Sunday, January 15, 2012

व्यंग्य और आक्रोश के कवि धूमिल




व्यंग्य और आक्रोश के कवि धूमिल
कुछ लोगों का निर्माण परिस्थितियां करती हैं लेकिन दोस्तों कुछ विरले ऐसे भी होते हैं,जो इन परिस्थितियों के जाल में न फंसकर खुद अपना अलग व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। सुदामा पांडे धूमिल ऐसे ही लोगों में से हैं जिन्होंने परिस्थिति के जाल में न फंसकर उनसे संघर्ष किया और अपनी अलग पहचान बनायी।
धूमिल का जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था|गांव से हाईस्कूल पास करने के बाद ये विज्ञान से इंटर करने के लिए बनारस आए,लेकिन शहर में पढ़ाई के खर्चे वहन न कर पाने के कारण इनकी पढ़ाई का क्रम यहीं से टूट गया।
  , रोजगार के लिए , धूमिल कलकत्ता चले आए। यहां पर लोहा और लकड़ी ढोने का काम किया।पर मालिक से नहीं बन पाने के कारण वापस भी लौट आए। नौकरी से बचे पैसों से   सन् 1958 मे आई टी आई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विदयुत अनुदेशक बन गये| लेकिन इनकी कार्यकुशलता और क्षमता के बावजूद इनकी आधिकारियों से नहीं बनी।इसी कारण, सीतापुर,बलिया,सहारनपुर में ट्रान्सफर होता रहा। जीवन संघर्षों से जूझते हुए, ये काव्य-रचना में लगातार योगदान देते रहे।   लेकिन सबसे दुखद पहलू यह रहा कि  ३८ वर्ष की कम उम्र मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई|
धूमिल  साठोत्तरी कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वे पूर्णत: जनवादी कवि हैं। उनकी कविता में समकालीन युगबोध की सच्ची, मार्मिक और तीखी अभिव्यक्ति हुई है। 'संसद से सड़क तक' उनका प्रथम काव्य-संग्रह है, जो 1972 में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा काव्य-संग्रह 'कल सुनना मुझे' मरणोपरांत सन् 1977 में प्रकाशित हुआ है। उनका तीसरा काव्य-संग्रह 'सुदामा पांडे का जनतंत्र' भी मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। 

आजादी के पहले भारतीय जनता को जो सुनहरे स्वप्न दिखाये गये थे, वेजादी मिलने के कुछ ही वर्षो में टूटकर बिखरने लगे। कुछ अवसरवादी नेताओं ने सत्ता के सूत्र हासिल कर ऐसी धांधली मचायी कि आम जनता हतप्रभ हो देखती रह गयी। देश की और सामान्य जन-जीवन की दशा-दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। नेताओं की स्वार्थवृत्ति, मुखौटेबाजी, अवसरवादिता, नारेबाजी, भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियाें ने धूमिल के दिलो-दिमाग को झकझोर दिया। कवि के मन का आक्रोश और झुंझलाहट कविता में तीखी और धारदार अभिव्यक्ति बनकर उभर आयी है।
 समस्याओं का समाधान जुटाने की बजाय जनता का ध्यान दूसरी ओर खींचने तथा झूठे वादे देकर जनता को गुमराह करने वाले नेता-वर्ग पर कवि का यह आक्रोश बिल्कुल वाजिब है-
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का एक ही जवाब था
यानी की कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।


धूमिल की कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है. व्यवस्था जिसने जनता को छला है,उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है.
  इस लोकतंत्र से धूमिल उकता गए से लगते हैं। वो लिखते हैं-
मैंने इंतजार किया-
  अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नही छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह जमीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था-
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इन्तजार करता रहा ....
इन्तजार करता रहा...
इन्तजार करता रहा...
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता...
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता...
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफहम इरादे थे

स्वार्थ और सत्तालोलुप नेता वर्ग जनता को अपनी रैयत न मानकर उसे सिर्फ वोट के रूप में देखता है। धूमिल ने नेताओं के  इस पाखंड को बेनकाब कर दिया है -
हां यह सही है कि इन दिनों
मंत्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से
कुछ ज्यादा मुस्कुराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सब सिर्फ घास के
सामने होने की मजबूरी है।

आजादी के कई वर्ष बाद भी भारतीय जनता अपनी प्राथमिक आवश्यकताएं जुटाने में असफल रही है। इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारे देश के सूत्रधार हैं। उनकी नरभक्षी जीभ पसीने का स्वाद चख गयी है। इसलिए वे जनता की रोटी के साथ खिलवाड़ करते रहते हैं। धूमिल ने इस तथ्य का वास्तविक और नग्न चित्र खींचा है -
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।


सन १९६० के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है| उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड् मे जो ह्र्दय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं| कवि धूमिल इन सबका विरोध करते हैं|
इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रामकता मिलती है| किंतु उससे उनकी उनकी कविता की प्रभावशीलता बढती है| धूमिल अकविता आन्दोलन के प्रमुक कवियों में से एक हैं| धूमिल अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है।
कविता के बारे में धूमिल का विचार है:-
एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।
जीवन में कविता की क्या अहमियत है-
कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
लेकिन आज के हालात में -
कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
तथा
कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।
बुद्धजीवियों,कवियों के बारे में लिखते हुये वे सवाल करते हैं:-
आखिर मैं क्या करूँ
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में
पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
कौन सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर
निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दँ?

आज के कठिन समय में प्यार के बारे में लिखते हुये धूमिल कहते हैं:-
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के
पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।
बेकारी, गरीबी, बढ़ती जनसंख्या के बारे में लिखते हुये कहते हैं धूमिल-
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-
बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर,खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे हमें
बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
देश में एकता ,क्रान्ति के क्या मायने रह गये हैं:-
वे चुपचाप सुनते हैं
उनकी आँखों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता
वे इस कदर पस्त हैं-
कि तटस्थ हैं
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति -
यहाँ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।
अपराधी तत्वों के मजे हैं आज की व्यवस्था में इस बात को धूमिल जानते थे।तभी तो कहते हैं-
….और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकने वाला चावल
कितना महीन है।


'हाथी के दांत खाने को और दिखाने के और' कहावत को सिद्ध करने वाले नेता आजादी मिलने पर समाजवाद की दुहाई देते थे, लेकिन वही लोग उसका रास्ता रोके हुये थे। समाजवाद के नाम पर उन दिनों काफी शोरगुल हुआ, लेकिन आखिरकार समाजवाद को दफना दिया गया। इन स्थिति को धूमिल ने व्यंग्य-बाण की तीक्ष्ण नोंक से अनावृत कर दिया है -
समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है
मगर मैं जानता हूं कि मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर आग लिखा है।
और उनमें बालू और पानी भरा है।

महात्मा गांधी के सिद्धांतों और आदर्शो को जीवन में उतारने की बजाय पाखंडी नेता उनका प्रयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करते हैं। समारोहों में भाषण देने के लिए जाना होता है, तब गांधीजी के सिद्धांतों की शाल ओढ़कर अपने कालेपन को छिपाने की भरसक कोशिश करने वाले नेताओं की धूमिल ने धाियां उड़ा दी हैं -
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूं और
उस मुहावरे को समझ गया हूं
जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।

भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश है। लेकिन हमारे स्वार्थी नेताओं ने ऐसी धांधली मचायी है कि अब धीरे-धीरे जनता का विश्वास जनतंत्र से उठता जा रहा है। जनता के विकास के नाम पर नेता-वर्ग अपना ही विकास कर रहा है। इस अराजकता पर धूमिल ने भरपूर फटकार लगया  है -
ऐसा जनतंत्र है जिसमें
जिंदा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

संसद, विधानसभाओं, अदालतों और बड़े-बडे सरकारी दफ्तरों में जनतंत्र की रोजिंदा सैकड़ों बार हत्या हो रही है। धूमिल की आंखों ने बार-बार यह हत्या होते देखी है। इसलिए उनकी पीड़ा, झुंझलाहट और आक्रोश कविता में तेजाब का रूप धारण कर लेते हैं -
उन्होंने जनता और जरायमपेशा
औरतों के बीच की
सरल रेखा को काटकर
स्वस्तिक चिह्न बना लिया है
और हवा में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक दिया है-'जनतंत्र'
और हर बार
वह भेड़ियों की जबान पर जिंदा है।

व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने एक जगह लिखा है कि 'इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।' इस देश के बुद्धिजीवी लोग भी इस कदर भ्रष्ट और स्वार्थी हो गये हैं कि अपने लाभ के लिए वे अपना मान-सम्मान, ईमानदारी, ामीर सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। भ्रष्ट और लंपट नेताओं की चापलूसी करने वाले और ऊपर की आमदनी की फिराक में रहने वाले टुच्चे बुद्धिजीवियों की धूमिल ने बखियां उधेड़ दी हैं -
वे सब के सब तिजौरियों के
दुभाषिये हैं
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता है। दार्शनिक हैं।
लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

स्वराज्य मिलने के कई वर्षो के बाद भी देश की समस्याओं, प्रश्नों और स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है। विदेशी शासकों और स्वदेशी शासकों के शासन में कोई खास फर्क महसूस नहीं होता। हरिशंकर परसाई ने इसे 'ट्रांसफर ऑफ पावर नहीं, ट्रांसफर आफ डिश' कहा है। इस विद्रूप स्थिति से आहत कवि अपने आप से प्रश्न करता है कि क्या किसी आदमी के लिए सैकड़ों लोगों ने बलिदान दिये थे? स्वराज्य का क्या यही मतलब होता है? कवि के शब्दों में -
बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
'''''''''''''''''''''
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुये रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

धूमिल मानते हैं कि जिन्दा रहने के लिए तर्क जरूरी है-
और बाबूजी। असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
धूमिल ने जिस व्यवस्था पर 70 के दशक में सवाल उठाया था वो आज भी जस का तस है।
इस व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए धूमिल कहते हैं-
वह कौन-सी प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिसमें मेरी मां का चेहरा
झुर्रियों का झोला है
और ठीक उसी उम्र की
मेरे पड़ोस की महिला के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

समाज के संपन्न वर्ग के बारे में कवि कहते हैं-
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए,सबसे भद्दी
गाली है।

धूमिल के निगाह में आदमी-
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है।

धूमिल की कविता आम आदमी की कथा-व्यथा से जुड़ी जनवादी कविता है। उन्होंने समाज की विसंगत, विकृत एवं विद्रूप स्थितियों का बारीक निरीक्षण कर उन पर भरपूर व्यंग्य-बाण छोड़े हैं। कविता लिखते समय उनकी दृष्टि कलापक्ष की बजाय अनुभूति की सच्ची, मार्मिक और सचोट अभिव्यक्ति पर रही है। उन्होंने आम आदमी की भाषा के शब्दों में अणु-विस्फोट की ताकत भरकर उन्हें कविता में स्थान दिया है। देश में व्याप्त अराजकता से व्यथित कवि-मन के आक्र ोश ने कविता में विकट व्यंग्य का रूप धारण कर लिया है। तभी तो आज भी  धूमिल की कविताओं के अंश लोग अपने लेखों ,भाषणों को असरदार बनाने के लिये करते हैं।
धूमिल  दिखावा करने वालों पर कहते हैं-
न वह अक्लमंद है
न वक्त का पाबंद है
उसकी आंखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे कहीं जाना नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है

धूमिल कहते हैं कि सबके प्रतिरोध का अपना अलग तरीका है-
जबकि मैं जानता हूं कि इनकार से भरी हुई एक चीख
और एक समझदार चुप दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,चुप और चीख
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फर्ज अदा करते है।

वह जनता को आगाह करते हैं-
मगर तुम्हारे लिए कहा गया हर वाक्य
एक धोखा है जो तुम्हें दलदल की ओर
ले जाता है

लहलहाती हुई फसलें
बहती हुई नदी
उड़ती हुई चिड़ियां
यह सब, सिर्फ ,तुम्हें गूँगा करने की चाल है
क्या तुमने कभी सोचा कि तुम्हारा-
यह जो बुरा हाल है
इसकी वजह क्या है
इसकी वजह वह खेत है
जो तुम्हारी भूख का दलाल है
आह। मैं समझता हूं कि यह एक ऐसा सत्य है
जिसे सकारते हुए हर आदमी झिझकता है

कवि धूमिल के ही शब्दों में-
अन्त में कहूंगा
सिर्फ इतना कहूँगा
हां हां मैं कवि हूं,
कवि-याने भाषा में
भदेस हूँ
इस कदर कायर हूँ
कि उत्तरप्रदेश हूँ।

Sunday, January 8, 2012

क्योंकि हर पप्पु को स्कूल जाना है



  बचपन में घर में पप्पु नाम का लड़का काम करने आता था।उसके पिता रेहड़ी वाले थे।घर में पप्पु दिन भर काम करता था और रात में हमलोगों के साथ पढ़ने भी बैठता था।लेकिन पप्पु कभी स्कूल नहीं जा पाया।हाँ,हमारे साथ पढ़ते हुए वह साक्षर जरूर हो गया।देश में न जाने ऐसे कितने पप्पु हैं,जो स्कूल नहीं जा पाते।पप्पु जैसे बच्चें स्कूल जा पाएं इस उद्देश्य से सरकार ने 2010 में शिक्षा का अघिकार कानून लाया।इस कानून के तहत निजी स्कूलों में भी 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने का प्रावधान किया गया।
  लेकिन लगता है पप्पु जैसों का स्कूल जा पाना फिलहाल असंभव ही है।क्योंकि इस 


कानून के पालन में कई अड़चने लगायी जा रही है।निजी स्कूल फिलहाल इस कानून को 


मानने के मुड में नहीं नजर आ रही है। हाल ही में दिल्ली के मान्यता प्राप्त और गैर-


मान्यता प्राप्त लगभग चार हजार स्कूलों ने इस कानून को मानने से साफ इनकार कर 


दिया है।कुछ दिन पहले पटना के निजी स्कूलों ने भी इस कानून के खिलाफ आवाज 


उठायी और यहां तक की वहां के प्रमुख बारह स्कूल  हड़ताल पर भी गये।इस तरह देश 


भर से ऐसी ही विरोध की खबरें आ रही हैं।
  यदि आप इन निजी स्कूलों के विरोध के पीछे के तर्क को सुनेंगे तो हैरान रह जायेंगे।


इन निजी स्कूलों का कहना है कि हम गरीबों के बच्चों को अपने यहां दाखिला नहीं दे 


सकते क्योंकि इससे हमारे स्टैंण्डर्ड में गिरावट आने की संभावना है।यह तर्क अपने आप 


में वाहियात ही नहीं बल्कि उतना ही अमानवीय भी है।इस एक तर्क से निजी हाथों द्वारा 


संचालित स्कूलों का एक तरह का सामंती चेहरा ही हमारे सामने आता है।इन स्कूलों का 


यह भी तर्क है कि यदि वो गरीब बच्चों को अपने यहां दाखिला देते हैं तो समाज के 


उच्च वर्ग के लोग अपने बच्चे को हमारे यहां नहीं आने देंगे।यदि इस तर्क में थोड़ी सी भी


 सच्चाई है तो इससे हमारे कथित कुलिन वर्ग का चेहरा सामने आता है।

   कुछ अभिवावक से बात करने पर और भी हैरान करने वाली बात सामने आयी।इनका

कहना था कि यदि इनके बच्चे गरीब बच्चों के साथ पढ़ेगें तो वो चोरी करना,गाली 


बोलना सीख जायेंगे।यानि हमारा कुलिन तबका यह मान कर चलता है कि गरीब बच्चें 


चोर होते हैं,गाली बकने वाले होते हैं।यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।हमारे व्यवस्था में 


गरीबों को जिस तरह से हाशिये पर धकेला जा रहा है यह उसी का हिस्सा-मात्र है।

  निजी स्कूल वालों का यह भी तर्क है कि यदि वो इन गरीब बच्चों को अमीर घरों से


आने वाले बच्चों के साथ बैठाती है तो इन बच्चों में हीन भावना घर कर जायेगा,जिसका 


परिणाम इन गरीब बच्चों के हित में न होगा।यह गरीब-हितौषी होने का दिखावा मात्र है।


कुछ स्कूल गरीब बच्चों के लिए दोपहर के बाद स्पेशल कक्षा के आयोजन की बात करती 


है।लेकिन इसे नहीं स्वीकारा जा सकता है।

  दरअसल, इस सरकारी कानून के विरोध का सबसे बड़ा कारण है इन निजी स्कूलों का 


शक्तिशाली हाथों द्वारा परिचालन।जिन्हें स्कूल के नाम पर सस्ती जमीन लेने में,सस्ती 


बिजली लेने में,अन्य करों में छूट से तो प्यार है लेकिन सरकार के बनाये कानून को 


मानने के लिए ये तैयार नहीं।

  सरकार भी शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और सरकारी स्कूलों की हालत 


बद-से-बदतर करती जा रही है।आज भी बारह से चौदह साल की लड़कियाँ सिर्फ शौचालय


 के अभाव में स्कूलों को छोड़ने को विवश हो रही है।ऐसे में सरकार आम लोगों के शिक्षा


 के प्रति कितनी जागरूक है इस पर संदेह ही लगता है।देश में एक मजबूत निजी शिक्षा 


के हिमायती-लॉबी भी मजबूत है,जो सरकार पर दबाव डाल रही है। इसलिए सरकार भी 


इस मामले में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है।
  आज जरूरत है कि सरकार शिक्षा के अधिकार कानून को 




कठोरता से लागू करवाये।क्योंकि लाखों पप्पु स्कूल जाने के 






लिए अपना झोला तैयार कर रहे हैं। 

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...