गाँव में हूं। एक शादी से लौटा हूं। एक पन्द्रह साल
की लड़की की शादी थी। अभी-अभी मैट्रिक बोर्ड दिया था। शायद वह अपने परिवार की पहली
पीढ़ी होगी, जिसने बोर्ड दिया होगा। उसके पिता एक मजदूर हैं। यही कोई तीन-चार हजार
हर महीने कमाने वाला। बेटी की शादी में कर्ज लिया है। यही कोई पचास-साठ हजार।
कायदे से देखो तो वह यह कर्ज शायद आने वाले पाँच सालों में चुका पायेगा। शादी में
गाँव के बहुत सारे लोग जुटे थे। वो क्या कहते हैं, समाज। हां वही, समाज। पूरा समाज
मौजूद था। पूरे समाज ने कर्ज वाले पैसे से मुर्गा-चावल जमकर खाया। खूब भोज हुआ। और
शादी हो गयी।
भोज खाने भी बहुत सारे लोग जुटे थे। उनमें सबसे
ज्यादा बच्चों की संख्या थी। ऐसे बच्चे जिनके लिये रोज, हर हफ्ता या महीनों बाद ऐसा
खाना नसीब होता है। जाहिर सी बात है वो खुश थे। उनमें ज्यादातर स्कूल जाते हैं।
स्कूल में दोपहर का भोजन मिलता है, इसलिए भी शायद। ज्यादातर बच्चे पांचवी तक पढ़
कर परिवार के लिये रोजी-रोटी कमाने में लग जाते हैं। अब कुछ दसवीं तक जाने लगे
हैं, भले कारण सरकारी साईकिल योजना और स्कॉलरशिप हो। उन बच्चों को देखकर ख्याल आता
है कि हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा बेहतरीन मानव-संसाधन बनने से वंचित हो जाता है।
इनमें संभावनाएँ हैं। असीम संभावनाएँ। इनमें कई विज्ञान पर महारत हासिल कर सकते
थे, कई बेहतरीन इंजीनियर बन सकते थे, कई खूबसूरत कविताएँ-कहानी लिख सकते थे, कई इतिहास
रच सकते थे, कई इतिहास पर फुटनोट्स लिख सकते थे, किसी को भूगोल अच्छा लगता, किसी
को बेहतरीन पेंटिंग करना पसंद होता, किसी को संगीत में मजा आता- ये सब हो सकता था।
लेकिन हकीकत है यह सब नहीं हो पा रहा है। हम अपनी ही संभावनाओं को मार रहे हैं। हम
देश की हजारों-लाखों-करोड़ों संभावनाओं को मार रहे हैं।
आज एक संभावनाओं से भरी लड़की, जो अपने परिवार में
पहली बार मैट्रिक तक पहुंच पायी थी- वो मरी है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि उसकी
शादी की खुशी में भोज खाने आया हूं, या फिर इक उम्मीद से भरी संभावना की हत्या के
जश्न में शामिल होने।
कई बार लगता है- मैं क्या कर रहा हूं? क्या मुझ में इतनी ताकत है कि मैं
एक आरामतलब शहरी जिन्दगी, एक कथित बेहतरीन नौकरी, एक एलिट एक्टिविज्म को छोड़ अपने
लोगों के लिये कुछ काम कर सकूंगा। दुनिया भर की चिन्ताओं में शामिल होता हूं,
छत्तीसगढ़ से लेकर फिलिस्तीन तक हो रहे गलत पर बोलता ही रहता हूं। लेकिन ये लोग,
ये गाँव जो मेरे अपने हैं, मेरी अपनी जमीन, उनके लिये कभी कुछ नहीं कर पाया। क्या
ये संभव है कि सबकुछ छोड़ वापिस लौट जाया जाये। जहां से एक बेहद कठिन यात्रा शुरू
की थी, वहां फिर से वापिस हो जाया जाये। जानता हूं मीलों आगे निकल आया हूं। इस
चलने में बहुत कुछ झेला-सहा है और अब कंफर्टजोन में बैठकर, करियर की चिन्ता करते
हुए, सारे शहरी-बौद्धिक तिकड़म करते हुए जीवन जी रहा हूं। एक बेहतरीन कैफे में
कैपिचिनो कॉफी पीता हूं, मिलान कुन्देरा की मंहगी अंग्रेजी किताबें खरीदता हूं,
खूब सारे कपड़े खरीदता हूं, जहां मन हुआ घुमने जाता हूं, हवाई यात्राएँ करता हूं,
ट्रैवल, लॉन्ग ड्राइव, डांस बार, लैपटॉप, मंहगे स्मार्टफोन, रिपोर्टिंग, ग्रासरुट, फील्ड नोट्स, पहाड़, जंगल,
नदी, रोमांटिसिज्म, सोशल मीडिया सब करता हूं। लेकिन यह सब कितने अपने हैं? या सिर्फ एक अजनबी शब्द भर, जिसे
हर रोज ओढ़ने की कोशिश करता हूं। जबरदस्ती की थोपी एक जिन्दगी।
बहुत मन है- लौटने का। मन है। लेकिन शायद साहस नहीं।
और बिना साहस संभावनाओं को बचाना मुश्किल है। जानता हूं।
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