Wednesday, December 28, 2011

यादों के मुहाने से




यह तब कि बात है जब मैं शायद पांचवी में था।  गांव से स्कूल दूर  था और रोजना पैदल ही जाना
होता था। इसी समय घर वालों को मुझे साइकिल दिलाने की जरूरत महसूस होने लगी इस उलाहने
के साथ कि फलां मामा या चाचा हाईस्कूल तक पैदल ही जाते रहे और आज अमुक जगह अफसर हैं।
और इन बाबू साहब को देखिये अभी से साईकिल की जरूरत आन पड़ी। खैर, मेरे लिए साईकिल आ ही गयी।
पटना के स्टेशन रोड पर से इसे खरीद कर लाया - मामा ने।
   इस साईकिल को पाकर जितना मैं खुश था उससे ज्यादा घर। आखिर मैं साईकिल चलाने लायक बड़ा जो हो गया था। और मैं तो बस दिन-भर गांव की सड़कों पर घूमता रहता था।लगता जैसे खूब तेज चलाकर हवा में उड़ने लगा हूं। अपने दोस्तों पर धौंस जमाते हूए। अक्सर
ट्रिपल लोडिंग करके स्कूल भी जाने लगा।


  जब हाईस्कूल पास किया तो सेकेण्ड हैंड सन्नी दिया गया.दिया गया कहिए या फिर मेरे ही जुगाड़ टेक्नोलॉजी का कमाल कह लीजिए। अब इसको फुल स्लेटर में चलाने का मजा ही कुछ और होता था। फिर राजीव नगर से गांधी मैदान और हनुमान मंदिर की दूरी भी कम लगने लगी। पूरा पटना ऐसा लगता मानों मेरे पकड़ में आ गया था।लेकिन सन्नी का साथ बारहवीं तक ही रह पाया। अब घरवालों से नयी डिमाण्ड- बाइक।



 घर में हप्तों इस मुद्दे पर बहस चलती रही थी कि मेरे लिए बाइक जरूरी है या नहीं, कि बाइक ठीक होगा या स्कूटी। कि अभी बच्चा है इसलिए स्कूटी ठीक है। बाइक के साथ मेरे भविष्य का भी आकलन किया जा रहा था।मेरे बिगड़ने के खतरे को नापा जा रहा था। और इन सबके साथ आखिर में मेरे लिए स्कूटी खरीद कर लाया गया,एइस स्कूटी के रंग डिसाइड करने में पड़ोसी तिवारी अंकल से राय ली गयी।
  स्कूटी क्या मिली मेरा सफर भी लंबा होने लगा। दोस्तों के संग खूब कुलांचे भरे गये।
  इन सबके बीच सोचता हूं कि साईकिल से लेकर स्कूटी तक के सफर में खुशी के साईज में कोई फर्क  कभी क्यों नहीं महसूस हुआ। क्या सच में खुशी चीजों के साइज और कीमत से तय नहीं होते?

Tuesday, December 27, 2011

आम आदमी

मैं आंखे बंद किए दौड़ लगाता हूँ


जे.एन.यू के सुनसान सड़कों पर..


मैं तेज दौड़ लगाता हूँ
और
तेज...


क्योंकि


मैं भूलना चाहता हूँ


जिंदगी के दौड़ में पीछे छूटने के गम को


मैं भूलना चाहता हूं


क्रान्ति न कर पाने के उस बेबसी को


क्योंकि 


मुझे नहीं मिलते किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लाख रूपये-प्रतिमाह


मेरे पास नहीं आते किसी बुकर प्राइज विनर किताब की रॉयल्टी


मैं नहीं कर सकता क्रान्ति की बातें 


क्योंकि 


मैं जानता हूं


बिना रोटी के रात गुजारना क्या होता है...:(


मैं नहीं कर सकता दूनिया बदलने की बातें


क्योंकि 


मैंने नहीं बितायी है
स्कूल की गर्मी की छूट्टियां-किसी हिल स्टेशन पर जाकर


मैं नहीं कोस सकता इस पूंजीवाद को


क्योंकि 


हर शाम मुझे ले जाना होता है
एक झोला सब्जी,माँ के लिए दवा और बच्चों के लिए कागज-कलम
घर में।


और अपनी इसी बेबसी में
जब सर फटा जा रहा है


मैं 
आंखे बंद किए
दौड़ा
जा रहा हूँ


बेतहाशा दौड़ कर मैं इस 
बे

सी 
को भूलाना चाहता हूँ।

Monday, December 26, 2011

मेरे नजर में इंडिया क्या है?

मेरे नजर मे इंडिया


 मेरे लिए इंडिया उस सब्जी बनाते तस्वीर वाले बच्चे की है जो स्कूल जायेगा या किसी चाय दुकान पर यह तय करना मुश्किल है। 



    मेरे लिए इंडिया उस 65 पतझड़ देख चुके आदमी की है जो 15 वर्षो से भूंजा(पॉपकार्न) बेच रहा है लेकिन आज भी पेट-भर ही कमा पाता है।ठीक इतने ही समय में इसी देश के दो भाईयों का उधोग साम्राज्य कई गुणा बढ़ गया है और शासन के अनुसार देश भी विकास कर गया है। 
  
 मेरे लिए इंडिया उस झुग्गी में रहने वाले रणधीर की है जो अहले सुबह उठता तो है लेकिन स्कूल जाने के लिए नहीं बल्कि किसी चाय या होटल के बर्तन साफ करने के लिए।




  मेरे लिए इंडिया उस औरत की है जो कपड़े वहीं धोने को मजबूर है जहां बर्तन

   मेरे लिए इंडिया उस चाय पी रहे मजदूर की है जो चार रूपये की चाय पीकर अपनी भूख मिटाने को बेबस है और रोज गांव पैसे भेजने की चिंता उसे सताये जा रही है




  मेरे लिए इंडिया उस साईकिल मिस्त्री की है जो किसी मार्क्स या पूंजीवाद को नहीं जानता और उसकी विचारधारा रोटी तक सिमट गयी है।


  मेरे लिए इंडिया उस नबालिग लड़के की है जो अपने कंधे पर परिवार का बोझ डाले कहीं किसी शहर में ऑटो चला रहा है।

 मेरे लिए इंडिया उस बच्चे की भी है जो सड़क पर मिले जूते को पहन कर खुश है,भले उसके नाप का न हो।
मेरे लिए इंडिया उन भगवान के मंदिरों की है जो सड़को पर बने हैं और आने वाले समय में उन्हें भव्य बनाने की योजना है।
  

Saturday, December 24, 2011

जीने का नियम

उसने जीने के लिए खाना खाया
उसने खाने के लिए पैसा कमाया
उसने पैसे के लिए रिक्शा चलाया
उसने चलाने के लिए ताकत जुटायी
उसने ताकत के लिए रोटी खाई
उसने खाने के लिए पैसा कमाया
उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया
उसने रोज रोज नियम से चक्कर लगाया
अन्त में मरा तो उसे जीना याद आया
-
गोरख पांडे

Friday, December 23, 2011

एक कविता: युवा मन की


ये उजड़ने का मौसम,
टूट कर बिखर जाने का मौसम है,
यह वह मौसम है
जब क्रान्ति..क्रान्ति चिल्ला कर
मार्क्स को अपना नाना बता कर
दुनिया को बदलना भी है
और जे.एन.यू के किसी हॉस्टल में
दोपहर का भोजन 25 रूपये में पाकर
ठूंस-ठूंस खाना भी है...ताकि रात के खाने के पैसे बच सके
और बचे हुए पैसे से
कोई तीसरी दूनिया की पत्रिका खरीदी जा सके..
लेकिन अपने कमरे में देर रात इसी पत्रिका को पढ़ते-पढ़ते
जब पेट के अंदर की भूख जवाब दे देती है
तब कॉरपोरेटी मीडिया को गलियाते हुए
देर रात गंगा ढ़ाबा पर 4 रूपये के एक पराठे को
किसी लाल रंग के रस में डूबा-डूबा खाना भी है
और भूख को सांत्वना देते हूए
पढ़े हूए किसी उपन्यास के नायक के संघर्ष को याद करते हुए
कमरे पर लौटना भी है..
इस बिखड़ने के मौसम में भी
सच पूछो भगवान
पता नहीं तुम याद भी नहीं आते।

Thursday, December 1, 2011

बीच बहस में

मीडिया का चोचला या विपक्ष का टोटका
आजकल मीडिया में विपक्ष की संसद न चलने देने के कारण कड़ी आलोचना की जा रही है।संसद न चलने देने का सारा दोष विप

क्ष पर ही मढ़ा जा रहा है।
जबकि यह समझने की जरुरत है कि विपक्ष का काम ही सरकार के गलत निर्णयों का विरोध करना और संसद में इसका विरोध करना है। यदि विपक्ष अपनी सजग भूमिका नहीं निभाती है तो यह संसद के लिए ज्यादा खतरनाक होता।यह माना जा सकता है कि संसद की कार्यवाही को चलाने के लिए 1.5करोड़ रूपये एक दिन में खर्च होते हैं। लेकिन मीडिया में ऐसा दिखाया जा रहा है कि जनता के ये पैसे विपक्ष के गैर-जिम्मेदराना व्यवहार से किस तरह बर्बाद हो रहे हैं।

जाने-अनजाने
में मीडिया निश्चित तौर पर जनता में भ्रम की स्थिति पैदा करना चाह रहा है। वो संसद
में खर्च हो रहे पैसे के लिए चिंताकुल तो है।किन्तु, 20 करोड़ लोग जो असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं के भविष्य अधर में लटकने की चिंता नहीं है।
मीडिया की इस परेशानी को भी समझा जा सकता है।आज मीडिया जिस तरह से कॉरपोरेट दबाव में काम करने को मजबूर है।उससे इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। लेकिन जरूरत विपक्ष की भूमिका को फिर से परिभाषित करने की जिम्मेवारी भी करने की जिम्मेवारी भी इसी कॉरपोरेटी मीडिया पर है।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...