Sunday, June 29, 2014

हेयर कटिंग का इमोशनल हो जाना


गौरव मुनिरका में हेयर कटिंग सैलून चलाता है। मथुरा के रहने वाले गौरव का एक जमाने में मुझ से करीब-करीब दुगुने लंबे बाल थे। गौरव के गांव में एक तालाब भी था। इतना गहरा कि चार हाथी एक-दूसरे पर खड़े हो जायें तो भी पानी में डूबेंगे ही।

इसी पोखर में गौरव अपने दोस्तों के साथ हर रोज नहाने जाता- घर वालों से चोरी-छिपे।  लेकिन उसकी चोरी हर बार पकड़ी जाती। उसके भीगे लंबे बालों की वजह से।
एक दिन गौरव और उसके दोस्तों ने फैसला किया- लंबे बाल जाय तो जाय लेकिन तालाब में नहाना नहीं छूटना चाहिए।
और अंत में, गौरव ने मन मसोस कर गंजा होना कबूल किया।

मेरी कहानी गौरव से नहीं मिलती फिर भी आज उसके दुकान पर मैंने अपने बाल कुर्बान कर दिये हैं ताकि समाज के प्रचलित मानकों में फिर से 'शरीफ आदमी' बन सकूं।

वही शरीफ आदमी जो मैं आज से एक साल पहले हुआ करता था- अपने गांव में, घर में, रिश्तेदारों में। अब मुझे अपने बालों को हर रोज तेल लगाने की जरुरत नहीं, हर पांच-दसेक मिनट पर अपने बालों को सहलाने की जरुरत नहीं, अब बालों को समेट कर पीछे चोटी बाँधने की जरुरत नहीं रही, अब उस बंधे चोटी से होने वाले दर्द से भी मुक्ति मिली।
बालों को लेकर पुलिस वाले का कमेंट भी नहीं सुनना पड़ेगा, मेरे लंबे बालों पर नाना-मामा-मौसा को लंबे-लंबे भाषण नहीं देने पड़ेंगें, उन्हें अब मुझ में कुसंस्कारी लक्षण नहीं दिखेंगें।
गांव के बच्चे भी अब डर कर भागेंगे नहीं, कुत्ते भौकेंगे नहीं, कुछ टीनएजर मेरे पीठ पीछे मुझे सलमान-हिरो- संजय कहकर नहीं चिढ़ायेंगे।
पड़ोसी की भाभियां नचनियाँ कहकर खिचला भी नहीं पायेंगी। और न ही माँ को मेरे बालों में उग आए जट्टा (उलझे-बेतरतीब बाल) के लिए रोना पड़ेगा, रात को बालों में रोते हुए तेल लगाने से भी वो मुक्त हुयी।

अब कोई पटना स्टेशन पर मेरे पास आकर यह नहीं कहेगा कि- 'भैया आप डांस सिखाते हो'?
न ही मैं उसे डांट कर कहूंगा- 'गो,गो, भागता है कि नहीं यहां से'।

अब मुझे अपने रिश्तेदारों और गांव वालों से, कथित सभ्य समाज से अपने बालों को छिपाने के लिए गमछा सर पर बाँधे भी नहीं रहना पड़ेगा। अब खाने के वक्त बालों को संभाले रखने की चिंता नहीं होगी। अब मेरे लंबे बालों को देखकर रेस्तरां में बैठे लोग मुझे घूरेंगे नहीं, सड़कों पर मुझे अजनबी नजरों से नहीं देखा जायेगा, बैंक में जाने पर कोई कर्मचारी मजाक नहीं उड़ायेगा, 'क्या हुलिया बना रखा है' जैसे सवाल हर रोज नहीं सुनने को मिलेंगे। अब मुझे कंघी करने की चिंता नहीं होगी, बिना बाल भिंगाये नहाने के बाद बिना नहाया सा नहीं लगेगा।
अब मैं अपने बालों को प्यार नहीं कर पाउंगा, अपने बालों को कई तरह से बांध कर तो कभी हवा में उछाल कर फोटो के लिए पोज भी नहीं दे पाउंगा।

कोई गांव में यह नहीं कहेगा कि- 'फलां के बेटे ने अपनी माँ से लड़ाई कर ली है और अब अलग रहने लगा है, कि अब साधु बनेगा'। न ही ट्रेन में कोई सदाकत आश्रम में 35 सालों से कांग्रेस कार्यकर्ता अंकल मिलेंगे जो पहले तो मेरे लंबे बालों को फिलॉसफर, साहित्यकार, लेखकों से जोड़ मुझ में महानता के गुण खोजेंगे और फिर जाते-जाते वैराग्य न अपनाने की सलाह देते हुए घर वालों की खातिर बालों को कटवाने की सलाह भी देते जायेंगे।

अब मैं शरीफ हूं, मैं अपने लंबे बालों से मुक्त हूं, मैं ऐसे समाज में रहने को अभिशप्त हूं जो आपके बालों की लंबाई, आपके पहनावे और आपके तमाम दिखावे की चीजों से आपके चरित्र, आपकी भलमनसाहत को नापता है।

इस बीच उन सबका शुक्रिया जिन्होंने लंबे बालों के बावजूद लफुआ नहीं समझा, टिन्ही हिरो भी नहीं। माँ जिसने कभी कटवाने की सलाह को जिद नहीं बनने दिया, वो लड़की जो हमेशा मौका मिलते ही मेरे बालों में चोटी बाँधती रही, वो भाई जिसे उम्मीद थी कि इत्ते लंबे बाल किए हैं तो अब इसे किसी बढ़िया से सैलून में जाकर लूक देगा...
आदमी अपने बालों को लेकर भी इमोशनल हो सकता है अब ही जाना........
                                                    ।।सबका आभार।।

Tuesday, June 10, 2014

मुंबई का एक दिन


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प्रेस क्लब में कॉफ्रेंस खत्म होते ही फियेट लिया। कुछ दूरी पर लाल झंडा लिये रैली में लोगों को जाते देखा तो उतर देखने चला गया। जाकर पता चला एनसीपी की मजदूर रैली है। मजदूरों के संगठन का झंडा लाल ही होता है-देख अच्छा लगा। खैर, मैं फिर फियेट में जा बैठा। फियेट या पद्मिनी मुंबई की सिगनेचर टोन माफिक है। उसमें बैठे-बैठ मुंबई को देखते चलना बेहतरीन अनुभव है खासकल मुझ जैसे रेट्रो लवर के लिए।
फियेट वाले से बात करते-करते चौपाटी पहुंच गया। कोई खास मकसद था नहीं। फियेट वाले ने पूछा भी कहां उतारुं, मैंने कहा-जहां मर्जी उतार दो। चौपाटी पर एक तस्वीर ली। कुछ देर बैठा रहा। हवा के साथ समुद्र की लहरें बार-बार किनारे आ जाती। अपनी बांहों को किनारे पड़े चट्टान में डालती और पीछे भाग जाती। काफी देर तक दोनों के इस खेल को देखता रहा। हर बार चट्टान और ज्यादा उदास होता दिखता रहा।
सर में दर्द और सर्दी ने ज्यादा देर तक वहां बैठे रहने नहीं दिया। धीरे-धीरे मैं टहलता हुआ चौपाटी से मरीन ड्राइव की ओर मुड़ गया। चौपाटी और मरीन ड्राइव के बीच समुंद्र के किनारे-किनारे सीमेंट के बने चबुतरे पर लोग बैठे रहते हैं। इनमें ज्यादातर कपल्स। इनमें एक जोड़े की फोटो मेरे साथ हो लिया- दोनों ने एक-दूसरे के लगभग उपर चेहरा रख छोड़ा था लेकिन एक धागा भर स्पेस बचा रह गया था- दोनों अपनी जीभ से उस स्पेस को बार-बार भर दे रहे थे। 
मन हुआ इनकी तस्वीर उतारी जाय। लेकिन प्यार के इतने खूबसूरत और गहरी अभिव्यक्ति को सामाजिक अश्लिलता के दायरे में धकेल दिया गया है।
खैर, दिमाग पर जो फोटो उतार लाया हूं वो काफी हैं महीनों अपने प्यार को खूबसूरत बनाते रहने के लिए।
मरीन ड्राइव से जहांगीर आर्ट गैलरी की तरफ पैदल ही निकल गया। आर्ट गैलरी से निकलने पर शाम का झुरमुट आ धमका था। थोड़ी दूर पर टी-सेन्टर देखा हुआ था। अंदर का माहौल पूरा इंटेलक्चुअल टाइप। मंहगी चाय और रुमानियत माहौल। सड़कों पर जिस चाय की वैल्यू बढ़ती मंहगाई भी छह रुपये से ज्यादा नहीं कर सका, वही चाय टी-हाउस में एक सौ बीस रुपये में मिल रही है। मेरे सर में दर्द है। मैं चाय पीउंगा। अभी मेरे पास कुछ नोट पड़े हुए हैं। चाय का प्लेट आते ही मैं उसे सूंघता हूं, फिर चम्मच से टेस्ट भी- कोई खास अंतर तो नहीं लग रहा है- शायद असम की चाय है। इससे पहले दूरदर्शन भोपाल के डायरेक्टर ने पिलायी थी बीस हजार किलो की पत्तियों वाली चाय। शायद सर्दी होने की वजह से मुझे सुगंध महसूस नहीं हो रहा (रही)।
होटल ताज के बगल में खड़ा था गेटवे ऑफ इंडिया

टी हाउस

मरीन ड्राइव


मैं संभ्रांत तौर-तरीके से चाय पीना चाहता हूं लेकिन चीनी उछल कर टेबल पर गिर ही जाता है। चाय तो मैं धीरे-धीरे ही पीता हूं- तिस पर इतनी मंहगी चाय और भी इंटलेक्चुअल फीलिंग के साथ पीने में मजा आता है।
मेरे मेज पर सामने वाली कुर्सी खाली है- अकेला होने कई बार मेरे लिए अच्छा होता है अगर बेहतर पार्टनर न हो तो। मैं कुछ इंटेलक्चुएलनुमा लोगों को देख सोचता हूं- अब मुझे एक चश्मा खरीद लेना चाहिए। पास में तीन लड़कियां बात कर रही हैं-अंग्रेजी में दो और एक सिर्फ स्माइली से काम चला ले रही है। वो भी मेरी तरह अंग्रेजी को स्माइली से झेलना जान गयी हो शायद, क्या पता। मैं चाय पीने और उसकी वेरायटी से हर आदमी के बैकग्राउंड का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं। टी-हाउस के सबसे कोने वाली सीट पर बैठे-बैठ ये अतिरिक्त सुविधा मुझे मिल गयी है। एक कप चाय के दौरान काफी कुछ सोचा जा सकता है- एक जिन्दगी जी और मरा भी जा सकता है।
टी-हाउस से निकल फियेट का इंतजार करने लगता हूं। फियेट अब मुंबई में कम हो गए हैं। सरकार ने एकाध सालों में इसे हटाने का फैसला कर लिया है। फियेट की जगह सेंट्रो ने ले ली है। हालांकि मैं फियेट का इंतजार करुंगा- उसकी सवारी मुझे विरासत की सवारी लगती है। काफी देर हो गया है लेकिन कोई फियेट नहीं आयी। मैं थोड़ा निराश हो सेंट्रो में बैठता हूं- गेटवे ऑफ इंडिया।

परिवार के लोग, कुछ पर्यटक जो गेटवे और ताज के गुंबदों को छूने के अहसास वाले पोज में फोटो खिंचा रहे हैं। मैं चुपचाप बैठ जाता हूं। चाय वाला- चाय, चाय,चाय कहकर वहां से गुजरता है लेकिन मेरी तरफ देखता भी नहीं । शायद उसने जान लिया हो- ये काईयां इन्सान है। नहीं पीयेगा चाय। मैं उसे बताना चाहता हूं- मेरे मुंह में अभी तक एक सौ बीस की चाय घुली हुई है, मैं उसे बताना चाहता हूं लेकिन वो मुझे इग्नोर मार निकल लेता है।
ये दस रुपये में कितना चना दे देता है- खत्म ही नहीं हो रहा- एक-एक दाना कुतरा जा रहा हूं। चलो खत्म तो हुआ। अब चला जाय। गेटवे से बाहर निकलने पर एक मार्केट है- इंडियनों के लिए सस्ता, विदेशियों को मंहगा।
एंटीक, कुर्ता, शर्ट सबकुछ। उसके लिए कुछ ले लेता हूं लेकिन कुछ भी पसंद नहीं हो रहा। अपने लिए एक टी-शर्ट लिया है-मुंबई के लोगो वाला। कुछ चक्कर लगा चर्च गेट के लिए टैक्सी ले लेता हूं। शुक्र है इस बार फियेट ही मिली है।

लोकल से संताक्रुज आना है मुझे। लोकल में अब मैं भी सीट पर नहीं बैठता। कई बार तो लटकने या गेट से बाहर झांकने में सुख की तलाश करता हूं, वही सुख जो लाखों मुंबईकरों को हर रोज मिलता है।
इस बीच मैंने लोकल में चढ़ने-उतरने की एक तरकीब खोज निकाली है। आप खुद को भीड़ में घुलने दो। भीड़ की लहरों में खुद को छोड़ दो- धक्का खाते कब बाहर और कब अंदर। बस ख्याल रहे कहीं किसी तीसरे स्टेशन पर अंदर से बाहर मत हो जाना।
इस बीच कुछेक दोस्तों का फोन, कुछ मैसेज का जवाब देते हुए भी मन अच्छा नहीं रहा। कई चीजें एक साथ उभर कर आड़ी-तिरछी खिंच सी गय हैं- काश, कोई दोस्त पेंटर होता- मैं उसे अपनी मन के इस आड़े-तिरछे बातों को बताता और वो इस पेंट करता।
उन एब्सट्रैक्ट रेखाओं से जो चित्र तैयार होती शायद उसमें मैं समझ पाता अपनी जिन्दगी के पन्ने को।

सी लिंक
ऑटो वाले ने ज्यादा घूमा दिया है। रास्ता मुझे याद नहीं रह पाता। पैसा देते समय शायद मैंने पचास का नोट ही थमाया है लेकिन लगा है कि सौ का दिया। ऑटो वाले ने मना किया है मैं बिगड़ गया हूं उसकी जेब पर हाथ डाल दिया है। लेकिन फिर गलती का अहसास हुआ है। शर्म से हाथ पीछे खिंच लिया है। क्या हुआ थोड़ ज्यादा पैसे ही ले लिया तो...वो भी ठीक नहीं कि लिया ही हो। मैं भी उसी सोच का शिकार हो गया- कि ऑटो वाले या गरीब लोग चोर ही होते हैं।
करता रहूं बड़ी-बड़ी बातें- क्या फर्क पड़ जाता है। व्यवहार में नंगई दिख ही जाती है। मैं चुपचाप लिफ्ट में आता हूं- बारहवें फ्लोर की बटन दबा देता हूं।
कल मेरे बाकी साथी फ्लाईट से दिल्ली जा रहे हैं, मैं ट्रेन से। खुद मना कर दिया है फ्लाईट की टिकट के लिए।
शायद एक किताब पढ़ने का लोभ है, या शायद..पता नहीं।

बम्बई पर कुछ स्टेट्स

बम्बई कामगारों का शहर है- अ सिटि ऑफ वर्किंग क्लास। दरअसल कामगार तो हर शहर में होते हैं लेकिन शहर के भीतर उनके लिए कितना स्पेस है ये महत्वपूर्ण है। बम्बई के लोकल में हों चाहे बेस्ट या फिर टैक्सी तक में। दस रुपये के टिकट पर शहर के इस छोर से उस छोर तक चले जाओ। ऑटो रिक्शा वाले मीटर से ही ले जाएंगे, ऑकेजनली टैक्सी में बैठ कार सा फीलिंग भी लिया जा सकता है।
आपको कहीं भी संभ्रातपन नहीं दिखेगा जो दिल्ली के मेट्रो में दिखता है। मेट्रो में तो मुझ जैसे देहात के रहने वाले को भक्का मार जाता है। माहौल में अजीब सा संभ्रांतपना घुला रहता है। तो मैं निकल रहा हूं लोकल डब्बों में बैठी भीड़ में घुल जाने के लिए।


बम्बई का मरीन ड्राइव, जुहु बीच जैसी जगह मैक-डी और सीसीडी कल्चर के खिलाफ एक विद्रोह है। यहां आप दस रुपये का भुना बदाम कुतरते हुए , छह रुपये वाली चाय की चुस्की के साथ घंटों बैठे अपने आने वाले भविष्य के सपने बुन सकते हैं।
दिल्ली में सेन्ट्रल पार्क, पालिका पार्क भी कुछ ऐसा ही है। ये जगहें उस देश के समाज और कथित संस्कृति के खिलाफ भी रिबेल है जो प्यार करने वाले अपने ही बच्चों को मौत के घाट उतारता आया है।
बांकि पटना जैसे शहरों का हाल यह है कि कपल्स छिंटा-कशी और भद्दे कमेंट से बचने के लिए मजबूर होकर मंहगे रेस्ट्रा की तरफ रुख करते हैं (अगर जेब में थोड़े पैसे हुए तो)।


बम्बई की चकाचौंध में बहुत संभव है कि आपको पता भी न चले कि इसी राज्य में विदर्भा भी है, जहां दस-बीस रुपये रोजाना भी मजदूरी नही मिलती, हजारों किसानों को आत्महत्या एक मात्र रास्ता नजर आता है। 
राजनीतिक रुप से आज तक उस क्षेत्र से कोई ऐसा नेता निकल कर नहीं आ पाया जो राज्य की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभा पाए। सुगर मिलों के सहारे राजनीति में बने बड़े लोगों ने इतना जरुर किया है सूखाग्रसित विदर्भ को मिलने वाले पानी को पावर प्लांटों को बांट दिया है।


बॉम्बे में शिवसेना वाम संगठनों के उपर पैर रखकर खड़ी हुई है। टेक्सटाइल और तमाम दूसरे कारखानों के कामगार मजदूरों का शहर रहा है बम्बई। इन कामगारों के बीच वाम संगठन-यूनियन काफी मजबूत भी था। अस्सी के दशक में कई फिल्मों में हड़ताल, मिल-मालिक के शोषण की खिलाफत वगैरह में इसकी झलक देखी जा सकती है।
लेकिन नब्बे आते-आते शिवसेना ने मराठी मानुष का नारा देकर इन संगठनों को तोड़ दिया। और हमेशा की तरह इस बार भी वाम संगठन इस आईडेंटी पॉलिटिक्स को टुकुर-टुकुर देखते रहे- कोई रास्ता नहीं।


बम्बई स्ट्रीट शहर है। स्ट्रीट फूड, बारिश में छाता खोले स्ट्रीट वॉक, स्ट्रीट से सट-सटा चलते लोकल-बेस्ट, शहर के वसीयतनामे की तरह स्ट्रीट कार सेवा (टैक्सी), आपस में स्ट्रीट संवाद सबकुछ है इधर। मतलब आपके लेवल पर उतर ही उतर कर बात करेगा ये शहर आपसे।
और एक बात है- भीड़ और टाइम का रोना सिर्फ मुंबई ही नहीं लगभग हर शहर का है। देश के शहरों को इन दोनों को इन्जवॉय करना सीख लेना चाहिए।


दादर, ठाणे, कल्याण, अंधेरी, बोरवली, कुर्ला। आईला, ये सब नाम फिल्मों ने जेहन में फिट कर रखा है। शायद इसलिए बंबई अजनबी-सा फील नहीं दे रहा। हर लोकल स्टेशन, टैक्सी, बेस्ट (बस), लोगों की हिन्दी सब जानी-पहचानी सी लग रिया है।
कुर्ला से लोकल वाया परेल होते हुए सीएसटी की तरफ। प्रेस क्लब और कॉफी हाउस का जायजा भी लिया जाएगा।
आपके पास टाइम हो तो (सॉरी मुंबई में किसी के पास टाइम नको)..


कल चर्चगेट से संताक्रूज के लिए लोकल में बैठा। मुंबई सेन्ट्रल से आगे बढ़ने पर पता चला कि पहला दर्जा (फर्स्ट क्लास) में बैठ गया हूं। झट एक मुंबई के साथी को फोन किया। घिर..घिर.. के बीच इतना ही सुन पाया- नये आदमी को देख हजार-दो हजार फाइन।
अगले स्टेशन पर लोकल से लगभग कूदते हुए पिछे वाले गेट से अंदर हो लिया।
सुन रखा था, देख भी लिया- बंबई है पैसे वालों की।


गणेश विसर्जन के दिन बम्बई पहुंचा हूं। गणेश विसर्जन के दौरान हर राजनीतिक दल ने अपना-अपना स्टॉल लगा रखा है। सभी पार्टियां गणेश को अपने-अपने दुकान से बेच रहे हैं- कांग्रेस, भाजपा, मनसे सब हैं।
सेकुलरिज्म एक मिट्टी का खिलौना है इस देश में। जिसे हरेक पार्टी खेलती और तोड़ती रहती है।

Friday, June 6, 2014

मुर्दा शांति से भर जाना

कभी-कभी बंद कर दो लिखना और पढ़ना!

कभी-कभी बंद होना चाहिए सोचना और समझना !!

कभी-कभी ही होता है उस पड़ाव पर पहुंचना जहां न हो कोई हँसना और रोना !!!

अच्छा ही होता है कभी-कभी मुर्दा शांति से भर जाना !!!!

Sunday, June 1, 2014

मुर्दे से शहर में एक ज़िंदा आदमी

गांवों-कस्बों से न जाने कितने बच्चे अपने सपनों का झोला उठाये वाया किसी पत्रकारिता संस्थान  अखबारों-टीवी के दफ्तरों में पहुंचते हैं। सपने बड़े होते हैं तो नाजुक भी। लेकिन इन नाजुक से सपनों को तोड़ने के लिए पहले से ही कथित वरिष्ठ, महान टाइप 'पत्रकार-संपादक' वहां बैठे होते हैं। व्यक्तिगत रुप से मानता और समझता हूं कि दस-बीस साल लिखने-पढ़ने के काम में लगा चुका आदमी न जानेे किस श्रेष्ठता बोध से भरा होता है। अपने पाठक से लेकर अखबार में नया काम करने आए गैर इंटर्न तक के साथ वो अपने इसी श्रेष्ठ भाव से मिलता है। हो सकता है कि खबरों के शहर में उसका एक मुर्दे में तब्दीली स्वाभाविक हो।
ऐसे में कुछ ही लोग हैं, जो संपादकनुमा होते हुए भी अपने वरिष्ठता के केंचुल को फेंक किसी नये आए दूधमुंहा "गैर इंटर्न" से  मिलते हैं। यह एक मुलाकात, एक गर्मजोशी से मिलाया हाथ इतना संवेदनशील होता है कि उसकी गर्माहट उस 'गैर इंटर्न' को याद रह जाता है- दो साल बाद भी, दिल्ली के किसी अखबार में ठीकठाक रिपोर्टर बन जाने के बावजूद।
पटना  में ऐसे ही एक संपादक हुए अजय कुमार और वहीं वो गैर इंटर्न अभिषेक आनंद भी।
अखबारी महान लोगों से मोह छुट चुके समय में यह इक उम्मीद, एक ठंडी हवा की तरह है अभिषेक का लिखा यह संस्मरण-



वह शायद दफ्तर में मेरे दूसरे दिन की शाम थी। मुन्नवर राणा हमारे दफ्तर में तशरीफ ला रहे थे। खबरों के शहर की किसी कुर्सी पर मैं बैठा था, तभी एक गर्मजोशी का हाथ हमारी तरफ बढ़ा। मैंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ हाथ मिलाया। थोड़ी देर बाद यही शख्स मुन्नवर राणा को दफ्तर की ओर से फूलों का गुलदस्ता भेंट कर रहे थे।
बाद में इनके साथ उस मुर्दे से शहर (पढ़ें खबरों का शहर) में मेरा काफी वक्त बीता। राज्य भर से आए कागजों के ढेर को भी टटोलने का काम साथ मिलकर मैंने किया। तब कई वरिष्ठों की ओर से मुझे आगाहनुमा इशारा भी मिला। लेकिन शायद यह मुझ पर उस गर्मजोशी के साथ बढ़े पहले हाथ का असर था या फिर कुछ और मैं जैसे था, वैसे ही रहा।
आज जब मैं याद करने की कोशिश करता हूं, मुझे याद नहीं आता कि उस मुर्दे से शहर में किसी और वरिष्ठ ने किसी गैर इंन्टर्न (जब आप किसी दफ्तर में काम करने के इरादे से ऐवे ही पहुंचते हैं आपकी औकात इंटर्न से भी पीछे होती है) का ऐसे हाल पूछा हो।
उन्होंने हाथ मिलाने के साथ हाल भी पूछा था। अगर किसी दूसरे ने कभी किसी से पूछा भी होगा तो उसमें उनकी वरिष्ठता सामने रही होगी, और हाल जानने की जिज्ञासा पीछे, मानो जैसे कह रहे हों, हम्म ये हैं, तुम तो बाबू अभी आए हो। ऐसा नहीं है कि मैं बाकी सभी को खारिज कर रहा हूं, लेकिन जो हैं वो अपवाद भर हैं। उनकी यादें फिर कभी मौके-बेमौके शेयर करता रहूंगा।
मैंने कहा कि इनके साथ दफ्तर के कुछ कागजी काम करते हुए मुझे आगाह किया जाता रहा। ये आगाहें दो तरह की थी। एक कि तुम इनके साथ बेकार में समय बर्बाद कर रहे हो। दूसरा, इनके साथ ज्यादा देर बैठने का तुम्हारे करिअर पर राजनीतिक असर पड़ेगा। यह उस दफ्तर के एक एडिटर थे। 
जाहिर है इनके साथ काम करते हुए कई बार इनके केबिन में मुझे बराबर वाली कुर्सी पर बैठना होता। कई बार कंप्यूटर में डाटा फीड करते हुए, इनकी कुर्सी पर भी। इस दौरान केबिन में कई भविष्य के संपादक का आना होता, जो इन्हें रिपोर्ट करते थे। और ऐसे में कई दिन, कई दफे, मैं एक गैर इंटर्न मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ वहां बैठा मिलता। जब मैं दफ्तर में गैर इंटर्न था, खूब मुस्कुराता था, सबको सुबह सुबह गुड मॉर्निंग करता था। अब इस पॉलिसी में बदलाव कर लिया हूं। 
किसी संपादक जैसों के साथ किसी गैर इंटर्न का अधिक समय दफ्तर में साथ दिखना सही नहीं माना जाता है।
शायद आगे चलकर इस वाकये के मेरे करिअर पर असर हुआ भी। लेकिन कहते हैं न, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिंदगी पर कोई असर नहीं हुआ। दरअसल, आगे चलकर इसी दफ्तर में कांट्रैक्ट वाली स्थाई नौकरी भी मिली। और मेरे कई करीबी दोस्तों का मानना है कि कांट्रैक्ट वाली स्थाई नौकरी के दौरान दौरान मेरे साथ अलग व्यवहार हुआ। इसका कारण कोई नहीं जानता। मैं भी नहीं।
और पहली बात कि इनके साथ काम करते हुए मेरा कभी समय बर्बाद नहीं हुआ। 
मुझे तो जानने का मौका मिला कि एक बॉस इस तरह भी सहज भाव से बात कर सकते हैं। वरना जमाना है कि आपके बोलने से पहले बॉस कहते हैं कि संक्षेप में कहो। और जब कभी दो पक्षों की बात हो तो, जो संक्षेप में कह दिया। मानों वही सच। इससे अधिक टाइम नहीं होता। 
मैं तो जान पाया कि मुर्दे से शहर (पढ़ें, खबरों के शहर) में भी जिंदादिल हुआ जा सकता है। जब हंसे तो उसमें एचआर के दबाव की हंसी न हो।
तभी मैं यह भी समझ क्लिअर कर सका कि स्टोरी एक तरह की नहीं होती। दो तरह की होती है। अप मार्केट और डाउन मार्केट। यह तब जाना जब मैंने इनसे स्टोरी आइडिया पूछा था। इन्होंने पलटकर पूछा था, कौन सी वाली आइडिया तुम्हें चाहिए। 
आज आपको हैप्पी बर्थडे। और बहुत कुछ है जो बचा रहेगा। नहीं लिख पाउंगा। लेकिन उम्मीद रहेगा जब भी मिलूंगा खबरों के शहर में आपकी वही जिंदादिली बरकरार रहेगी।

तुम बहुत याद आते हो

कई बार बेहद शिद्दत से याद आते हो...लेकिन फिर सोचता हूं शायद तुम्हारे प्यार जिसे मैं पजेसिवनेस बोलता हूं....के काबिल नहीं...
अच्छा लगता है जब तुम्हारे बारे में पता चलता है कि तुम अपनी दुनिया में खुश न भी हो तो कम से कम बेहतर कर रहे हो....ठीक हो...या कुछ बुनने में लगे हो।
मेरे जैसे सेल्फीसों के लिए।। खैर क्या ही कहूं।
कई जरुरत हो तो याद करुंगा। फिलहाल अभी याद आ रहे हो, तुम्हारे साथ बिताए बेहतरीन एक साल और लड़ता हुआ दूसरा साल।
दो साल की दोस्ती। और इतनी करीबीयत। अब कोई नहीं मिलता जिसके गले गलकर रो लूं, कोई बांह नहीं मिलता जिसमें सिमट कर सबकुछ ठीक हो जाने का दिलासा मिले। बस। भागता हूं, खोजता हूं, हंसता हूं, रोता हूं।
सबकुछ नॉर्मल होने का भ्रम पाले चलता रहता हूं।


भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...