Thursday, June 22, 2017

बदलते गाँव

21वीं सदी का गाँव मजेदार है। बहुत से परिवार में लड़कियां पहली बार मैट्रिक बोर्ड दे रही हैं। पढ़ने के लिए वे अपने घर में लड़ रही हैं। साइकिल से बाजार-शहर सब जा रही हैं। वे सिर्फ़ प्रेम ही नहीं कर रही हैं बल्कि पसंद के लड़के से शादी भी कर रही हैं।

मोबाइल ने क्रांति लायी है। रेडियो बीते जमाने की बात हो चली है। अब घर-घर टीवी आने लगा है। दूरदर्शन नहीं केबल चैनल है। दुनिया-जहान की लोगों को खबर है। लगभग हर दूसरे-तीसरे  घर में मोटरसाइकिल खरीदा जाने लगा है। मनरेगा और भोजन का अधिकार जैसी योजनाओं ने मजदूरों के जीवन-स्तर को बदल कर रख दिया है। ठीक है योजनाओं में जबरदस्त भ्रष्टाचार है। लेकिन इसी मनरेगा ने गाँवों में मजदूरी बढ़ायी है। अक्सर कथित ऊंची जातियों के लोग आपको इन प्रगतिशील योजनाओं का विरोध करते दिख जाते हैं।
उनको गुस्सा है बंधुआ मजदूरी खत्म हो गया।

गाँव में स्कूलों की संख्या बढ़ी है। गरीब बच्चों को स्कॉलरशिप दिया जा रहा है। 
गाँव के पुराने लोग बताते हैं- पहले गरीब के बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। आज वे सरकारी अस्पताल में पैदा होते हैं। डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध है। महिलाओं को चक्की नहीं पीसनी पड़ती , उसके लिए गली-गली आटा मिल है। पानी के लिए एक किलोमीटर दूर किसी के कुंए पर नहीं जाना पड़ता, अब घर-घर सरकारी हैंडपंप है।

गरीब शहर जा रहा है। नौकरियों में जा रहा है। मेहनत-मजदूरी करके लौटकर छोटे-छोटे जमीन खरीद रहा है और अपना जीवनस्तर बेहतर कर रहा है।
अपने बच्चों को पढ़ाने की चिन्ता कर रहा है। उनको कानून की समझ है। पंचायत चुनाव में महिलाओं-दलितों-पिछड़ों को आरक्षण है। भले अभी महिलाओं के पति ही चुनाव-पोस्टर पर दिखते हैं, लेकिन इसी बहाने हजारों सालों से घर में कैद औरतें घर की दहलीज लांघ रही हैं। एक चुनाव-दो चुनाव के बाद वैसा वक्त भी आने वाला ही है जब ‘मुखिया पति’ पोस्टर से गायब होंगे। सवर्ण जातियों में इस बदलाव को लेकर गुस्सा है। अभी उनकी स्थिति खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे जैसी है। उनके लिए तो जितनी जल्दी इस बदलाव को समझ लें, उतना अच्छा है।
कानून और संविधान ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को बहुत मजबूत बनाया है और उसमें आर्थिक पहलू को भी जोड़ा है।

शहरी नजरिए से देखो तो ये सब हो सकता है छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन करोड़ों बहुजन के जीवन में असल परिवर्तन आया है। सवर्ण जाति के लोग इन सब परिवर्तनों से चिढ़ते हैं। उनकी शिकायत है- जमाना खराब हो गया है। घोर कलियुग आ गया है, जबकि बहुजनों के लिए ये असल सुराज है। इस सुराज के असल हीरो अंबेडकर हैं, उनका लिखा संविधान है।

भले हमारा समाज, गाँव आधा भी नहीं बदला है। अभी बहुत कुछ बदलना है। बहुजनों की हिस्सेदारी और मजबूत होनी है। उन्हें नये मकाम बनाने हैं। लेकिन इन सब चुनौतियों के बीच इन छोटे छोटे बदलावों को दर्ज करना जरुरी है।

लोहाघाट की तस्वीरें



















Monday, June 19, 2017

थोड़ा सा बाहर भी टहलिये..

फेसबुक से बाहर झांकने की जरुरत है। अपने आसपास की रोजमर्रा की जिन्दगी से भी बाहर ताक-झांक करना जरुरी है। अपने तरह के, अपने ही सर्कल के, काम-धंधे के लोगों से इतर लोगों से मिलना जरुरी है।
शहर में हो, दिल्ली में हो तो थोड़ा बाहर निकलना बहुत जरुरी है। वीकेंड में नये लोगों से मिलना जरुरी है। दिल्ली में हो तो बस्तियों में जाना जरुरी है, लोगों की जिन्दगी देखना जरुरी है, उनकी कहानियों को सुनना जरुरी है। अजनबी लोगों से मिले प्यार आपको अंचभित कर देंगे- फेसबुक पर वो स्नेह खोजे नहीं मिलेगा। वीकेंड में शहर की सीमा से थोड़ा दूर निकल जाईये...खेतों में जाईये, नदी के पास जाकर बैठिये, नये-नये लोगों से मिलिये, फेसबुक वाले दोस्तों से बार-बार मिलने से बचिये।
देखिये जिन्दगी देखने का नजरिया बदल जायेगा। सही-गलत से परे, लेफ्ट-राईट से इतर, मोदी-फोदी से बहुत दूर एक खूबसूरत दुनिया है, उसे भी जानना जरुरी है। उस दुनिया की मुश्किलें हैं उन्हें जानना जरुरी है। आपके लिखे में सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया से प्राप्त ज्ञान है तो दिक्कत है, सिर्फ और सिर्फ किताबी अनुभव है तो दिक्कत है।
बदलिये...बदलिये क्योंकि बदलना जरुरी है। नहीं तो ये पॉपुलर कम्यूनिकेशन के सारे टूल्स आपको बिमार बना रहे हैं।
सोशल मीडिया बहुत जरुरी है, बहुत अहम है, लेकिन ऑफ्टरऑल बैलेंस उससे भी ज्यादा जरुरी है।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...