Saturday, March 23, 2013

सबसे ख़तरनाक -पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

Saturday, March 9, 2013

मासाब चक्रवृद्धि ब्याज़ निकल गया स्कूलों का

पिछले दिनों मास्टरों को बिहार सरकार ने खूब पिटवाया. पांच हजार की सैलरी पर खट रहे इन मास्टरों ने जब अपने हक के लिए लड़ना शुरू किया तो उन्हें बदले में डंडा दिखाया जा रहा है. सवाल सिर्फ मास्टरों का ही नहीं है पूरे राज्य की स्कूली शिक्षा का है. उस स्कूली शिक्षा का जहां पढ़ने वाले बच्चे सिर्फ गरीब परिवार के ही होते हैं क्योंकि माना जाता है कि थोड़े से पैसे वाला आदमी भी अपने बच्चे को बरबाद करने के लिए सरकारी स्कूल में नहीं भेजता..ऐसे में दस बजिया सरकारी स्कूलों में पले-बढ़े बच्चों के भविष्य की चिंता तो होती ही है. एक जमाना था जब हाईस्कूल और मीडिल स्कूल में ऐसे मास्टर साब होते थे जिन्हें आसपास के गांवों में भी इज्जत से याद किया जाता था. न जाने कितने बिगड़ैल बच्चों को इन मास्टर साबों ने रास्ते पर ला दिया..लेकिन आज ऐसे मास्टरों की चर्चा विरले ही सुनाई देती है..
ऐसे ही एक मास्टर साब की आत्म-कथा को लिखा है सुशील झा ने..पढ़िये पूरी कहानी



मासाब चक्रवृद्धि ब्याज़ निकल गया स्कूलों का

हम 1968 में मैट्रिक किए थे. यहीं के स्कूल से. चक्रवृद्धि ब्याज़ निकालते निकालते दम निकल जाता था. मास्टर साब पीटते थे उ अलगे रहै. एक बार बाबूजी को बोले तो बाबू ने कहा उधर नहीं पिटोगे तो हम खेत में पीटेगें. देख लो. मासाब से ही पिटना मंजूर किए. पढ़ाई में अच्छे थे क्योंकि घर में पढ़ने का माहौल था. उस जमाने में फर्स्ट डिवीजन लाए थे. बारहवीं हुआ फिर भौतिकशास्त्र से ग्रैजुएट हुए. बाबूजी नहीं चाहते थे हम घर से दूर हों. बगल के ही स्कूल में टीचर हो गए.

पहली बार जब स्कूल में पहुंचे 1977 में तो स्कूल के नाम पर एक टूटली मडैया रहै. प्रखंड अधिकारी बहुत बढ़िया थे बोले-यहां जो रिसोर्स है उसी का इस्तेमाल करिए पढ़ाइए. हम समझे नहीं तो बोले आप मास्टर हैं. तीन साल मेहनत कीजिए बच्चा पर फिर बच्चा आपसे मेहनत करा ले जाएगा. ये मास्टर होने की सबसे पहली शर्त थी.

कच्ची मिट्टी का टीला था और ऊपर एक छप्पर. इलाक़ा आदिवासियों का. वो बांस से कमाल कमाल चीज़ बनाते थे. हम गांव में घूमे और जुगाड़ लगवाए. बंसवाड़ से बांस कटवा कर बेंच कुर्सी बनवाए. मास्टर के बैठने के लिए भी बांस का कुर्सी टेबल बना. उस इलाके में पहला स्कूल था जहां चेयर टेबल था बच्चा के लिए. कुर्सी पर बैठने के लालच से बच्चा सब स्कूल आता था. खूब पढ़ाए मन लगाकर. 11 महीने तक सब विषय पढ़ाए. आज भी याद है जब ट्रांसफर हुआ तो बच्चा सब रो रहा था.

दूसरा स्कूल में हम जाना नहीं चाहते थे. मुसलमानों के एरिया में था. हम ब्राह्मण हैं. उस टाइम गांव में अभी वाला माहौल नहीं था. बाबूजी बोले कर्म है करो. दो मास्टर थे. गए स्कूल बहुत गंदगी थी और गरीबी भी. गांव में इतनी गरीबी हम कभी नहीं देखे थे. फिर लगे पढ़ाने बच्चा सब को. पानी भी नहीं पीते थे. रहते बगल के गांव में. सुबह सुबह पांच कोस साइकिल चला कर पढ़ाने आते. फिर मन लग गया मुसलमानों में और ऐसा लगा कि 11 साल पढ़ाते रहे. वो स्कूल आंखों के आगे घूमता है.

फिर एक दिन हमसे गलती हो गई. गलती-बहुत्ते बड़का. गणित का सवाल हल नहीं कर पाया था एक बच्चा-मारे थप्पड. उ गिर गया और लगभग बेहोश हो गया. हम किसी तरह उठाए उसको. पानी वानी मारे मुंह पर तो होश आया. पूछे क्या हुआ खाना खाके नहीं आए थे. बच्चा बोला-नहीं सर घर में कुछ था नहीं खाने को. उस बच्चे पर विशेष ध्यान दिए. उस दिन के बाद शाम में रुक कर बच्चों को पढ़ाते. गणित, साइंस, हिंदी. तब दो ही टीचर मिल के मिडिल स्कूल चलाते थे हम लोग. वो बच्चा आज डॉक्टर है. एक दिन बोला, मासाब आप थप्पड़ नहीं मारते तो हम डॉक्टर नहीं होते. हमारा सीना चौड़ा हो गया था.

बहुत कुछ सीखे वहां. मुसलमानों के स्कूल में सब किताब उर्दू में होता था. साइंस का भी गणित का भी और सोशल साइंस का भी. हम उर्दू सीखे ताकि बच्चों को पढ़ा सकें. बहुत कठिन नहीं है. पूरा सीख गए थे. भाषा से लगाव हुआ और इसी चक्कर में बाद में एमए किए मैथिली भाषा से विद्यापति पर. पीएचडी करने का मन था लेकिन उम्र हो गई थी और बच्चों से दिल लग गया था. अधिकारी ठीक बोले थे. तीन साल मेहनत करो फिर बच्चा सब मेहनत कराएगा.

फिर कई बदलियां हुई लेकिन वैसा दिल कहीं और लगा नहीं. नब्बे के दशक में कोर्स बदला किताबें बदली. हालात खराब हुए. चरवाहा स्कूल में भी पढ़ाने गए. बहुत कोशिश किए लेकिन बच्चा सब नहीं माना. काला अक्षर भैंस बराबर और भैंस के आगे बीन बजाने वाली कहावत एकदम सही कही जाती है. राजनीति भी होने लगी. खेतीबाड़ी बाबूजी बहुत छोड़ गए थे. गुजारे की दिक्कत नहीं थी लेकिन रोग लगा था पढ़ाने का.

फिर हाई स्कूल में नियुक्ति हुई तब तक मध्यान्ह भोजन आ चुका था. शिक्षक भी आए नई भर्तियां हुईं. पढ़ाई कम दूसरा काम अधिक होने लगा. हमारा मन यहीं से उचटना शुरु हुआ. बच्चा बोरा में कॉपी किताब भरकर लाता और जाते समय कॉपी किताब हाथ में बोरे में अनाज. अनाज नापने लगे थे हम लोग.
हेडमास्टर को पता था हमको ये काम पसंद नहीं है. हमको प्रशासनिक काम दे दिया गया. टीचर लोग का तनख्वाह बनाइए. ब्लॉक में स्कूल से जुडा काम कीजिए. सीनियर टीचर थे तो कोई कुछ बोलता भी नहीं था. कभी कभी गणित पढ़ाते थे और बच्चों को बताते चक्रवृद्धि ब्याज़ जो अब सिलेबस में था ही नहीं.

सन 2000 के बाद एकदम नहीं पढाए. हम सिर्फ दरमाहा बनाने स्कूल जाते थे. अनाज के नाम पर धांधली होने लगी थी और इसमें हम कुछ कर नहीं सकते थे. हमारा काम कम हो गया था. सिर्फ वेतन के लिए जाने लगे और दिन गिनने लगे थे कि जल्दी रिटायर हो जाएं. ऐसे ऐसे मास्टर आए कि जिनको नाम भी लिखना नहीं आता था. इ मास्टर सब को मुखिया भी आकर गालियां देता. हमसे शिकायत करता. हम जानते थे मुखिया गरियाता है क्योंकि पुराने मुखिया के कहने पर मास्टरों की बहाली हुई थी. हम क्या कहते. हमको पता था अब इधर से कोई बच्चा डॉक्टर इंजीनियर नहीं बनेगा.

रिटायर हुए तो चैन मिला. रोज रोज के आलू परवल गिनने से मुक्ति मिली. हमारे टाइम में जब इंस्पेक्टर आते थे तो महीने भर पहले तारीख मिलती थी. और जब उस तारीख पर आते इंस्पेक्टर तो तैयारियों की धज्जियां उड़ा जाते. बागवानी एक महीने पुरानी दिखती है. पढ़ाते क्या हैं आप लोग. क्लास रुम में बैठ जाते इंस्पेक्टर और बच्चों से सवाल पूछते. आखिरी दिनों में देखे कि हर हफ्ते इंस्पेक्टर आते हैं. सौ रुपया लेकर जाते हैं 40 बच्चे स्कूल में हैं तो 80 के रजिस्टर पर हस्ताक्षर करते हैं ताकि मध्यान्ह भोजन का राशन अधिक मिले.
अब तो ये आलम है कि ब्लाक लेबल पर घूस देकर मध्यान्ह भोजन का प्रभार लेते हैं मास्टर. ऐसे में कोई क्या पढ़ाएगा और कोई क्या पढ़ेगा. हम खुश हैं ऐसे में नहीं काम करना पड़ा. रिटायर हैं. अभी भी आसपास के गांव में अपना पढ़ाया हुआ दो चार बच्चा मिलता है तो बोलता है मासाब चक्रवृद्धि ब्याज़ निकल गया स्कूलों का.

सुशील झा (बीबीसी हिन्दी)

Friday, March 1, 2013

गांव शहर और शहर गांव हो रहा हैः सुशील झा

हमारे जैसे कस्बाई-मन को लुभाने वाली कविता...पढ़ के लगे कि अरे, ये तो हमारे गांव-शहर की कहानी है- कविता लिखी है सुशील झा ने..फिलहाल जमशेदपुर से निकल  बीबीसी दिल्ली में नौकरी  कर रहे हैं।


गांव शहर और शहर गांव हो रहा है
गांव में फ्लैट और शहर में हेरिटेज होम्स बिक रहा है
गांव कोका कोला और शहर आर्गेनिक हो रहा है
छठ शहर आ रहा है
कड़वा चौथ गांव जा रहा है
गरीब शहर भाग रहा है
एलीट गांव दौड़ रहा है
गांव शहर और शहर गांव हुआ जा रहा है
इन दोनों के बीच डोलते कुछ लोग हैं
जिनका मन गांव शहर शरीर और आत्मा
कहीं की नहीं है
वो इंटरनेट, गूगल और पासपोर्ट के ज़रिए
अपनी जड़ों को तलाशते हैं
बिन मिट्टी के सूख गई जड़ों को देखकर
फिर वापस लौट जाते हैं
एक नई जगह जड़ें जमाने
कौन चाहता है जड़ों के बिना जीना
लेकिन
जड़ों को जमने में
फलने में फूलने में
वक्त तो लगता ही है.

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...