ट्रल पार्क की तरफ जाने लगे। इतने में लड़की ने चलते-चलते अपने दोनों हाथों से उसके हाथों को जकड़ लिया। पटने के लड़के को जैसे झटका सा लगा। हाथ छुड़ाते हुए बोला- "माना कि दिल्ली में ये सब चलता है लेकिन मैं जहां से आया हूं ऐसा नहीं होता। मैं कंफर्ट फील नहीं करता यार।"
लड़की को नराज होते देख लड़का ठा-ठा कर हंसने लगा।
लड़की नाराज स्वर में बोली- बंद करो ये कॉफी हाउसी हंसी। उफ्फ, ये पटने के लड़के !
 
पटने का लड़का अभी हनुमान चलीसा खत्म करके ठाकुर भगवान को भोग लगा ही रहा था कि लड़की पहुंच गई- "तुम क्या समझते हो कि पूजा करने से तुम्हे मीडिया में नौकरी मिल जाएगी। सबसे पहले तो ये जमुना पार वाला कमरा शिफ्ट करके साउथ दिल्ली में कमरा लो। और वहीं बसंत कुंजी पत्रकारों को पकड़ो.दो-चार महीने आगे-पीछे करोगे तो कहीं सेट कर ही देंगे। "
लड़का कमरे में लटका कैलेंडर देखने लगा,"20 तारीख और जेब में सिर्फ हजार रुपए। कैसे कटेगा इ महीना"
 
"क्रांति...बदलाव..लेख..कहानी। इन सबका कोई मतलब नहीं। दरअसल ये तुम्हारे टूल है खुद को महान कहलाने के। और ये जो मुझे टच न करने की तुम्हारी नैतिकता है उसी महान बनने की प्रक्रिया है। लेकिन जान लो, तुम दुनिया के नजर में महान हो जाओ..मेरे नजर में एक पलायनवादी ही रहोगे।"- लड़की कमरे का दरवाजा खोलने लगी
पटने के लड़के ने दौड़ के उसके हाथों को पकड़ लिया।
अब दोनों के लिप लॉक हो चुके थे।
और मामला ठंडा!!
 
कमरे में आज वो हॉट पैंट पहन कर आ गयी। पटने के लड़के के हाईस्कूल में जब कोई लड़की जिन्स पहन कर आ जाती थी, तो स्कूल के टीचर उसे घूरते हुए समाजिक परंपरा का पाठ पढ़ा जाते थे।
और लंपट लड़को के नजर में तो वो लड़की सहज प्राप्य माल के रुप में प्रसिद्ध हो ही जाती। कल होके ही लड़के उससे गपियाने का बहाना ढ़ूंढ़ने लगते।
मुर्खजी नगर के कमरे में भी उसके चले जाने के बाद बिहारी लड़के जुट गए और पटने के लड़के से सवाल शुरु हो गया-
क्या रे, आज तो हापे पैंट में आयी थी?
खाली बाते करते रह गया रे,
धत्त बुरबक, बिहारिये रह गया रे!!
 
"मेरा हाथ मत पकड़ो! ये सेन्ट्रल पार्क नहीं मेरा कमरा है।" अपने कमरे में पटने का लड़का अपनी थोथी नैतिकता के प्रति अतिरिक्त सजग रहता।
"तुम्हारी संवेदना खत्म हो गयी है, तभी तुम्हारे लिए प्यार सेक्स हो गया है- सपाट, यांत्रिक शारीरिक संबंध। ए सॉरडिड थिंग।"
लड़की दरवाजे को थोड़ा-सा खोलते हुए बोली, "और तुम्हारे लिए एक ऐसा नशा, जहां तुम न चाहते हुए भी बारबार लौटते है"
......
 
आठ-बाई दस के मुखर्जी नगर वाले कमरे के फर्श पर लेटे-लेटे पटने के लड़के के आंखों के सामने उस दिन सेन्ट्रल पार्क में उसकी कही बातें फ्लैशबैक की तरह चलने लगी- प्यार तो विजुअल आर्ट है, वर्डस का यहां क्या काम.....
बैचेनी में उसने करवट बदला..सामने मेज पर प्लेबॉय का नया अंक रखा हुआ था, जिसे देते हुए मुखर्जी नगर वाले सिनियर भैया ने कहा था, "बैचलर आदमी हो, रख लो। अकेले में गर्लफ्रेण्ड को विजुलाइज करने में आसानी होगी"
लड़के ने फिर करवट बदल लिया !!
 
पटने से दोस्त का फोन आया है। कह रहा है, "क्या रे सुने हैं बड़का प्लेबॉय हो गये हो। अरे पढ़े-लिखे वाला आदमी के गर्लफ्रेण्ड के लिए टाइम रहता है रे।
बेटा सुधर जाओ। लड़की कोई आम नहीं कि जब चाहा चुसा और गुठली सड़क पर फेंक दी।"
पटने का लड़का सकपका जाता है। उधर से फोन डिसकनेक्ट हो गया है।
वो अपनी आम को विजुलाइज करने की कोशिश करते-करते सो जाता है।
 
पटने का लड़का आज बहुत खुश था। कैम्पस में इंटर करते ही उसने एक हाथ हवा में उछाल कर हैलो जो किया था।
आज शाम में उसने जावेद की दुकान पर कॉफी पीते हुए खूब बाते भी की थी। तभी तो वो जान पाया था कि उसे बिहारी लड़के बहुत पसंद हैं, क्योंकि वो डाउन टू अर्थ होते हैं।
और उसकी पसंदीदा गाना चोली के पीछे क्या है....है।
 
लड़की बोलती जा रही थी, '' अब तुम ऑफिस जाने लगे हो , थोडा कम्प्लीट मैंन बन कर रहो. चलो राय्मंड्स का एक सूट ले लो.''
पटने का लड़का तो इन सूट पहनने वालो को देख कर सोचता रहा है,"पूरी दिल्ली क्लर्को की है. अंग्रेज चले गये और इन ससुर के नाती को सूट पहनने को छोड़ गये.ये तो ओपनिवेसिक कल्चरल हैंगओवर है "
दिल्ली की लड़की बोल पड़ी, "उफ़! ये पटने के लड़के"
 
 
लड़के को पटने से आए हुए अभी मुश्किल से महीना भर ही हुआ था कि उसे पता चल गया कि जिस शर्मा अंकल से उसके घर वाले तक सिर्फ उनके शराब पीने की वजह से नफरत करते थे। उसी शराब की बोतल को दिल्ली में लड़के बिस्तर पर सोने से पहले किसी डॉक्टर के सुझाये दवा की तरह पीते हैं। दारू पीना यहां आपके पोस्ट-मार्डन होने का लाइसेंस की तरह होता है।
इस पीने-पिलाने में बिहार से आए लड़के भी खुब हिस्सा लेते थे।कोई अपने ‘बिहारिये रह गया रे।’ टाइप लेवल को हटाने के लिए पीता था,कोई किसी लड़की के प्यार में वेवफाई पाने या उसमें और ज्यादा गहरी रूमानियत लाने के लिए पीता था। लेकिन इनमें ज्यादातर सिर्फ इसलिए पीते थे कि कभी-कभी शाम को इनके आठ बाई दस के कमरे में कॉलेज की एक-दो लड़कियां पीने के लिए आ जाती थीं। फिर इस पूरे इवेंट को पार्टी का नाम दिया जाता था। इस पार्टी में पीने-खाने से लेकर शकीरा के गाने पर थिरकने तक का इंतजाम होता था।
 
 
सेंट्रल पार्क में बैठे-बैठे दोनों इतने करीब आ गये की उनकी सांसे आपस में टकराने लगी,
लेकिन झटके में लड़की ने उसे जोर से धक्का दिया, "आज फिर तुम मछली खाके आये हो, यु नो न! कि हमारे फैमली में नॉन वेज अलाऊ नहीं है."
पटने का लड़का क्या करे बिहारी लडको ने सुबह-सुबह माछ भात खिला दिया.
लड़की बोलती जा रही है, "पता नही इतना चावल और मछली क्यों खाते हैं- ये पटने के लड़के"
 
 
कैम्पस में दोनों के बीच कहां इतनी बातें हो पाती थी। बस एक स्माइल या फिर एक हैलो-हाई उछाल के दोनों सामने से गुजर जाते थे। लेकिन कॉलेज के बाद अचानक एक दिन दोनों हौज खास मेट्रो पर टकरा गए। बातों-ही-बातों में पता चला कि उसका प्लेसमेंट पीटीआई में हुआ है। लड़के ने भी बताया कि उसका सेलेक्शन एचटी हाउस में हुआ है। फिर तो लड़का रोज उसका मेट्रो पर इंतजार करने लगा । राजीव चौक दोनों साथ जाने लगे। कभी लड़की कूद कर लेडीज डब्बे में चली जाती तो लड़के का चेहरा उतर सा जाता था। धीरे-धीरे लड़के ने उसको अपने सपने में लाना शुरू कर दिया था। कभी कॉफी हाउस तो कभी सेंट्रल पार्क। हर रोज के ऑफर से लड़की को कोफ्त होने लगी। एक दिन लड़का मेट्रो पर इतंजार कर रहा था..एक.दो..चार..पांच मेट्रो उसने छोड़ दी। लेकिन लड़की नहीं आयी। उसका फोन भी ऑफ जा रहा था।
दूसरी तरफ लड़की 615 बस में बैठी सोच रही थी- “अब बस से जाया करुंगी। उफ्फ,ये पटने के लड़के!”
 
 
पटने का लड़का अभी-अभी संपूर्ण क्रांति से सीधे मुखर्जी नगर टपका था। उसे बिहारी लड़के घेर के बैठे थे। कोई डीबीसी बनाने की विधि बता रहा था। ‘अरे बहुत ह्लुक है डीबीसी बनाना। एक्के कुकर में दाल और ओकरे में कटोरा डाल के भात और आलू रख दिए। हो गया तैयार-डीबीसी’। बाद में पता चला कि डीबीसी मतलब दाल-भात-चोखा।
एक सिनियर भैया बता रहे थे कि “सीसैट के लिए रिजनिंग बनाने के साथ-साथ चिकेन बनाना भी सीख लो। और हां, टीटीएस मतलब ट्यूजडे, थर्स डे और संडे को ये सब बैन है।”
छोटे कमरों में बड़े सपने जवां होने लगे थे !!!!
 
 
कैम्पस में दोनों के बीच कहां इतनी बातें हो पाती थी। बस एक स्माइल या फिर एक हैलो-हाई उछाल के दोनों सामने से गुजर जाते थे। लेकिन कॉलेज के बाद अचानक एक दिन दोनों हौज खास मेट्रो पर टकरा गए। बातों-ही-बातों में पता चला कि उसका प्लेसमेंट पीटीआई में हुआ है। लड़के ने भी बताया कि उसका सेलेक्शन एचटी हाउस में हुआ है। फिर तो लड़का रोज उसका मेट्रो पर इंतजार करने लगा । राजीव चौक दोनों साथ जाने लगे। कभी लड़की कूद कर लेडीज डब्बे में चली जाती तो लड़के का चेहरा उतर सा जाता था। धीरे-धीरे लड़के ने उसको अपने सपने में लाना शुरू कर दिया था। कभी कॉफी हाउस तो कभी सेंट्रल पार्क। हर रोज के ऑफर से लड़की को कोफ्त होने लगी। एक दिन लड़का मेट्रो पर इतंजार कर रहा था..एक.दो..चार..पांच मेट्रो उसने छोड़ दी। लेकिन लड़की नहीं आयी। उसका फोन भी ऑफ जा रहा था।
दूसरी तरफ लड़की 615 बस में बैठी सोच रही थी- “अब बस से जाया करुंगी। उफ्फ,ये पटने के लड़के!”
 
हौज खास मेट्रो से मुनिरका तक ही दोनों को साथ जाना था। इतने में 511 बस आके रूकी। लड़का झट से बस में चढ़ गया। लड़की की नजर बस के डबल खाली सीट ढुंढ़ने लगी। इतने में लड़की ने लड़के का हाथ पकड़कर झट से नीचे खींच लिया। लड़का कहता रहा,"अरे। इसी से चलेंगे, हरी वाली है डीटीसी पास है टिकिट नहीं लेना पड़ेगा"
लड़की-''नहीं। बस में एक साथ दो सीट खाली नहीं है, ऑटो से चलेंगे''
लड़की ने ऑटो वाले से 40 रूपये में किराया फिक्स किया, इधर लड़का सोचता रहा,"इतने में तो जेएनयू में खाना खा लेते"
Munirka में बर्फ चुस्की खाने का प्लान बना। "का, दस रूपये में एगो। एतना में तो दुनो आदमी खा लेंगे भाई"-लड़का बर्फ वाले से मोल-तोल करने में लगा था।
लड़की सोच रही थी-"उफ्फ! ये पटने के लड़के !!"
 
"इन लड़कों के साथ यही प्रोब्लेम है- दो दिन हाय-हैलो से थोड़ा ज्यादा बात कर लो और इन्हें प्यार हो जाता है।"- लड़की अपने दोस्तों से कह रही थी
इधर लड़के को बिहारी लड़के समझा रहे थे- "एक्के दिन में डिग्री ले लेना चाहता है रे, थोड़ा टाइम दे, एग्जाम दे। जानता नहीं, गर्ल्स थोड़ा साइलेन्ट टाइप होती हैं। धीरे-धीरे पटरी पर आएगी"
लड़का झूंझलाता है,"उफ्फ ये बिहारी लड़के! स्साले प्यार को भी संविधान समझते हैं-एकदम स्लो मोशन"। Avinash Kumar Chanchal
 
 
आखिर कब तक सेनट्रल पार्क, कॉफी हाउस घूमते रहोगे तुम दोनों- सीनियर भैया ने उसे मानो ललकारते हुए कहा।
लड़के ने भी बहुत हिम्मत जुटा कर लड़की के सामने कमरे पर चलने का ऑफर रख दिया। शाम तीन से सात के बीच का समय फिक्स हुआ। उसी समय लड़के का रुम पार्टनर(रुमी) कोचिंग जाता था।
फिर दो-चार कमरा मुलाकातों ने उनके प्रेम को और गाढ़ा कर दिया। अचानक एक दिन लड़की ने उस पर वासना का आरोप लगाया। बोली- तुम प्रेम से खेलने लगे हो। एक ही वक्त पर कई प्रेम को गेंद की तरह हवा में खिला रहे हो..ओह, मैं तो प्रेम को जीने लगी थी। लड़का चुप्प। लेकिन सचमुच वासना होती तो क्या दस मिनट से ज्यादा दोनों लिपटे रहते...लड़की जा चुकी थी। पीछे बिस्तर पर झुर्रीदार सिलवटें पड़ी हुई रह गयी।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

बेबसी की कविता

 
मैं आंखे बंद किए दौड़ लगाता हूँ

जे.एन.यू के सुनसान सड़कों पर..

मैं तेज दौड़ लगाता हूँ
और
तेज...

क्योंकि

मैं भूलना चाहता हूँ

जिंदगी के दौड़ में पीछे छूटने के गम को

मैं भूलना चाहता हूं

क्रान्ति न कर पाने के उस बेबसी को

क्योंकि

मुझे नहीं मिलते किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लाख रूपये-प्रतिमाह

मेरे पास नहीं आते किसी बुकर प्राइज विनर किताब की रॉयल्टी

मैं नहीं कर सकता क्रान्ति की बातें

क्योंकि

मैं जानता हूं

बिना रोटी के रात गुजारना क्या होता है...:(

मैं नहीं कर सकता दूनिया बदलने की बातें

क्योंकि

मैंने नहीं बितायी है
स्कूल की गर्मी की छूट्टियां-किसी हिल स्टेशन पर जाकर

मैं नहीं कोस सकता इस पूंजीवाद को

क्योंकि

हर शाम मुझे ले जाना होता है
एक झोला सब्जी,माँ के लिए दवा और बच्चों के लिए कागज-कलम
घर में।

और अपनी इसी बेबसी में
जब सर फटा जा रहा है

मैं
दौड़ा
जा रहा हूँ

बेतहाशा दौड़ कर मैं इस
बे

सी
को भूलाना चाहता हूँ।

Wednesday, September 26, 2012

वर्तमान हिंसा यूरोपीय विश्व दृष्टि की देन है;डा0 बनवारीलाल शर्मा

प्रसिद्ध समाजवादी गांधीवादी नेता बनवारीलाल शर्मा जी का आज चंडीगढ़ में देहान्त हो गया। वे इस परंपरा के उन आखिरी स्तम्भों में थे, जिन्होंने देश को साम्राज्यवाद और भूमण्उलीकरण के चंगुल से बचाने में अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी। इलाहाबाद में तो वे एक व्यक्ति से ज्यादा संस्थान के रुप में उपस्थित थे, जिनके होने का मतलब भूमण्डलीकरण विरोधी गोष्ठियों, शिविरों, फिल्म समारोहों और मीडिया वर्कशाप का लगातार होते रहना तो था ही, उनके होने का पर्याय यह भी था कि आप बिना रसायनिक खादों से उपजे अनाज और तेल भी उनके आजादी बचाओ आंदोलन के कार्यालय से प्राप्त कर सकते थे।
शर्मा जी से दो साल पहले महाराष्ट्र के हिंदी लोकमत समाचार के दिपावली विशेषांक ‘हिंसा प्रति हिंसा’ पर लिया गया साक्षात्कार।


                          


                           
       वर्तमान हिंसा व्यवस्था जनित हिंसा है। आप इसे ‘स्ट्क्चरल वाइलेंस’ कह सकते हैं। मौजूदा दौर के इस हिंसा को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना जरुरी है।

पिछले पांच सौ वर्षों से एक नए प्रकार की विश्वव्यवस्था काम कर रही है। जिसे यूरोप केंद्रित या अमरीका केंद्रित विश्वव्यवस्था कह सकते हैं। दरअसल पांच सौ वर्ष से पहले दुनिया में लुटेरे या महत्वकांक्षी राजा धन लूटने के लालच में निकल पड़ते थे। लेकिन इस दौरान हुई हिंसा कुछ समय बाद खत्म हो जाती थी। दो यात्राओं के बाद यह प्रवृत्ति बदली। पहली थी कोलम्बस की अमरीका खोज की यात्रा और दूसरी थी वास्कोडिगामा की यात्रा। इन यात्राओं के बाद शेष दुनिया के बारे में यूरोप की दृष्टि यह बनी कि यूरोप के बाहर बर्बर और असभ्य लोग रहते हैं, जहां अकूत धन-संपदा पड़ी हुयी है। इसलिए इन यात्राओं के बाद यूरोप के लोग अपने राजाओं से चार्टर लेकर अमरीका, अफ्रीका और एशिया की लूट के लिए निकल पड़े। इस आक्रामक लूट को उन्होंने ‘सिविलाइजेशन मिशन’ कहा। इस मिशन से जो अकूत सम्पत्ती और संसाधन बटोरे गए उसी के आधार पर यूरोप में पूंजीवाद का विकास हुआ और औद्योगिक क्रांति हुयी। इस तरह यूराप ने विकट हिंसा का सहारा लेकर शेष दुनिया से अपने औद्योगीकरण के लिए संसाधन बटोरे। यूरोप के देशों ने अमरीका-अफ्रीका-एशिया में अपने उपनिवेश बनाए और इस पूरी प्रक्रिया में भारी हिंसा की, जो
फौजी के साथ आर्थिक भी थी। जिसके चलते करोड़ो किसान और कारीगर अकालों में मर गए। 1942-43 का अकाल इसी की आखिरी कड़ी थी, जिसमें तीस-चालीस लाख लोगों की मृत्यु हुयी।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप की ताकतें कमजोर हुयीं और उनकी जगह अमेरिका ने ले ली। सोवियत संघ के उदय से शीत यु़द्ध की नींव पड़ गयी और 1990 तक यह शीत युद्ध चला जिसने नाटो, वारसाॅ पैक्ट, सेंटो और सीटो जैसे अनेक सैनिक गठबंधन खड़े करके दुनिया में विधिवत हिंसा का वातावरण बनाया। यानी हम कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद के उदय के साथ पूंजीवाद को फैलाने के लिए पूरी दुनिया में हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर चला जो अब भी जारी है।

1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद आशा थी की अब शीत युद्ध समाप्त हो जाएगा। लेकिन दुनिया के शोषण का नया तरीका अमरीका ने भूमंडलीकरण, निजीकरण की नीतियों में ढूंढ़ लिया जिसे वह बहुत आक्रामक तरीके से चला रहा है। आज इन नीतियों के तहत दुनिया भर में विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्ीय व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को आगे रखकर अमीरीका, यूरोपियन यूनियन और जापान जिस कार्पाेरेट व्यवस्था को आक्रामक तरीके से लाद रहे हैं उससे पूरी दुनिया खास तौर से तीसरी दुनिया के देशों में हिंसा का वातावरण तेजी से पनप रहा है। कारण ये कि इन नीतियों के तहत तीसरी दुनिया के देशों के शासक जनता से उनके लघु धंधे और संसाधन छीनकर अपना आधिपत्य जमा रहे हैं। दूसरे शब्दों में पुराने औपनिवेशिक नीतियों के तहत ही देश के अंदर ही केंद्रीकरण के बहाने जगह-जगह उपनिवेश बनाए जा रहे हैं। अगर पिछले बीस सालों यानी नब्बे के बाद से शुरु हुयी नयी आर्थिक नीतियों को देखें तो सरकारों ने लोकतंत्र के सबसे प्रमुख तत्व विकेद्रीकरण को हर स्तर पर नीतिगत तरीके से खत्म किया है। जिसके चलते लोगों में बेकारी-भुखमरी तो बढ़ी ही है, राज्य से अलगाव और परिणाम स्वरुप विद्रोह की भावना भी बढ़ी है। आज नक्सलवाद, पूर्वोत्तर का मसला या फिर कश्मीर का अलगाववाद राज्य से मनोवैज्ञानिक तौर पर जनता के अलगाव का ही तो नतीजा है। जिसे हिंसा से दबाने की राज्य की कोशिश जनता को भी हिंसक बना रही है।

जहां तक राष्ट् राज्य को हिंसा की जरुरत का सवाल है, तो मुझे लगता है कि राज्य को हिंसा का अधिकार तो है, लेकिन कानून के दायरे में रह कर ही। क्योंकि लोकतंत्र राज्य को अमन-चैन बनाए रखने और सम्पत्ती की रक्षा की जिम्मेदारी उसे सौंपता है और उसे इसके लिए कानून सम्मत हिंसा करने का भी अधिकार देता है। लेकिन मौजूदा राज्य व्यवस्था का जो चरित्र है, वो इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल करता है। ऐसा इसलिए है कि आधुनिक राज्य अपने अन्र्तवस्तु में लोकतांत्रिक तो नहीं ही हैं, उनमें अधिनायकवादी और सैन्यवादी प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इसीलिए हम देखते हैं कि राज्य दिन प्रति दिन और अधिक हिंसा की छूट कभी गैर कानूनी तो कभी पोटा टाडा जैसे कानूनी तरीकों से पाने की कोशिश करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि किसी राष्ट्-राज्य को हिंसा की कितनी जरुरत है, यह उसके लोकतंत्र के प्रति आस्था से तय होता है।

जहां तक संगठित हिंसा की समाप्ती का सवाल है, तो यह तभी संभव है जब देश में जो संसाधन हैं उन पर स्थानीय जनता की मिल्कियत हो, सरकार या विदेशी कंपनियों की नहीं। क्योंकि आज जितने भी संघर्ष हो रहे हैं वो लोगों द्वारा अपनी जीवन रक्षा और आजीविका बचाने और विस्थापन को रोकने के लिए ही हो रहे हैं।
                            
प्रस्तुति- शाहनवाज आलम
मो0- 09415254919

गंगा किनारे..सांझ सकारे- मिले दोस्त प्यारे:)

गंगा किनारे की एक शाम

शाम ए महफिल में आप हैं अभिषेक


मैं थोड़ा थका सा। वैसे बैकग्रांउड अच्छा है


हेमन्त कुमार- तस्वीर के पीछे देंखे

ये आसमां ये रंगीन शाम और तन्हाई तेरे याद की 


माझी ढूंढे किनारा




अभिषेक आनंद

आनंद जी के साथ मैं





हाथ ठीक है बस पोज यही रहता है

फक्कड़बाजी के वे दिन याद आते हैं:(
























गांधी मैदान वाया कैमरा

गुटखा पर प्रतिबंध लग चुका है लेकिन पेट का सवाल है बाबू

परमानेंट घर यही है..
गांधी मैदान को पटना का दिल कहा जाता है। सुबह टहलने आने वालों के लिए ये जॉगिंग स्पॉट है तो हर सुबह अपनी आंखे इसी मैदान के किसी कोने में खोलने वालों के लिए घर या डूबे को तिनके का सहारा।
इसकी अपनी जिंदगी है, इसका अपना रंग भी है।
देखें कुछ तस्वीरें
किसी ऑफिस के काम से राजधानी आए थे, चक्कर काट कर सुस्ता रहे हैं

बैठकबाजी ऐसा कि जहां सरकार तक गिरने की बात होती हो

क्या खींचते हो बाबू, पेट में जलने वाले आग का सवाल है


साथी रे। हाथ बंटाना

क्या महिला क्या पुरुष- सबका पनाहगार

जरा निशाना साध ले


आओ घर के कोलाहल से दूर फुर्सत के दो पल बिता लें

क्या दोस्त अब चल भी ले


रेखाएं दूसरों की बोलती है-मेरी कब बोलेगी

मैं कहां हूं

मोबाइल हर हाथ को बात पुरानी है

आदमी के साथ मैं भी यहीं हूबं

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...