Wednesday, August 3, 2016

Insomniac Dairy


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लगभग हफ्ते भर शहर में बारिश होती रही। सड़कें, बस और अपनी स्कूटर लिए मैं भी भीगता रहा। रोज नही तो करीब करीब सारे दिन ही। भीगना एक सुख है। बारिश में भीगते हुए सबकुछ भुला जा सकता है। पुराने दुःख और सुख दोनों । सबकी जगह वह भीगना ले लेता है। याद है हम कितनी बार स्कूल से घर लौटते हुए भीगे थे ! अब तो न वो घर है, न स्कूल। एक दफ्तर है, एक पराये शहर का कमरा- बस भीगना इन्हीं के बीच दूरी तय करना है।
अकेले होने का सुख और दुःख दोनों घनघोर बारिश में कहीं और चला जाता है।
हमारा अकेलापन वैसे भी दिन में इधर उधर ही टहलता रहता है। लेकिन रातों को उससे लाख चाहो बच नही सकते।
Insomnia भी तो है। नींद का न आना और अकेलापन। ऐसी गहरी रातों में हम कितने सच्चे हो जाते हैं- खुद के लिये, दुनिया के लिए- अंग्रेजी वाले इसे ही 3am thoughts कहते हैं। Leonard Cohen का गाना सुना है- hello darkness..तो वही। हम अँधेरे से भी संवाद बुनते हैं।
मैं तो कहता हूँ हर आदमी को हफ्ते में एक या दो बार insomnia होनी ही चाहिए। आदमी संवेदनशील बना रहता है- अपने अकेलेपन में, अपने अनिद्रा की स्तिथि में।
इन्हीं अधजगे रातों में हमें भान होता है हम कितने अकेले छोड़ दिए गए हैं, हम एक इंतज़ार में हैं एक अकेलेपन से भाग दूसरे अकेलेपन तक पहुचने के बीच में। झुलते हुए। अवसाद , प्रेम, दुनियादारी सबको ये रात कितनी व्यर्थता से भर दे रहा है। nothingness का भाव कितना गहरा है। हम सब अपने ही बंद अँधेरे कमरों में जीने के लिए छोड़ दिए गए, और उस समय में हम बस इसी उम्मीद में बैठे रहे कि कोई एक हाथ, कोई एक पीली रौशनी हमें राह दिखायेगा, हमारे हाथ को पकड़ इस अँधेरे से खींच लेगा।
जबकि हमें तो खुद ही इन सबसे निकल जाना था। भाग कर कहीं दूर चले जाना था। खुद ही वो सफर तय कर लेना था। लेकिन हम फंसे रहे, और मरते रहे- अपने अकेले होने और इंतज़ार दोनों में।

Love is so short, forgetting is so long

शहर के एकाध हिस्सों से हमें कितना अपनापा सा हो जाता है। हम पराये शहर में भी ढूंढ लेते हैं कोई एक जगह, ईमारत, खंडहर, पार्क के किसी खास कोने में पड़ी बेंच, बाजार, सड़क, मेट्रो का कोई रुट, कोई हरी-लाल डीटीसी बस या कैफ़े- फिर जोड़ लेते हैं उससे एक खास रिश्ता।
घोर अकेलेपन में हम दौड़ जाते हैं अपने उस पसन्दीदा ठिये पर। बैठे रहते हैं यूँ ही घंटों बेवजह।
लेकिन जब हम अपने उस खोयेपन से बाहर निकल होश में आते हैं – तो शिद्दत से याद आने लगते हैं, उन जगहों से जुडी खास स्मृतियां। इन जगहों और चीज़ों पर हमारा बीता हुआ समय चिपका रहता है- हमारे हर किये, जिए संबधों और संवादों का witness ।
हम avoid करते हैं उन टेबलों पर बैठना, लेकिन फिर भी न चाहते हुए भी वो टेबल हमारी अतीत की खिड़की खोल देती है। हम डूबने-उतराने लगते हैं- उन्हीं स्मृतियों की नदी में। और यह हमें कितना उदास कर जाता है ! फिर भी उस जगह जाने का मोह नहीं छूटता।
“Love is so short, forgetting is so long…” – #PabloNeruda

अपने रहस्य को बाँट लेना

पराये लोगों से अपना रहस्य साझा करते वक़्त कितना हल्का महसूस होता है !
अपने लोगों के सामने सुख साझा हो भी जाये, दुःख और जीने का गिल्ट उनसे साझा करते मन में एक संदेह बना रहता है- exposed हो जाने खतरा। फिर उनका judgemental होना भी नही सुहाता। निर्मल वर्मा का कहा कितना सच्चा लगता है ‘जो लोग तुम्हें प्यार करते हैं, वे तुम्हें कभी माफ नही करते’।
लेकिन दूसरों के साथ ऐसा नही होता। आप उनके सामने मन और जीवन की सारी सुलझी-अनसुलझी गुत्थियां खोल सकते हैं – नौकरी, काम, प्रेम, दोस्ती, घर , उम्मीद, चाहत, जीवन और प्लान्स। सबकी बातें ज्यादा सहज होकर की जा सकती है। वहां खुद को judge हो जाने का डर नही होता। आप जानते हैं जिस कॉफ़ी टेबल पर बैठ बात की जा रही है- सारी बातें इसी टेबल पर रह जानी है। और कई बार इस खुलने में आप वहां पहुँच जाते हैं जहाँ आपको भी अपने बारे में नही पता होता। मन की उन गलियों में आप भी पहली बार entry कर रहे होते हैं। अपने भीतर एक पीली सी रौशनी महसूस होती है, जो उन तहखानों का रास्ता बताती है जहां सालो पहले घुप्प अँधेरा जाकर बैठ गया था।
बात करते करते हम अपनी ही खोयी हुई स्मृतियों के खंडहरों को झाँकने लगते हैं।
हमें लगता है हम खुद पहली बार वहां पहुंचे हों। एक टूरिस्ट की तरह। एक आउटसाइडर की तरह खुद को देख पाने की फीलिंग को क्या कहा जाये- दुःख, सुख या एक खाली अफ़सोस- कुछ भी ठीक न कर पाने का।
I love conversation with stranger.

Tuesday, August 2, 2016

नर्मदा बचाओ आंदोलन को समर्पित कविता

नर्मदा तुम
सिर्फ नदी नही हो
हज़ार साल पुरानी सभ्यता-संस्कृति हो
जंगल हो
हज़ारों पेड़ हो
खेत हो
गांव हो
बस्ती हो, लोग हो
बच्चों का खेल, किसी हंसती औरत का सफ़ेद दांत हो
ठहाके की गूंज हो
पानी से भरपूर – तुम जीवन हो ।
लेकिन तुम
लूट भी हो
उजाड़ भी हो
तुम डूब हो-
दो लाख लोगों, खेतों, मंदिर, मस्जिदों, दुकानों, स्थानीय कारीगरी, व्यापर, सदियों से सहेजी सभ्यता की स्मृतियों के लिए ।
फिर डैम भी तो हो- 130 मंझोले, 30 बड़े, बिजली हो लाखों घर को अँधेरे में डुबोये,
कोला कंपनी के लिए लाखों लीटर पानी हो, इंडस्ट्री को दिया लाखों हेक्टेयर जमीन हो,
हज़ारो भूमिहीनों की छीन चुकी आजीविका हो,
विस्थापन हो,
छूट चूका खेत-खलिहान, घर-गाँव हो, नर्मदा
तुम मज़बूरी, बेबसी, नेताओं,नौकरशाहों की लूट हो,
तुम 50 हज़ार से ज्यादा परिवार की
जल समाधि हो।
तुम नेशनल इंटरेस्ट हो,
तुम देश के विकास की सबसे बड़ी कब्रगाह हो।

अकेले हो जाने का फैसला

हमारे यहाँ ‘अकेले रहना है’ का decision लेना कितना कठिन है न !
अकेले रहने को एक अजीब से डर और संदेह से भर दिया गया है। परिवार, प्रेम, रिश्ते सबको एक धागे में बांधना पड़ता है। लेकिन सबकुछ एक बंधन से ज्यादा क्या है? अपने खुद के अकेलेपन को भी छीन कर ही हासिल किया जा सकता है। जाहिर है अकेले रहने का सुख जब तक समझ आता है बहुत देर हो चुकी होती है। आपको कोई न कोई एक धागा तोड़ना होता है। और ये टूटना मन को कितना गिल्ट से भर देता है। उस मुलायम से धागे से एक मोह बंधा रहता है। अगर एक झटके में धागे के बंधन को तोड़ दो , तो जीवन भर लंबे रगड़ के बाद पड़े निशान को ढोना ही पड़ेगा।
क्या सच में आपसी समझ से उस धागे को खोलना बहुत मुश्किल है? जबकि हम सब किसी खास क्षण में अकेले होने को एन्जॉय करते हैं। उस अकेलेपन में बरसों पीछे छूट चुकी कवितायेँ वापिस लौट आती हैं, आप शायरी करने लगते हैं, खोज-खोज कर सैडिस्ट गाने सुनते हैं, खूब लिखना चाहते हैं, नयी किताब शुरू करते हैं, किसी कैफ़े में खुद को एक कप कॉफ़ी ऑफर करते हैं, नए लोगों से खूब बातें होने लगती हैं, जिनके किसी धागे में बंधने का डर नही। आप कभी दुःख में डूबते हैं, फिर जीने की ठानते हैं, गिरते हैं, अचानक low फील करते हैं , फिर हवा में उड़ने का मन करने लगता है, उस छूट गए धागे के लिए मन में कोई गिला- शिकवा नही बचता, बस प्रेम आता है, जीवन का फलक बहुत विशाल लगने लगता है, खुली हवा को मुंह खोल अंदर भरने का मन होता है।
मन के खाली जगह को पत्ते, पेड़, पार्क में पड़ा खाली बेंच, लॉन्ग ड्राइव, लंबे वॉक, शाम, दुपहर, बारिश की टप टप, डायरी के पन्ने, फिल्म, शहर की कोई एक्टिविटी, प्रदर्शन कितना कुछ है, जो भरने लगते हैं। हमें थोड़ी देर रुकने का वक़्त मिलता है, खुद को कई बार लहरों के साथ बहने देने का मन होता है, तो कभी रूककर चुपचाप नदी को बहते देखने में सुख लगता है। खुद से शायद पहली बार इतनी मुहब्बत होती है, हम अपने ही प्रेम में पड़ जाते हैं। अपने उस अकेलेपन में हम सबसे ओरिजिनल होते हैं। दुनियादारी में ये अकेलापन भले फैन्टेसी जैसा लगे, कई अर्थों में मानसिक रोग जैसा भी, लेकिन अपने खुद के लिए वही सच, अपना यथार्थ समझ आता है। 

पिता

बचपन में बहुत दिन तक, तुम बने रहे उम्मीद का दूसरा नाम
लगता रहा
तुम हो यहीं कहीं
पुकारने पर आ जाओगे- झटपट
पीठ पर महसूसता रहा – तुम्हारी आँखें
बहुत दिनों तक
तुम्हारी आँखें हर सही गलत करते वक़्त
लगा घूर रही हैं मुझे
मैं अकेले में भी नही कर पाया
बचपन में की जाने वाली बदमाशियां
इस तरह पूरा बचपन महसूस होते रहे
तुम
सोता रहा चैन की नींद तुम्हारे ही भरोसे
और चोरी-छिपे आता रहा
रोने, बताने
अकेले उस कोठरी में जहाँ टंगी है तुम्हारी वह तस्वीर,
जिसमें तुम्हारी आँखें हैं बड़ी गोल-गोल
और होंठ मुस्कुराते हुए, आँखें शून्य को ताकते
तुम्हारी अनुपस्थिति बहुत बाद में मालूम हुई, जब होश संभाला, बड़ा हुआ
जब दुःख झेलने लगा,
जब माँ को अकेले में रोते देखता रहा- एकटक, चुपचाप
और कोई आँसू पोंछने नही आया
जब किस्सों में सुनता रहा तुम्हारी बातें
तुम्हारा संघर्ष,
तभी उस तस्वीर का मतलब समझ आया- जिसमें तुमने लहरा रखे हैं हाथ अपने हवा में,
और तुम उसी दिन मेरे जीवन से चले गए
मेरे ख्यालों में तुम बन गए
एक लाल सूरज
एक जादुई यथार्थ
अब वो तुम्हारी दो आँखें नही दिखती
वो लाल सूरज दीखता है
तुम्हारे आने का भरोसा नहीं आता
एक अफ़सोस आता है
दो आँखें नहीं महसूस होती,
एक भरम के टूटने का दुख घर कर जाता है ।
अब अकेले में रोने में कोई उम्मीद नही नज़र आती
और बड़े होने का दुःख और गहरा हो जाता है….

पाकर खोना है

हम सबने कुछ न कुछ खोया है। एक समय जिन चीजों, जगहों, लोगों से हमें बहुत प्रेम था, वो छूट गए
या फिर हमने जाने दिया उन्हें कई बार खूब खूब शोर मचाया, लेकिन ज्यादातर चुपचाप ही जाने दिया,
क्या ये सच है कि हम पाते ही खोने के लिए है,
मानो तय कर दी जाती हो पाने के दिन ही खोने की तारीख,
Move on कहकर हम आगे बढ़ जाते हैं,
क्योंकि हमें लगता है डर- एक जगह रुके रह जाने का- stuck हो जाने का। लेकिन क्या सच में खोए हुए को हम भूल पाते हैं?, या उनकी स्मृतियां आकर बैठ जाती है भीतर कहीं, हम ढ़ोते रहते हैं उन स्मृतियों को, जो बदल चुका होता है एक गहरे अफ़सोस में। नफरत, गुस्सा, छूट जाने के कारण- याद नही रह पाते,
प्रेम , मोह, स्नेह बचे रह जाते हैं- एक खालीपन के बावजूद ज्यादा तीव्रता से। ये जानते हुए भी कि जाना/खोना/छूटना उस प्रेम को बचा लेने का अंतिम प्रयास है। 

अनकहे अपने लोगों से दूरी

 कुछ लोग कितने अपने से लगते हैं। दूर होकर भी।बिना किसी भेंट मुलाक़ात के। बिना कहे सुने वे अपने लगते हैं। ऐसे लोगों को आप बस जाते हुए देखते हैं। उनके लिए आप इतने सेंटिमेंटल होते हैं कि आप उनको रोकने से डरते हैं। आप उन्हें पीछे से आवाज़ नही लगा पाते- बहुत चाहने के बावजूद।
आप डरते हैं उस सामने वाले की अच्छाइयों, भावुकताओं और ईमानदारी से। आप डरते हैं- उस इमेज के टूट जाने से, जिसने आपके मन में उस सेंटिमेंट को गढ़ा है। ये सेंटीमेंट इतना गाढ़ा बन पड़ता है कि आप उसके सामने झूठ नहीं बोल पाते। अगर दुखी हैं तो हो सकता है आप हालचाल पूछने जैसी सामान्य बात पर भी उसके सामने रो दें। ऐसे अनजान लोगों के बीच फूट फूट कर रोना कितना अजीब होता होगा न!
ऐसे लोगों से मिलने से पहले हम सुख का इंतज़ार करते हैं- सुख में ही बात की जा सकती है। जब तक सुख न हो- तब तक आप बस उन्हें कनखियों से गुजरते हुए देखते रह जाते हैं। और फिर करीब जाने के बाद अलग हो जाना कितना painful प्रोसेस है न?

रोता हुआ सेल्फी

हमें हर चीज़ एक बने बनाये नियम की तरह थमा दी गयी है,
सेल्फी लेते वक़्त हंसना है- का नियम किसने बनाया होगा ?
हंसना एक एक्ट है- सेल्फी लेने वक्त,
हज़ारों – लाखों लोग सेल्फी ले रहे हैं और हंस रहे हैं,
हर रोज़ लोग हंस रहे हैं,
सिर्फ सेल्फी लेने के लिए हंस रहे हैं, फ्रंट कैमरा घुमते ही ज़ोर ज़ोर से हँसते हैं- हज़ार उदासियों को भीतर समेट बाहर हँसते हैं, न चाही गयी मुलाक़ात में भी हम say chees वाली सेल्फी लेते हुए हँसते हैं, जिसकी जितनी बड़ी हंसी, उतनी बड़ी सेल्फी, और दुनिया की नज़र में उतना ही खुश जीवन !
ठहाकामार हंसी वाली सेल्फी आपको ज्यादा जीवन जीने वाला आदमी घोषित कर देगा
मैं चाहता हूँ एक रोता हुआ सेल्फी
अँधेरा, दुःख, अकेलापन और विरक्ति को समेटने वाला सेल्फी।
लेकिन दुनिया ने नही बनाया है ऐसी सेल्फी लेने का कोई नियम ।
इसलिए मैं भी लगाता हूँ- एक ठहकामार सेल्फी।

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...