Monday, April 25, 2016

मेरी जान लौटना है मुश्किल..



गाँव में हूं। एक शादी से लौटा हूं। एक पन्द्रह साल की लड़की की शादी थी। अभी-अभी मैट्रिक बोर्ड दिया था। शायद वह अपने परिवार की पहली पीढ़ी होगी, जिसने बोर्ड दिया होगा। उसके पिता एक मजदूर हैं। यही कोई तीन-चार हजार हर महीने कमाने वाला। बेटी की शादी में कर्ज लिया है। यही कोई पचास-साठ हजार। कायदे से देखो तो वह यह कर्ज शायद आने वाले पाँच सालों में चुका पायेगा। शादी में गाँव के बहुत सारे लोग जुटे थे। वो क्या कहते हैं, समाज। हां वही, समाज। पूरा समाज मौजूद था। पूरे समाज ने कर्ज वाले पैसे से मुर्गा-चावल जमकर खाया। खूब भोज हुआ। और शादी हो गयी।
भोज खाने भी बहुत सारे लोग जुटे थे। उनमें सबसे ज्यादा बच्चों की संख्या थी। ऐसे बच्चे जिनके लिये रोज, हर हफ्ता या महीनों बाद ऐसा खाना नसीब होता है। जाहिर सी बात है वो खुश थे। उनमें ज्यादातर स्कूल जाते हैं। स्कूल में दोपहर का भोजन मिलता है, इसलिए भी शायद। ज्यादातर बच्चे पांचवी तक पढ़ कर परिवार के लिये रोजी-रोटी कमाने में लग जाते हैं। अब कुछ दसवीं तक जाने लगे हैं, भले कारण सरकारी साईकिल योजना और स्कॉलरशिप हो। उन बच्चों को देखकर ख्याल आता है कि हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा बेहतरीन मानव-संसाधन बनने से वंचित हो जाता है। इनमें संभावनाएँ हैं। असीम संभावनाएँ। इनमें कई विज्ञान पर महारत हासिल कर सकते थे, कई बेहतरीन इंजीनियर बन सकते थे, कई खूबसूरत कविताएँ-कहानी लिख सकते थे, कई इतिहास रच सकते थे, कई इतिहास पर फुटनोट्स लिख सकते थे, किसी को भूगोल अच्छा लगता, किसी को बेहतरीन पेंटिंग करना पसंद होता, किसी को संगीत में मजा आता- ये सब हो सकता था। लेकिन हकीकत है यह सब नहीं हो पा रहा है। हम अपनी ही संभावनाओं को मार रहे हैं। हम देश की हजारों-लाखों-करोड़ों संभावनाओं को मार रहे हैं।
आज एक संभावनाओं से भरी लड़की, जो अपने परिवार में पहली बार मैट्रिक तक पहुंच पायी थी- वो मरी है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि उसकी शादी की खुशी में भोज खाने आया हूं, या फिर इक उम्मीद से भरी संभावना की हत्या के जश्न में शामिल होने।
कई बार लगता है- मैं क्या कर रहा हूं? क्या मुझ में इतनी ताकत है कि मैं एक आरामतलब शहरी जिन्दगी, एक कथित बेहतरीन नौकरी, एक एलिट एक्टिविज्म को छोड़ अपने लोगों के लिये कुछ काम कर सकूंगा। दुनिया भर की चिन्ताओं में शामिल होता हूं, छत्तीसगढ़ से लेकर फिलिस्तीन तक हो रहे गलत पर बोलता ही रहता हूं। लेकिन ये लोग, ये गाँव जो मेरे अपने हैं, मेरी अपनी जमीन, उनके लिये कभी कुछ नहीं कर पाया। क्या ये संभव है कि सबकुछ छोड़ वापिस लौट जाया जाये। जहां से एक बेहद कठिन यात्रा शुरू की थी, वहां फिर से वापिस हो जाया जाये। जानता हूं मीलों आगे निकल आया हूं। इस चलने में बहुत कुछ झेला-सहा है और अब कंफर्टजोन में बैठकर, करियर की चिन्ता करते हुए, सारे शहरी-बौद्धिक तिकड़म करते हुए जीवन जी रहा हूं। एक बेहतरीन कैफे में कैपिचिनो कॉफी पीता हूं, मिलान कुन्देरा की मंहगी अंग्रेजी किताबें खरीदता हूं, खूब सारे कपड़े खरीदता हूं, जहां मन हुआ घुमने जाता हूं, हवाई यात्राएँ करता हूं, ट्रैवल, लॉन्ग ड्राइव, डांस बार, लैपटॉप, मंहगे स्मार्टफोन, रिपोर्टिंग, ग्रासरुट, फील्ड नोट्स, पहाड़, जंगल, नदी, रोमांटिसिज्म, सोशल मीडिया सब करता हूं। लेकिन यह सब कितने अपने हैं? या सिर्फ एक अजनबी शब्द भर, जिसे हर रोज ओढ़ने की कोशिश करता हूं। जबरदस्ती की थोपी एक जिन्दगी।
बहुत मन है- लौटने का। मन है। लेकिन शायद साहस नहीं। और बिना साहस संभावनाओं को बचाना मुश्किल है। जानता हूं।

Monday, April 11, 2016

मौतों का हेडलाइन

केरल में सौ से ज्यादा लोग मारे गए। आज के सभी अखबारों की हेडिंग बना दी गयी। घरों में बैठे लोग आह-ओह-उफ करते हुए इस खबर को पढ़ भूल भी जायेंगे। हमारी संवेदनशीलता बहुत सिकुड़ गयी है। हमारा दूसरों के लिये दुख बहुत सिकुड़ गया है। यह अब तभी जागता है जब कोई मौत-घटना अखबार की हेडलाइन बनती है। कितने लोग मारे गए, 50, 100, 200 या 300 सौ। कोई फर्क नहीं पड़ता। यह मौत सिर्फ एक नंबर है, एक संख्या, इसमें जितनी चाहो आप बढ़ाते-घटाते रहो। हम अपने-अपने आरामदायक कुर्सियों पर बैठे-बैठे इन मौतों पर अफसोस भर जाहिर कर देंगे। बहुत हुआ तो एक-दो ट्टविट या फेसबुक पोस्ट कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेंगे।
मौतों की बड़ी-बड़ी संख्या अब रोजमर्रे की बात है। हमें इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मौत के अगले दिन अखबार में खबर बनती है। हम दुख जताते हैं। फिर अगले दो-चार दिन स्टोरी की फॉलोअप की जाती है। हम जिज्ञासवाश उसे पढ़ते हैं, दुख नहीं जताते। कुछ नेताओं के दौरे होते हैं, कुछ लाख रुपये मुआवजे की घोषणा होती है, चुनावी रणनीति के हिसाब से बयान दिये जाते हैं, एक-दूसरे पर आरोप लगाया जाता है और फिर सबकुछ वक्त के साथ खत्म हो जाता है। इस बीच वे मौतें हमारे जेहन से गायब हो जाती हैं। फिर इसी तरह किसी और दुर्घटना का हम इंतजार करते हैं और फिर यही सर्कल दुहराता रहता है।
हमने मौतों को संख्या के हिसाब से देखना शुरू कर दिया है। हमें बहुत फर्क नहीं पड़ता। हम इन मौतों पर किसी से सवाल नहीं पूछते। हम उन संगठनों, उन राजनीतिक दलों, सरकारों से कोई सवाल नही पूछते, जिनकी जिम्मेवारी होती है कि वो ऐसी घटनाओं को रोके। ऐसी घटनाओं के घटने से पहले इनपर रोक लगाने की व्यवस्था करे। हम किसी से कोई सवाल नहीं पूछते। हमारे कई नेता, ठेकेदार मानते हैं कि यह सब भगवान का प्रकोप है। हम आप भी यही समझ लेते हैं। कलियुग में भगवान इस धरती का विनाश करना चाहते हैं। अपनी, सरकार की, व्यवस्था की सारी जिम्मेवारी हम उस कथित भगवान पर डाल निश्चिंत हो जाते हैं।
हम अपने रोज की जिन्दगी में इतने मश्गूल होते जा रहे समाज का हिस्सा हैं, जो भयानक रूप से व्यक्तिवादी हो चला है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि ऐसे ही किसी मंदिर में हुए आतिशबाजी की वजह से, किसी फ्लाईओवर के टूटने की वजह से हमें अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। हम भी इस अव्यवस्था के शिकार हो सकते हैं। हमारा भी कोई अपना किसी धमाके की वजह से अपनी जान गंवा सकता है। यह सोचने का वक्त है, क्यों आतिशाबाजी करवाने मंदिर प्रशासन के पक्ष में खड़े हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वो किसी एक खास धर्म का मामला है। क्या धर्म की आड़ में इतने सारे लोगों की हत्याओं को छिपाया जा सकता है? क्या इन हत्याओं को किसी भी मायने में आंतकी हमलों में मारे गए लोगों से कम माना जा सकता है? क्या इस घटना को बेगूनाहों का कत्लेआम क्यों नहीं माना जाना चाहिए? क्यों नहीं हम दोषियों पर कार्रवाई के लिये सड़क पर उतरे? क्यों नहीं इस घटना के लिये किसी की जिम्मेवारी तय की जा रही है?
क्या सैकड़ों लोगों की मौत से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या हम उस दिन का इंतजार करते हुए अपने-अपने घरों में अंसवेदनशील होकर बैठे रहेंगे जब हम भी ऐसे ही किसी मानवीय गलतियों की वजह से धमाके का शिकार हो मारे जायेंगे?
मुझे अपने लिये डर लगने लगा है। मैं ऐसी मौत नहीं मरना चाहता, जिसके लिये किसी की जिम्मेवारी तय नहीं की जाये- एक ऐसी मौत जो हुई तो आदमी की भयानक गलतियों-लापरवाहियों से लेकिन उसे भगवान का प्रकोप कह भूला दिया जाय।



Wednesday, April 6, 2016

Souncloud pe testing

सोशल मीडिया खा जायेगा एकदिन हमें

तबीयत ठीक नहीं है। कल से बुखार है। आज सुबह उठा तो पता नहीं क्या सूझा- सोशल मीडिया पर अपडेट कर दिया। अचानक से लोगों के कमेंट आने शुरू हो गये। गेट वेल सून। लगा क्या है ये….भाई ने पोस्ट को लाइक किया, फोन नहीं किया। इसी तरह दो-तीन लोगों ने सीधा फोन कर दिया। अजीब लगा।
दरअसल हम बहुत जल्दी में रहते हैं। सोशल मीडिया को जिन्दगी का इतना बड़ा हिस्सा बना लिया है कि जिन्दगी ही कम पड़ने लगी है। सुबह उठो फेसबुक चेक करो, कभी फेसबुक से चटो तो ट्विटर है, इन्सटाग्राम है, टंबलर है। मतलब आपको घेरने की पूरी तैयारी है। आप इन्टरनेट से बचकर कहीं जा नहीं सकते। आपको टंबलर से उतारा जायेगा तो आप व्हॉट्सअप पर आ जायेंगे। लेकिन बने रहेंगे।
बहस करेंगे. ये गलत है, वो गलत है- लिखेंगे। यहां खाना खाया, यहां अमुुक दोस्त से इतने सालों बाद मिला, ये सब अपडेट करते चलेंगे। किसी पार्क में बैठने गए तो बहुत सारी तस्वीरें उतार लेंगे। बैठेंगे कम उचक-उचक तस्वीरें ज्यादा उतारेंगे। फूल खिले हैं, उनकी मुलामियत को फील नहीं करेंगे, उसे कैमरे के डब्बे में कैद करने की कोशिश करेंगे। पत्तियों की खूशबू कितने दिन पहले महसूस हुआ था, याद नहीं है।
कई बार लगता है हम एक मैनुफैक्चर दौर में रह रहे हैं। हमारे पास दूसरे के बने-बनाये ओपिनियन हैं। हम उसे इस्तेमाल कर रहे हैं, या फिर हो सकता है हमारा इस्तेमाल किया जा रहा है किसी एजेंडे के तहत। हमारे पास अपना कुछ नहीं है। कुछ हो जब पढ़ा जाये, यहां तो किताब खोल कर बैठो तो उसकी तस्वीर पहले इंस्टग्राम पर चढ़ती है।
याद आता है स्कूल के दिनों में हम पढ़ने के लिये पहले माहौल बनाते थे। टेबल-कुर्सी को छाड़-पोंछ किया जाता था, टेबल पर घड़ी लगायी जाती थी, कलम सजायी जाती थी, दो-चार-पाँच किताब टेबल पर रेफरेंस के लिये रखा जाता था, पानी का बोतल, कुछ खाने-पीने का सामान यह सब जुटा कर टेबल पर पढ़ने बैठा जाता था। लेकिन ये सब जुटाने में ही ज्यादा समय चला जाता था, पढ़ता कम ही था। आजकल यही इस सोशल मीडिया ने कर दिया है। पहले किताब को आर्टिस्टिक तरीके से रखकर फोटो खिंची जायेगी, फिर अपलोड कर लाइक-कमेंट देखे जाते रहेंगे। बीच-बीच में एकाध पंक्तियां पढ़ भी ली तो उसे जल्दी से फेसबुक पर भी पहुंचा दिया जायेगा। लेकिन पढ़ा न जी न। बिल्कुल नहीं।
अगर आपका कोई एजेंडा नहीं है तो शायद सोशल मीडिया सही जगह नहीं- अब लगने लगा है। सोशल मीडिया ने बीमार भी बनाया है। एडिक्टेड। कोई गाली दे रहा है, कोई नफरत फैलाने वाला मेसेज फॉरवर्ड कर रहा है, कोई घृणा से भरे विडियो साझा कर रहा है। एक अजीब तरह की दुनिया बना दी गयी है- जहां प्रेम रेयर है, जहां आदमी होने की बेसिक तमीज रेयर है, जहां आपको इन्सान नहीं बनने दिया जा रहा है, जहां आप हमेशा शक के घेरे में हैं। आप संदिग्ध बना दिये गए हैं।
I am sick of this Social media and dont know how to get rid of this.

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...