Wednesday, April 30, 2014

तुम्हारी दोस्ती पर खर्च कुछ शब्द


 न हर रोज के  फोन, न ऑफिस से लेकर निजी जिन्दगी में होने वाली घटनाओं का
ब्यौरा और न ही मिलने और बात करने का वैसा कुछ इंतजार।
वैसा कुछ भी नहीं है जो हमदोनों को दोस्ती के सामान्य परिभाषा में फिट
करता हो। हां, उसका लिखा मुझे अच्छा लगता है। अपना लिखा उसको पढ़वाना
चाहता हूं। जानते हुए कि वो अच्छा बोलेगी बजाय इसके कि ईमानदार फीडबैक
दे। फिर भी एक अजीब सा भरोसा है लगता है उसने अच्छा बोल दिया तो फिर
बांकि दुनिया भले खराब बोले ये अच्छा ही होगा। अच्छी तस्वीर, अच्छे शब्द।

हां, इत्ता जरुर है कि जब पूरी दुनिया मेरे खिलाफ खड़ी हो, वो चुपके से
मेरे बगल में आ खड़ी होती है। बिना हल्ला किए, शोर मचाये वो साथ होती है।
उस समय भी जब कथित बेस्ट फ्रैंड हँसी उड़ा रहा होता है और उस समय भी जब
लोगों की बातों से मैं निराश अपनी उड़ान कम करना चाहता हूं।

कभी-कभी जब हमारी बात होती है तो बस बातें होती है। पता नहीं क्या-क्या
बातें करता हूं। मन के गांठ खुलते हैं।

जब हम मिलते हैं तो बस मिलते हैं। उस समय हमारे आसपास  सिर्फ हमारी
मुलाकात होती है। न जाने किस इशारे में, किसके लिए, किस को इमेजिन कर-कर
के हम बतियाते रहते हैं।

हमदोनों एक-दूसरे के प्रायवेट स्पेस को बचाये रखना चाहते हैं। कई बार
लगता है उस स्पेस को बचाये रखने की वजह से कुछ छूट रहा है, कुछ है जो
नहीं कहा जा रहा है, कुछ है जो शायद कह दे तो बोझ हल्का हो जाये...
वो कई बार कुछ ऐसा लिखती है जिसपर ‘अच्छा लिखा है’ नहीं कह पाता। बस, उस
लिखे की प्रक्रिया को समझना चाहता हूं, उन बेनींद बीती रातों को समझना
चाहता हूं जब वो लिखा गया, उन हदों को समझना चाहता हूं जहां बिना लिखे
इमोशन स्थूल हो जाते हैं.....लेकिन उसके रहस्य को छूना नहीं चाहता इसलिए
समझने की कोशिश नहीं करता, बस चाह कर रह जाता हूं।

बावजूद इसके इक भरोसा है। जब बोझ बढ़ेगा तो हम एकदूसरे के कंधे पर डाल
आगे बढ़ेंगे....
बिना थोपे पैदा हुआ विश्वास है, बिना बोले महसूस किया गया अपनत्व है...

Monday, April 28, 2014

इमोशनल होना

इमोशनल होता हूं तो लिखता हूं। रोता हूं। लेकिन बोल नहीं पाता।

आज सुनील भाई की याद में आयोजित एक श्रद्धांजलि सभा में कुछ ऐसा ही हुआ।

Friday, April 25, 2014

कितना बेकार है न लिखना !!!

लिखने-पढ़ने का काम खुद को खुश करने का जरीया है-  बस। एक रिपोर्ट लिखकर मन कितना संतुष्ट होता है।
लेकिन इससे कुछ नहीं बदलता....कुछ भी नहीं। न तो उनके लिए जिसके बारे में लिखो और न दुनिया के लिए जो उसको पढ़ते हैं। बस, लिखिये, खुश होईये और भूल जाईये।
इससे बेहतर था कि डॉक्टर बन जाता, वकील बन जाता या फिर किसी स्कूल में टीचर ही सही। लिखने से ज्यादा बेहतर तो था न डॉक्टर बनकर रामाधार साकेत के बेटे की जान बचा लेता, वकील बन  उस आदिवासी गणेश खैरवार की जमीन का मुकदमा लड़ लेता जिसकी जमीन ठाकुरों ने सालों पहले कब्जा कर लिया है और अब गणेशी जी वकील-दर-वकील, कोर्ट-दर-कोर्ट भटक रहे हैं।

पता नहीं कब पत्रकार बनने का ठान लिया था। शायद होश संभालने के बाद ही। लगता था खूब लिखूंगा, लोगों के साथ हो रहे अन्याय पर, समाज के हाशिये पर ढकेल दिए गए लोगों के लिए- खूब लिखूंगा।

आज, सबकुछ बेकार लग रहा है। सारा लिखा-पढ़ा कचरे का एक विशाल ढ़ेर। उससे ज्यादा कुछ नहीं।
आह L अब तो लिखा भी नहीं जा रहा.....

फीलिंग- निरर्थक, बेकार, डिप्रेसन L

Thursday, April 24, 2014

मोदी डराता है, सेकुलर डर दिखाता है



टीवी पर हर इलेक्शन डेट से पहले नरेन्द्र मोदी नजर आने लगे हैं। वही मोदी जिनपर बीच इंटरव्यू को छोड़ कर जाने का आरोप लगता रहा है। जिनके बारे में कहा जाता था कि वो भीड़ में भले बोल लें लेकिन इंटरव्यू में नहीं बोल सकते।

शायद मोदी पीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए अब लगातार टीवी पर नजर आते हैं। बिना डरे, बिना झिझके हर सवाल का हंसते हुए जवाब देते।

अलबत्ता। अब पक्षकार सॉरी पत्रकार ही डरे-डरे से नजर आने लगे हैं। एकदम संकोच से सवाल पूछते, कहीं बुरा न मान जाये के भाव से ओतप्रोत। इंडिया टीवी, एएनआई, जीन्यूज या फिर एबीपी। हर शो में पत्रकारों को संकोच करते हुए मोदी से सवाल करते देख रहा हूं।

ये सिर्फ मोदी के उन हजारों करोड़ रुपये का कमाल है जो मोदी ने पीआर एजेंसी को दिया है। जो पीआर एजेंसी हर दूसरे दिन मोदी का पेड इंटरव्यू करवाने का इंतजाम करवा रही है या फिर उससे आगे कुछ और बात है।

कहीं देश का तथाकथित चौथा खंभा मोदी से डरा तो नहीं है। हल्की सी सख्त सवाल पर मोदी का लाल चेहरा कहीं मीडिया को डराने के लिए तो नहीं बनाया जाता है। अगर ऐसा न होता तो मोदी से चुनावों में खर्च किए गए विज्ञापनों का हिसाब लिया जाता, गुजरात दंगों पर लीपापोती वाले सवाल पूछे जाते हैं, उनके विकास के कॉर्पोरेटी मॉडल पर सवाल नहीं उठाया जाता। ये सब सवाल गौण कर दिए गए हैं।

कुछ सवाल सेकुलरों से

देश की आजादी के छह दशक बाद भी अगर मुसलमान सिर्फ और सिर्फ अपनी सुरक्षा के डर के आधार पर वोट दे रहे हैं तो यह क्यूं न माना जाय कि देश की सेकुलर पार्टियों ने सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को वोट बैंक बने रहने दिया है। इसी गणित से सेकुलर और बीजेपी दोनों पार्टियों को फायदा पहुंचता आया है। इसलिए कोई सच्चर कमिटि की बात नहीं करता, मोदी का डर दिखाता है। मुसलमानों के विकास की बात नहीं होती, उन्हें दंगा मुक्त भारत के सब्जबाग दिखा कर ही खुश कर दिया जाता है।


मोदी डराता है, सेकुलर डरे रहने को मजबूर करता है। और जनता बेहतर विकल्प न होने पर कभी हिन्दु बनकर बीजेपी को तो कभी मुस्लिम बनकर कांग्रेस में वोट डाल आते है।

Tuesday, April 22, 2014

सुनील भाई का चले जाना


स्तब्ध हूं। हमसब। हमारी पूरी टीम। महान संघर्ष समिति के कार्यकर्ता। सभी। सुनील भाई नहीं रहे। महान की लड़ाई को सिंगरौली से लेकर भोपाल तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा करने वाले सुनील भाई। महान संघर्ष समिति को लेकर उनकी चिंताओं, उनके सुझावों की जरुरत आज भी है लेकिन वो नहीं हैं। हमारे बीच से उठकर चल दिए। बिना कहे।

पिछले कुछ दिनों से एम्स में भर्ती थे। रात 11.30 बजे उनके निधन की खबर मिली। उसी समय मन आसूँओं से भींग गया। कुछेक लोगों को खबर करके बैठा तो बहुत कुछ सोचने लगा। मन हुआ कुछ लिखूं । लेकिन वो भी नहीं लिखा पाया।

अभी जब उनके चले जाने को कुछ घंटा बीत चुका है। और जब  मैं यह लिख रहा हूं तो उसी समय दिल्ली में उनका शरीर भी हमसे विदा हो रहा होगा।

लेकिन सुनील भाई जैसे लोग क्या सच में इस दुनिया से चले जाते होंगे ? क्या उनके शरीर के जाने भर से वो प्रेरणा चली जायेगी जो उनके केसला में संघर्ष से पैदा हुआ है, या फिर वो ऊर्जा खत्म हो जायेगी जिसने उन्हें जेएनयू जैसे संभ्रांत विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद भी किसी सरकारी नौकरी में जाने की बजाय केसला में आदिवासियों की लड़ाई के लिए प्रेरित किया होगा।

नहीं।

सुनील भाई जैसे लोग सिर्फ एक शरीर थोड़े न हैं कि जिसके चले जाने से सुनील भाई का अस्तित्व भी चला जायेगा। आज अगर सिंगरौली से लेकर केसला तक, भोपाल से लेकर दिल्ली तक आदिवासियों और हाशिये पर खड़े लोगों की आँखों में आँसू है तो सुनील भाई उन्हीं आँसूओं में कहीं जरुर बैठे हैं।

सुनील भाई जेएनयू में अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। जेएनयू का यह वह जमाना था जहां से हरेक पढ़ने वाला छात्र या तो सीविल सेवाओं में या फिर बड़े यूनिवर्सिटि में प्रोफेसर बनता था।
अभी तक के जेएनयू की तरह ही उस समय भी वहां कई ऐसे युवा थे जिनके सपनों से लेकर बहसों तक में हाशिये के लोग हुआ करते थे। लेकिन कैंपस के बाद बहस छूट जाता और सपने बदल जाते थे।

लेकिन सुनील भाई ने कैंपस की समतल धरती से निकल मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों को अपना कार्य  क्षेत्र बनाया। विस्थापितों की लड़ाई लड़ी। किशन पटनायक को अपना आदर्श मानते हुए सामायिक वार्ता जैसी पत्रिकाओं का संपादन करते हुए जनसरोकारी पत्रकारिता को जारी रखने का जोखिम उठाया।

सुनील भाई ने वह सब किया जिसका हम जैसे तमाम नौजवान कैंपस में रहते हुए सपने  देखा करते हैं। और कैंपस से निकल भूल जाया करते हैं।

सुनील भाई से पहली मुलाकात पिछले साल ही अगस्त में हुई। सिंगरौली में महान संघर्ष समिति की तरफ से आयोजित वनाधिकार सम्मेलन में आए हुए थे। दो दिन तक उनके साथ रहा था। कई मुद्दों पर बात हुई थी। अभी पिछले महीने सामायिक वार्ता में एक लेख के लिए काफी देर तक बात हुई थी। बहुत समझाये थे। कैसे करना है...क्या करना है...किस दिशा में आगे बढ़ा जाय।


उनसे सीखने का सिलसिला अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था कि बीच में ही टूट गया। उनकी आवाज की सौम्यता, समझाने का सहज तरीका, जीने का सादा ढंग। कितना कुछ है जो प्रभावित करता है।

जानता हूं। सुनील भाई चले गए हैं। लेकिन इसके बावजूद उनका जीवन, संघर्ष, सौम्यता, सहजता, सपने, ऊर्जा हमारे बीच रह गया है।

लगता है अभी सुनील भाई अपने गर्दन पर लटकते चश्मे को आँख में लगायेंगे और चश्मे के भीतर से झांकते हुए कहेंगे- बचा कर रखना। कुछ सपने, असीम ऊर्जा, संघर्ष का साहस। जिन्दाबाद।





(सुनील भाई समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय महामंत्री थे। साथ ही सामायिक वार्ता के संपादक भी।)

(दोस्त इकबाल अभिमन्यू से दिल्ली आने के एकाध महीने बाद ही संयोगवश मुलाकात हुई थी। करीब तीन साल पहले। उसकी बातों ने काफी प्रभावित किया था। फिर कुछेक मुलाकात और लगातार बातचीत होती रही। पिछले साल ही पता चला कि वो सुनील भाई के बेटे हैं। फिर इकबाल का कहा याद आया- जेएनयू से निकल मध्यप्रदेश के गांवों में ही जाने का इरादा है। उनके दुख को समझना मुश्किल है, हिम्मत नहीं हो रही उनको फोन भी करने की। इस मुसीबत के वक्त हजारों लोग उनके साथ खड़े हैं, शायद यही बात उन्हें ताकत दे)

Monday, April 21, 2014

shades of love

प्यार के गहन क्षण में ही इतना लाड़ आता है कि आप किसी की कान खींच उसे वापस घर की तरफ ले चलते हो...बिल्कूल माँ की तरह
उपर की तस्वीर में माँ का गुस्सा और यहां माँ सा लाड़ देता एक बच्चा









ये दोनों तस्वीरें महान जंगल की है। महान वही जंगल है जहां कोयला खदान का आना सरकार ने तय कर दिया है।

दो अलग-अगल गांव। दो अलग-अलग तस्वीर। बस, इतना जतलाना चाह रहा हूं कि प्यार के जिस रंग में इस जंगल का बच्चा-बच्चा जन्म के साथ डूब चुका है उस प्यार को कोयला खदान के नाम पर खत्म करने की साजिश का विरोध तो करना ही पड़ेगा। उम्मीद है इनका प्यार और गहरा हो..जिंदाबाद



तालीमंत्र से चलता भीड़तंत्र

भीड़ में कुछ हाथ हैं। यही कुछ हाथ एक ताली उछालते हैं। और भीड़ पीछे-पीछे ताली पीटना शुरू कर देती है।

भीड़ को हांकने वाले इस तालीमंत्र को समझ चुके हैं..............वे इस चुनाव से उस चुनाव बस अब इस तालीमंत्र के फॉर्मूले को मॉडिफाई करते चलते हैं ..और हम सब उसके भीड़तंत्र में शामिल होते चलते हैं।

मदर इंडिया





कब आपका अतीत कौन सा भेष में चला आता है, कुछ कह नहीं सकते।

आज अचानक टीवी पर मदर इंडिया का ये सीन आ गया, मैं अपने बचपन में चल गया।

थोड़ी सी उदासी और थोड़ी सी उम्मीद के बीच। लगा कि मेरी जिन्दगी की पटकथा मेरे जन्म से पहले ही लिख दी गयी थी।

:(



Wednesday, April 16, 2014

खुद से बात #2

कभी-कभी किसी खास दोस्त का फोन आ जाता है। दोस्त, जिससे हर रोज बात न हो, फिर भी जो मुझ पर विश्वास करे।

उसके सामने मन की वो बात भी शेयर हो जाती है, जिसका खुद भी पता नहीं होता।

कभी-कभी ऐसे दोस्तों के सामने रोया भी जाता है।

रोने के बाद अच्छा भी लगता है। सच में। रो कर देखना। ईमानदार आसूँ का निकलना आदमी बनाये रखने का जरिया भी हो सकता है। सच में।

Tuesday, April 15, 2014

पहाड़ में जिन्दगी

सनसेट प्वाइंट


हिमाचल प्रदेश। मैकलॉडगंज। पहाड़। जिन्दगी। शाम को ढ़लता सूरज। कुछ बुद्ध के अनुयायी लामा। 

एक रात ढ़लते सूरज को देखा तो दूसरे सुबह खुलते बाजार, स्कूल जाते बच्चे, नल के पास पानी का इंतजार करता लड़का, एक पुरानी दुकान।

डिस्कलेमरः अच्छी तस्वीरों का क्रेडिट मुझे और बुरी तस्वीरों का मेरे कैमरे को :P

दूर इक हिमालय खड़ा है

पत्थर पूजे हरि मिले

सच बताउं तो कर्मकांड के विरोध में बने बौद्ध धर्म में भी कई कर्मकांड घुस गए हैं

एक आध्यात्मिक सनसेट

न जाने किससे छिपके भाग रहा है सूरज
 
शिवा कैफे। हिप्पी। गांजा, मार्ले और मेरे लिए ब्लैक टी





अंग्रेजी शहर सा फील दे रहा था हिल स्टेशन

फोटो क्रेडिटः वॉचमैन होटल। जिसे मैंने पांच बजे सुबह ही जगा दिया। थैंक्स दोस्त

शाम को शहर मैकलोडगंज
तिब्बती विद्रोह और लोगों के आजाद होने की चाह हर दीवार पर

चाइना वालोंः फ्री तिब्बत प्लीज

हर देश अपने साथ-साथ कल्चर को भी लेते चलने की कोशिश तो कर ही सकता है। विस्थापन के बावजूद

सुबह के 7 बजे दुकानों को खोलने की तैयारी


एक गली

दो किलोमीटर की चढ़ाई के बाद कुछ ऐसा दिखा था

लड़का पानी के इंतजार में। दरअसल पाइप लाइन का लिकेज है जहां से हर सुबह पानी गुजरता है





1860, कैन यू इमेजिन। वाउ। दुकान के भीतर डेढ़ सौ साल के भीतर आए जितने एड हैं, सबके पोस्टर मिले। 555 सिगरेट का भी।

आसमान के कैनवास पर सूरज पेंट करता है

सुफेद चादर है या कोई कैनवास। ये आसमान बड़ा रंग बदलता है।

 क्लिक क्रेडिट- अविनाश चंचल।


दूर पहाड़ों के पीछे आसमान में सन राइज

इस ओर से उस ओर तक देखो तो कैसे सूरज फुटबॉल खेलता है

ऐसा लगता है जैसे आकाश में समुद्र का पानी हिलोर रहा हो

सारी तस्वीरें हिमाचल प्रदेश की हैं

बर्फ की चादर लपेटे भोर के उजास में आकश किसको ताकता है

आसमान सबको मिलता है अपने-अपने हिस्से का

जो पा सको तो पा लो अपने हिस्से का आकाश

अठखेलियां

विहंगम-सा कुछ 



Hate Facebook

ट्विटर से उठा के लाया हूं

Sunday, April 13, 2014

तुम्हे जो न कह सका माँ



माँ के पास पहुंच कर



बॉलकोनी में बैठा हुआ हूं। चांद दिख रहा है। रात के यही कोई दस बजे हैं। अकेला हूं। कोई नहीं है। पिछले एक साल से। बिल्कूल अकेला।


खूब घूमता हूं, खूब दुनिया देखता हूं, खूब खिलखिलाता हूं लेकिन अकेला हूं। अकेले ही ये सब करता चलता हूं। अपने इस निंतात अकेलेपन में ही माँ के अकेलेपन को फील कर पा रहा हूं।


पिछले पन्द्रह साल से वो अकेली है। एक घर है। एक पलंग है और मेरी माँ है जो हर रात उस पलंग पर अपने अकेलेपन को महसूस करते हुए सोती है और हर सुबह चार बजे कुछ गीतों को गाते हुए उठती है। माँ गीतों में अपने अकेलेपन को खोजती है, शायद इसलिए मैं वैसे ही कुछ शब्दों में अकेलेपन को टटोलने की कोशिश करता हूं।


माँ अच्छा गाती है, माँ के गानों में भक्ति और क्रांति दोनों हैं। मेरे पास न तो भक्ति है और न सच्ची क्रांति। शायद इसलिए माँ को खूबसूरत गाने मिल जाते हैं, मुझे शब्द नहीं मिलते।


जब शब्द नहीं मिलते तो मैं माँ को याद करता हूं। इतनी रात जब माँ सो रही होगी तो मैं फोन भी नहीं करना चाहता। जानता हूं उसके अकेलेपन को दूर नहीं कर सकता इसलिए उसकी नींद को खराब नहीं करना चाहता। वो याद आ रही है। बेतहाशा। बेउम्मीद हुआ जा रहा हूं। माँ के कमरे के उस पलंग पर दुबारा से जाना चाहता हूं, माँ के बगल में चुपचाप सोना चाहता हूं- सारी चिंताओं, बेचैनियों, लोगों से दूर एक बेफ्रिक नींद लेना चाहता हूं। फिर से माँ के गानों से न चाहते हुए भी अपनी सुबह की नींद खराब करना चाहता हूं।


एक दम जनवरी के ठंड में माँ जब अपने पानी से भींगे हाथ को गालों पर लगाकर सुबह उठाना चाहे मैं फिर से नाराज हो ठुनक-ठुनक रोना चाहता हूं। हर रात नींद में ही न चाहते हुए भी माँ के डांटों को सुन गर्म दूध पीना चाहता हूं।


ये सब चाहता हूं। आज। अभी। इससे पहले नहीं चाहता था। जब पटना में था, कॉलेज कैंपस में। या फिर दिल्ली में दोस्तों से घिरे होने पर। जब होली में भी घर नहीं गया था। माँ हमेशा यादों के किसी कोने में बैठी रही लेकिन इतनी शिद्दत से, बेतहाशा बैचेन होकर उन्हें याद नहीं किया।


आज सिंगरौली में हूं। बिल्कूल अकेले। एकाध साथ काम करने वाले अच्छे-प्यारे कलीग हैं लेकिन कोई दोस्त नहीं है। तो माँ को याद कर रहा हूं। उन्हें समझ पा रहा हूं। माँ के तमाम दोस्तों को शुक्रिया कहने का मन कर रहा है। जानता हूं उन सबसे इतना फॉर्मल रिश्ता नहीं कि शुक्रिया कहने की जरुरत हो। फिर भी माँ के सारे दोस्तों को सलाम करने को जी करता है।

 सलाम। मेरी माँ के अकेलेपन को बांटने के लिए। आप सबको मेरी उम्र लगे।


फिलहाल माँ की जरुरत महसूस हो रही है। सबको मुसीबत में पिता याद आते हैं मुझे माँ।

माँ का कहा याद आ रहा है। माँ का भरोसा हमेशा साथ रहता है कि जबतक मन का काम मिले करो, जबरदस्ती और अपने उसूलों से इतर कभी काम मत करना। लौट आना घर। मैं खिलाउंगी बैठा कर। इसी भरोसे चला जा रहा हूं। बिना किसी ठोस रोडमैप के। बिना किसी करियरिस्टिक माइल स्टोन को गेन करने की परवाह किए। उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने में रिस्क है, डर लगता है रिस्क लेने में। लेकिन गीली मिट्टी के रास्तों में मुझे चलना अच्छा लगता है माँ जानती है। इसलिए भरोसा दे रखा है। उसी भरोसे के दम पर मैं कच्चे सड़क पर चलने की कोशिश करने में लगा हूं।


माँ नहीं पढ़ेगी कभी मेरे इस लिखे को। जानता हूं । इसलिए लिख दे रहा हूं।
जब पढ़ेगी तो रोएगी। वैसे ही जैसे जब मैं उससे मिलकर लौटता हूं अपनी बनायी दुनिया में। वो रोती रहती हैं उस पार। हफ्तों। मुझे पता है वो बताती नहीं। इधर मैं भी रो रहा हूं। मैं भी माँ को बताता नहीं।



(शुक्र है माँ-बेटे के बीच अनकहा ही है ज्यादा कुछ। क्योंकि शब्द मुझे मिलते नहीं)

खुद से बात #1

बहुत तेजी से लग रहा कि श्रेष्ठता के अजीब बोध से भर गए लोग हैं हम।
अच्छा लिखना, शब्दों को चुन चुन कर बुनना। अच्छी तस्वीर लेना। ये सब उतना ही सामान्य या असाधारण है जितना आगंन में बैठी माँ का चावल बीनना या फिर घर में बैठी भाभी का चूल्हे पर रोटी सेंकना।

बहुत कुछ है जो इस आत्ममुग्धता से, किसी थोपे या प्रमोट किए गए महानता के उस पार इंतजार में है।

मैं जानता हूं अच्छी नहीं लिख पाता, अपने शब्दों में जादू नहीं भर पाता, दो-चार लोगों की ताली की जरुरत भी नहीं।


लेकिन फिर भी स्ट्रांगली फील करता हूं कि आत्ममुग्धता के फेर में फंसे लोगों के बीच उचक-उचक कर उस पार देखने की कोशिश करता रहता हूं।


लिखने-पढ़ने वालों को अपने काम की साधारणता को स्वीकार करना चाहिए।

श्रेष्ठता का बोध लिये बिना अपने कर्म करते चलिये....खुद को अच्छा लगेगा।

Saturday, April 12, 2014

कि भूख से मरने से बेहतर है कि लड़ कर मरें..




करीब पांच साल पहले जब फुलझरिया अपने बेटे के कैंसर का ईलाज करवा कर जबलपुर से लौटी तो देखा कि उसके घर को तोड़ दिया गया है और उसके सामान को बाहर एक कोने में फेंक दिया गया है। एक तरफ बीमार बेटा तो दूसरी तरफ तोड़ दिया घर। फुलझरिया के उपर मुसीबतों का पहाड़ टूट चुका था, जिसे पांच साल बाद भी हर रोज फुलझरिया झेलने को मजबूर है।



दरअसल, यह किस्सा अकेले किसी फुलझरिया की नहीं है बल्कि 35 दिन से अनशन पर बैठी सैकड़ों दलित-आदिवासी महिलाओं की है जिन्हें एस्सार नाम की कंपनी के पावर प्लांट को स्थापित करने के लिए पांच साल पहले विस्थापित होने पर मजबूर किया गया था। साल 2007 में एस्सार पावर प्लांट को सिंगरौली के बंधौरा गांव में स्थापित किया गया था। कंपनी के आने से क्षेत्र का विकास होगा, विस्थापित परिवार के लोगों को नौकरी मिलेगी, बच्चे स्कूल जायेंगे और बीमार को ईलाज के लिए घर के पास ही अस्पताल की सुविधा होगी- हर तरफ खुशहाली के ये कुछ सपने थे जो पावर प्लांट लगने से पहले इन दलित-आदिवासी आँखों को दिखाये गए थे।



हालांकि सिंगरौली जिले में न तो विकास के ये सपने नये हैं और न यहां के लोगों का इन सपनों के बहाने ठगे जाना। 1962 में बने रिहंद बांध से चलकर ये सपने एनसीएल, एनटीपीसी, रिलायंस के पावर प्लांट और कोयला खदान से होते हुए हिंडाल्को और एस्सार तक पहुंचा है। इस सफर में यहां की जनता के साथ-साथ सिंगरौली भी कभी स्वीजरलैंड तो कभी सिंगापुर बनने का ख्वाब देखती रही और उन ख्वाबों के टूटने, छले जाने के दर्द को सहती रही है। 


मानमति बियार दलित महिला है। मानमति पावर प्लांट लगने से पहले की कहानी को सुनाना चाहती है। जमीन लेते समय हमलोग को बहलाता-फुसलाता रहा। खुद प्रशासन और कंपनी मिलकर समझौता किया था। कंपनी के मनई (आदमी) हर रोज घर पर आकर दुआ-सलाम करता और कहता कि अब हमार दुख दूर भई जाई। धीरे-धीरे मानमति के आँखों में कहानी सुनाते-सुनाते जो चमक आयी थी वो कम और अंत में सख्त होती चली गयी। वादा के मुताबिक न प्लाट न भत्ता कुछ नहीं दिया कंपनी। अब यही शासन और कंपनी कहता है-कुछ नहीं देंगे। बात खत्म करते-करते मानमति की सख्त आँखों में पानी उतर आता है।


अपने 50 डिसिमिल जमीन में बसे लंबे आहाते वाले घर को छोड़कर कंपनी के 60 बाय 90 के दिए गए प्लाट में रहने को मजबूर जागपति देवी उस दिन को याद करती है जब कंपनी ने उसके घर और जमीन को खाली करवाया था। सुबह का वक्त था। चूल्हे पर अभी चावल-दाल चढ़ाया ही था कि कंपनी और प्रशासन के लोग पुलिस वालों के साथ आ गए। हम कहे कि हम नहीं डोलव( जायेंगे) जबतक मुआवजा न देवे। पटवारी कहा- मिलेगा लेकिन अब कोई पुछने भी नहीं आता है




इन विस्थापित परिवारों में ज्यादातर खेती और पशु पालन पर निर्भर रहने वाले लोग ही थे। जमीन से विस्थापन ने इनसे इनकी अर्थव्यवस्था का ये दो मजबूत आधार ही खत्म कर दिया। पहले लगभग सभी परिवारों के पास गाय-बकरियां होती थी लेकिन विस्थापित कॉलोनी में न तो चारागाह है और न ही इतनी जगह की पशुपालन किया जा सके। नतीजन खेती के साथ-साथ पशुपालन उद्योग भी खत्म। चैनपति बड़े उत्साह से फसल गिनाती है, हम लोगों की अपनी दो एकड़ की खेती थी। अरहर, गेंहू, धान, उड़द, तिली, मक्का। सबकुछ खुद के खेत में उपजा लेते थे। कभी बाजार से खरीद कर अनाज नहीं खरीदे। पूरा परिवार मिलकर खेती करते और गुजर-बसर होता रहा। चैनपति का पति आज घर बनाने के काम में जाकर मजदूरी करता है।


 इस तरह किसानों के मजदूर बनते जाने की कहानी अंतहीन है। कोई आशचर्य नहीं कि कल देश भर के किसान शहरों के किनारे घर बनाते या फिर पत्थर तोड़ते नजर आयेंगे। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़िशा, नोएडा तक। हर जगह किसानों-आदिवासियों से जमीन-जंगल छीन कर कॉर्पोरेट हाथों को बेचा जा रहा है और उन्हें मजदूर बने रहने को मजबूर कर दिया गया है।


एस्सार पावर प्लांट से विस्थापित लोगों को कंपनी ने जिस कॉलोनी में बसाया है वहां न तो बिजली की सुविधा है और न ही पानी की। अगर पानी का टैंकर नहीं पहुंचता तो लोग पानी के बिना ही रहने को मजबूर होते हैं। जिन लोगों के संसाधनों के सहारे कंपनी देश को रौशन कर मुनाफा कमाना चाहती है उन्हीं लोगों के घरों में अँधेरा पसरा है।


हमलोग सुतल (सोए) थे। कि अचानक से कंपनी वाला लोग बुलडोजर लेकर आ गया। हमारा फोटो खिंचने लगा और फिर घर को खाली करवा दिया। गुलाबी पनिका उस दिन को याद करने लगती है जब कंपनी के लोगों ने उनको जमीन और घर से निकाला था। गुलाबी सही सवाल उठाती है, हमारा तीन बेटा है। एक को प्लाट मिला बांकि कहां जाएगा। वैसे भी प्लाट सिर्फ पुरुषों को बांटा गया है महिलाओं को देने का नियम भी नहीं है। हम कबतक पुरुषों की तरफ टकटकी लगाए रहेंगे।


एस्सार पावर प्लांट से निकलने वाले जहरीले राखड़ (ऐश पॉण्ड) को खुले में ही बनाया गया है और ज्यादातर हिस्सा नदी में बहा दिया जाता है। जहरीले नदी के पानी को पीने से गांव वालों के जानवर आए दिन मरते रहते हैं लेकिन कंपनी ऐश पॉण्ड को लेकर बने सरकारी नियम को भी लागू करने के लिए तैयार नहीं। 


कंपनी के शोषण, विस्थापन, पलायन, बेचारगी, मजबूरी, हताशा की अंतहीन कहानी यहां पसरी हुई हैं। चाहे विधवा फूलमति पनिका हो जिसे अपने दो बच्ची की शादी की चिंता है, अपने तीन बेटे को पढ़ा-लिखा कर कंपनी में नौकरी करते देखने का चाहत लिए मानमति रजक हो, प्लाट, मुआवजा, भत्ता के इंतजार में सोनमति साकेत हो, पति द्वारा छोड़ दी गयी सुगामति साकेत हो, गुजरतिया हो, कौशल्या साकेत हो या फिर झिंगुरी। भले सबकी अपनी अलग-अलग कहानी है लेकिन दर्द एक है- विस्थापन और हताशा से भरी।


अपना काम-धंधा छोड़कर कब तक बैठे रहियेगा?- मैं पूछता हूं।
कौन-सा काम धंधा। काम ही नहीं है तो। खेती-किसानी भी नहीं है। होली तक में हमलोग अपने-अपने घर नहीं गए। अब तो जबतक मांग पूरी नहीं होगी नहीं हटेंगे सारी महिलाओं ने एक आवाज में जवाब दिया।
फिलहाल पुलिस और कंपनी हर रोज अनशन पर बैठी महिलाओं पर हटने का दबाव बना रही है। कभी महिला पुलिस के डंडे का खौफ तो कभी आँसू गैस के गोले का लेकिन अपना सबकुछ गवां चुकी इन महिलाओं ने अपना डर भी काफी पीछे छोड़ दिया है।
चलते-चलते एक महिला कहती है, भूख मरने से बेहतर है लड़ाई ले लें। इसलिए महिला लोग लड़ाई में कूदे हैं


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गली के चौराहे पर मिलते हैं हर रोज : गुलजार के शब्द

गुलजार को अपने कैमरे में कैद किया था। पटना लिटरेचर फेस्ट में।

"मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।
"


गुलजार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने की खबर ने मन को संतोष से भर दिया है। गुलजार से इत्ता लगाव। पता नहीं क्यों, शायद उनके शब्द ज्यादा करीबीयत का एहसास कराते हैं । उनके शब्दों से अपने  घर-आंगन-दालान और नुक्कड़-चौराहे पर हर रोज मुलाकात होती रहती है।


गुलजार के शब्दों के प्रति प्यार के लिए एक वाकया शेयर कर रहा हूं। भोपाल से लौट रहा था। पटना के लिए। इटारसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन काफी देर रुकती है। मैं घूमते-घामते पहुंच गया किताब स्टॉल पर। नजर गयी गुलजार की किताब "पन्द्रह पाँच पचहत्तर" पर। लेकिन नहीं। किताब की कीमत 200 रुपये। मेरे जेब में सिर्फ 300 के नोट पड़े थे। मतलब 100 रुपये में पटना पहुंचना था। पूरे बीस घंटे के सफर को तय करने के लिए 100 रुपये कम ही होते हैं।


लेकिन किताब के पहले पन्ने पर ही कुछ कविताओं के हेडिंग पढ़कर ही- 'हिचकी-हिचकी बारिश आई' तो 'सर में कैक्टस उगे' और 'आसमान की कनपट्टियां पकने लगी', 'शहर ये बुजुर्ग लगने लगा'। नतीजा, किताब खरीदने से खुद को रोक न सका।  मुझे  याद आता है कि पटना जंक्शन पर उतरते वक्त मेरे जेब में सिर्फ दस का एक नोट बचा रह गया था। तो गुलजार के शब्दों की यही अहमियत है जो उनपर लगे लाख तोहमत एक तरफ और उनकी नज्म एक तरफ।


गुलजार के शब्दों का लैंडस्केप प्रकृति के विशाल फलक से लेकर हमारे निजी अँधेरे कमरे तक फैला हुआ है। गुलजार खुद कहते हैं कि शायरी सिर्फ अल्फ़ाज का फ़न नहीं, उसमें मौसीक़ी और मुसव्वरी दोनों शामिल है। वो न हों तो नज्म सिर्फ एक बयान बन के रह जाती है। न रस- न रंग।


गुलजार साहब को बधाईयों के साथ उनकी कलकत्ता पर लिखी एक कविता साझा कर रहा हूं। जो उन्होंने पन्द्रह पाँच पचहत्तर संग्रह में शहर ये बुजुर्ग लगता है शीर्षक से लिखी है। तीन बार टिकट कैंसल करवाने के बावजूद कलकत्ता जाने की ख्वाहिश इस कविता ने फिर बढ़ा दी है।

कलकत्ता (कोलकाता)


कभी देखा है बिल्डिंग में, किसी सीढ़ी के नीचे,
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाए मैले दाँतों की तरह

कुछ फ्यूज वाली प्लेट्स रक्खी हैं।

पुराने पेच, मेंखें जो निकाली थीं, वहीं रक्खी हैं, कोने में
कई रंगों की तारों के सिरे जोड़े हुए सीढी के नीचे,
  ठोककर कीलें,

कई धागों से बाँधे होल्डर पर बल्ब नंगा झूलता है
बेहया बदमाश लड़के की तरह जो
खिलखिला के हँसता रहता है  ! 


बहुत कटती हैं तारें, फ्यूज उड़ते हैं
मगर बत्ती हमेशा जलती रहती है
ये कलकत्ता है कलकत्ता !
बहसूरत हमेशा जिन्दा रहता है  !!!

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...