Sunday, June 1, 2014

मुर्दे से शहर में एक ज़िंदा आदमी

गांवों-कस्बों से न जाने कितने बच्चे अपने सपनों का झोला उठाये वाया किसी पत्रकारिता संस्थान  अखबारों-टीवी के दफ्तरों में पहुंचते हैं। सपने बड़े होते हैं तो नाजुक भी। लेकिन इन नाजुक से सपनों को तोड़ने के लिए पहले से ही कथित वरिष्ठ, महान टाइप 'पत्रकार-संपादक' वहां बैठे होते हैं। व्यक्तिगत रुप से मानता और समझता हूं कि दस-बीस साल लिखने-पढ़ने के काम में लगा चुका आदमी न जानेे किस श्रेष्ठता बोध से भरा होता है। अपने पाठक से लेकर अखबार में नया काम करने आए गैर इंटर्न तक के साथ वो अपने इसी श्रेष्ठ भाव से मिलता है। हो सकता है कि खबरों के शहर में उसका एक मुर्दे में तब्दीली स्वाभाविक हो।
ऐसे में कुछ ही लोग हैं, जो संपादकनुमा होते हुए भी अपने वरिष्ठता के केंचुल को फेंक किसी नये आए दूधमुंहा "गैर इंटर्न" से  मिलते हैं। यह एक मुलाकात, एक गर्मजोशी से मिलाया हाथ इतना संवेदनशील होता है कि उसकी गर्माहट उस 'गैर इंटर्न' को याद रह जाता है- दो साल बाद भी, दिल्ली के किसी अखबार में ठीकठाक रिपोर्टर बन जाने के बावजूद।
पटना  में ऐसे ही एक संपादक हुए अजय कुमार और वहीं वो गैर इंटर्न अभिषेक आनंद भी।
अखबारी महान लोगों से मोह छुट चुके समय में यह इक उम्मीद, एक ठंडी हवा की तरह है अभिषेक का लिखा यह संस्मरण-



वह शायद दफ्तर में मेरे दूसरे दिन की शाम थी। मुन्नवर राणा हमारे दफ्तर में तशरीफ ला रहे थे। खबरों के शहर की किसी कुर्सी पर मैं बैठा था, तभी एक गर्मजोशी का हाथ हमारी तरफ बढ़ा। मैंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ हाथ मिलाया। थोड़ी देर बाद यही शख्स मुन्नवर राणा को दफ्तर की ओर से फूलों का गुलदस्ता भेंट कर रहे थे।
बाद में इनके साथ उस मुर्दे से शहर (पढ़ें खबरों का शहर) में मेरा काफी वक्त बीता। राज्य भर से आए कागजों के ढेर को भी टटोलने का काम साथ मिलकर मैंने किया। तब कई वरिष्ठों की ओर से मुझे आगाहनुमा इशारा भी मिला। लेकिन शायद यह मुझ पर उस गर्मजोशी के साथ बढ़े पहले हाथ का असर था या फिर कुछ और मैं जैसे था, वैसे ही रहा।
आज जब मैं याद करने की कोशिश करता हूं, मुझे याद नहीं आता कि उस मुर्दे से शहर में किसी और वरिष्ठ ने किसी गैर इंन्टर्न (जब आप किसी दफ्तर में काम करने के इरादे से ऐवे ही पहुंचते हैं आपकी औकात इंटर्न से भी पीछे होती है) का ऐसे हाल पूछा हो।
उन्होंने हाथ मिलाने के साथ हाल भी पूछा था। अगर किसी दूसरे ने कभी किसी से पूछा भी होगा तो उसमें उनकी वरिष्ठता सामने रही होगी, और हाल जानने की जिज्ञासा पीछे, मानो जैसे कह रहे हों, हम्म ये हैं, तुम तो बाबू अभी आए हो। ऐसा नहीं है कि मैं बाकी सभी को खारिज कर रहा हूं, लेकिन जो हैं वो अपवाद भर हैं। उनकी यादें फिर कभी मौके-बेमौके शेयर करता रहूंगा।
मैंने कहा कि इनके साथ दफ्तर के कुछ कागजी काम करते हुए मुझे आगाह किया जाता रहा। ये आगाहें दो तरह की थी। एक कि तुम इनके साथ बेकार में समय बर्बाद कर रहे हो। दूसरा, इनके साथ ज्यादा देर बैठने का तुम्हारे करिअर पर राजनीतिक असर पड़ेगा। यह उस दफ्तर के एक एडिटर थे। 
जाहिर है इनके साथ काम करते हुए कई बार इनके केबिन में मुझे बराबर वाली कुर्सी पर बैठना होता। कई बार कंप्यूटर में डाटा फीड करते हुए, इनकी कुर्सी पर भी। इस दौरान केबिन में कई भविष्य के संपादक का आना होता, जो इन्हें रिपोर्ट करते थे। और ऐसे में कई दिन, कई दफे, मैं एक गैर इंटर्न मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ वहां बैठा मिलता। जब मैं दफ्तर में गैर इंटर्न था, खूब मुस्कुराता था, सबको सुबह सुबह गुड मॉर्निंग करता था। अब इस पॉलिसी में बदलाव कर लिया हूं। 
किसी संपादक जैसों के साथ किसी गैर इंटर्न का अधिक समय दफ्तर में साथ दिखना सही नहीं माना जाता है।
शायद आगे चलकर इस वाकये के मेरे करिअर पर असर हुआ भी। लेकिन कहते हैं न, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिंदगी पर कोई असर नहीं हुआ। दरअसल, आगे चलकर इसी दफ्तर में कांट्रैक्ट वाली स्थाई नौकरी भी मिली। और मेरे कई करीबी दोस्तों का मानना है कि कांट्रैक्ट वाली स्थाई नौकरी के दौरान दौरान मेरे साथ अलग व्यवहार हुआ। इसका कारण कोई नहीं जानता। मैं भी नहीं।
और पहली बात कि इनके साथ काम करते हुए मेरा कभी समय बर्बाद नहीं हुआ। 
मुझे तो जानने का मौका मिला कि एक बॉस इस तरह भी सहज भाव से बात कर सकते हैं। वरना जमाना है कि आपके बोलने से पहले बॉस कहते हैं कि संक्षेप में कहो। और जब कभी दो पक्षों की बात हो तो, जो संक्षेप में कह दिया। मानों वही सच। इससे अधिक टाइम नहीं होता। 
मैं तो जान पाया कि मुर्दे से शहर (पढ़ें, खबरों के शहर) में भी जिंदादिल हुआ जा सकता है। जब हंसे तो उसमें एचआर के दबाव की हंसी न हो।
तभी मैं यह भी समझ क्लिअर कर सका कि स्टोरी एक तरह की नहीं होती। दो तरह की होती है। अप मार्केट और डाउन मार्केट। यह तब जाना जब मैंने इनसे स्टोरी आइडिया पूछा था। इन्होंने पलटकर पूछा था, कौन सी वाली आइडिया तुम्हें चाहिए। 
आज आपको हैप्पी बर्थडे। और बहुत कुछ है जो बचा रहेगा। नहीं लिख पाउंगा। लेकिन उम्मीद रहेगा जब भी मिलूंगा खबरों के शहर में आपकी वही जिंदादिली बरकरार रहेगी।

2 comments:

  1. पढ़ना ज्यादा पसंद नहीं। .... पर पुरा पढ़ लिया। .एक सांस में। …
    इतना काफी है न ! ये बताने के लिए कि पूरी तरह सहमत हूँ तुम्हारी बातों से अभिषेक ------- अजय सर के बारे में । धन्यवाद हम सब के अहसास को शब्द देने के लिए। जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाये अजय सर :)
    और अब अपना ब्लॉग खोल लो। .

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