Wednesday, August 3, 2016

Love is so short, forgetting is so long

शहर के एकाध हिस्सों से हमें कितना अपनापा सा हो जाता है। हम पराये शहर में भी ढूंढ लेते हैं कोई एक जगह, ईमारत, खंडहर, पार्क के किसी खास कोने में पड़ी बेंच, बाजार, सड़क, मेट्रो का कोई रुट, कोई हरी-लाल डीटीसी बस या कैफ़े- फिर जोड़ लेते हैं उससे एक खास रिश्ता।
घोर अकेलेपन में हम दौड़ जाते हैं अपने उस पसन्दीदा ठिये पर। बैठे रहते हैं यूँ ही घंटों बेवजह।
लेकिन जब हम अपने उस खोयेपन से बाहर निकल होश में आते हैं – तो शिद्दत से याद आने लगते हैं, उन जगहों से जुडी खास स्मृतियां। इन जगहों और चीज़ों पर हमारा बीता हुआ समय चिपका रहता है- हमारे हर किये, जिए संबधों और संवादों का witness ।
हम avoid करते हैं उन टेबलों पर बैठना, लेकिन फिर भी न चाहते हुए भी वो टेबल हमारी अतीत की खिड़की खोल देती है। हम डूबने-उतराने लगते हैं- उन्हीं स्मृतियों की नदी में। और यह हमें कितना उदास कर जाता है ! फिर भी उस जगह जाने का मोह नहीं छूटता।
“Love is so short, forgetting is so long…” – #PabloNeruda

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