हमारे जैसे कस्बाई-मन को लुभाने वाली कविता...पढ़ के लगे कि अरे, ये तो हमारे गांव-शहर की कहानी है- कविता लिखी है सुशील झा ने..फिलहाल जमशेदपुर से निकल बीबीसी दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं।
गांव शहर और शहर गांव हो रहा है
गांव में फ्लैट और शहर में हेरिटेज होम्स बिक रहा है
गांव कोका कोला और शहर आर्गेनिक हो रहा है
छठ शहर आ रहा है
कड़वा चौथ गांव जा रहा है
गरीब शहर भाग रहा है
एलीट गांव दौड़ रहा है
गांव शहर और शहर गांव हुआ जा रहा है
इन दोनों के बीच डोलते कुछ लोग हैं
जिनका मन गांव शहर शरीर और आत्मा
कहीं की नहीं है
वो इंटरनेट, गूगल और पासपोर्ट के ज़रिए
अपनी जड़ों को तलाशते हैं
बिन मिट्टी के सूख गई जड़ों को देखकर
फिर वापस लौट जाते हैं
एक नई जगह जड़ें जमाने
कौन चाहता है जड़ों के बिना जीना
लेकिन
जड़ों को जमने में
फलने में फूलने में
वक्त तो लगता ही है.
जिनका मन गांव शहर शरीर और आत्मा
कहीं की नहीं है
वो इंटरनेट, गूगल और पासपोर्ट के ज़रिए
अपनी जड़ों को तलाशते हैं
बिन मिट्टी के सूख गई जड़ों को देखकर
फिर वापस लौट जाते हैं
एक नई जगह जड़ें जमाने
कौन चाहता है जड़ों के बिना जीना
लेकिन
जड़ों को जमने में
फलने में फूलने में
वक्त तो लगता ही है.
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