Sunday, December 13, 2015

लौटकर पटना



कोई-कोई रोज बहुत अजीब हो जाता है। यही अपने आप में कितनी अजीब बात है कि जिस शहर का मैं होने का दावा करता हूं उसी शहर में खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं। रोज बहुत-बहुत से लोगों से मिलने के बावजूद यह अकेलापन है कि जाता नहीं। लेकिन मिलते भी कौन हैं, क्या पुराने लोग, पुराने दोस्त। नहीं। वही फेसबुक पर मिले दोस्त। वही जाल। वही बातें जो कृत्रिम तरीके से गढ़ी गई हैं, जिसमें गणित के हिसाब-किताब की तरह दोस्तियां की गयी हैं।
पटना में बिताये पुराने दिन खो से गए हैं। यहां आता हूं तो लगता है पटना से कभी गया ही नहीं था, मानो बीच में से उठकर कहीं चला गया था और फिर वापिस लौट आया हूं। लेकिन इस बीच सच तो यह है कि पटना लगभग छूट सा गया है। जब-जब वापिस लौटता हूं अपना पटना, पटना में बिखरे दोस्त, पुराने दिन और यहां तक कि सड़क और गली तक को खोजने की कोशिश करनी पड़ती है, यह अपने आप में कितनी अजीब बात है।
कहने को इंटरनेट ने पटना और दिल्ली की दूरी को पाट दिया है। लेकिन सच तो यह है कि दिल्ली आज भी पटना को हीनता से देखती है और पटना के लिये भी दिल्ली तमाम तरह के मढ़-गढ़ का हिस्सा बना हुआ है।

भले दिल्ली पटना में बड़े गाजे-बाजे के साथ जब मन चाहे आ जाती है लेकिन पटना को हमेशा दिल्ली जनसाधारण एक्सप्रेस की तरह ही जाना होता है।
अपना शहर छूटने का मतलब है अपने भीतर का कुछ मरना। मैं लौट कर पटना को खोज रहा हूं। मिलता है बड़ा सा बाजार, शहर में नये बने दो फ्लाईओवर और सरकारी कब्जे में बंद कर दी गयी एक पुरानी गली, जहां से रोज का आना-जाना था।
घर से जा चुके लोगों को नहीं तलाशनी चाहिए अपना शहर। उसे खाली छोड़ देना चाहिए फेसबुक का होमटाउऩ वाला विकल्प। क्योंकि कहने को लिख सकता है वह अपने बचपन का शहर, बता सकता है जवान होते समय के शहर को अपना शहर लेकिन कह नहीं पाता

भागते-भागते एक दिन छूट जाता है आपका अपना शहर
आप अगर लौट कर आते भी हैं तो जा चुके होते हैं पुराने लोग उस शहर को छोड़कर
उसी दिन आप पड़ जाते हैं अकेले अपने ही शहर में
फिर रह जाती है फेसबुक की दोस्तियां, जो होने को हो सकती है देश और दुनिया के किसी भी शहर में
लेकिन यह कितनी अजीब बात है कि अपने ही शहर में आपको बनाने पड़ते हैं फेसबुक फ्रेंड्स..
बची रह जाती है पुराने दिनों की स्मृतियां, पुराने प्रेम और दोस्ती के खाली स्थान को भरते हुए..


बेकाबू

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