Friday, April 25, 2014

कितना बेकार है न लिखना !!!

लिखने-पढ़ने का काम खुद को खुश करने का जरीया है-  बस। एक रिपोर्ट लिखकर मन कितना संतुष्ट होता है।
लेकिन इससे कुछ नहीं बदलता....कुछ भी नहीं। न तो उनके लिए जिसके बारे में लिखो और न दुनिया के लिए जो उसको पढ़ते हैं। बस, लिखिये, खुश होईये और भूल जाईये।
इससे बेहतर था कि डॉक्टर बन जाता, वकील बन जाता या फिर किसी स्कूल में टीचर ही सही। लिखने से ज्यादा बेहतर तो था न डॉक्टर बनकर रामाधार साकेत के बेटे की जान बचा लेता, वकील बन  उस आदिवासी गणेश खैरवार की जमीन का मुकदमा लड़ लेता जिसकी जमीन ठाकुरों ने सालों पहले कब्जा कर लिया है और अब गणेशी जी वकील-दर-वकील, कोर्ट-दर-कोर्ट भटक रहे हैं।

पता नहीं कब पत्रकार बनने का ठान लिया था। शायद होश संभालने के बाद ही। लगता था खूब लिखूंगा, लोगों के साथ हो रहे अन्याय पर, समाज के हाशिये पर ढकेल दिए गए लोगों के लिए- खूब लिखूंगा।

आज, सबकुछ बेकार लग रहा है। सारा लिखा-पढ़ा कचरे का एक विशाल ढ़ेर। उससे ज्यादा कुछ नहीं।
आह L अब तो लिखा भी नहीं जा रहा.....

फीलिंग- निरर्थक, बेकार, डिप्रेसन L

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