Tuesday, May 26, 2015

विकास के पप्पा नरेन्द्र मोदी जी को एक प्राइवेट लेटर



माननीय प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी,
सादर प्रणाम

मैं झूठ नहीं बोलूंगा कि मैं यहां कुशल-मंगल हूं और आपके कुशल-मंगल की खबर टीवी, अखबार और रेडियो तक से चौबीसों घंटे मिलती ही रहती है। फिर भी आशा करता हूं कि विदेश घूमते हुए खूब मजे में होंगे। आगे बात यह है कि आपको यह चिट्ठी बहुत थक-हार कर लिख रहा हूं। दरअसल मैं थक गया हूं विकास को खोजते-खोजते। छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश के कई इलाकों में पिछले दिनों इसी विकास को जोहते हुए भटका हूं, लेकिन कहीं मिलिये नहीं रहा है। आप सही पहचान रहे हैं ये वही विकास है जिसके बारे में आप चुनाव से पहले भी कहते रहे हैं और आज एक साल बीत जाने के बाद भी मथुरा में कह रहे थे।

सुना है बहुत से लोग आपकी तारीफ में आपको विकास का पप्पा भी बुलाने लगे हैं। सो, अब अंतिम सहारा आप ही हैं। आप हमारे निजाम हैं हमको पूरी उम्मीद जगी है कि आप ही हमको विकास तक पहुंचाने वाले सारथी होंगे। दरअसल अखबार-टीवी ने बार-बार आपके भाषण को सुना-सुना यही उम्मीद पूरे देश की जनता को भी जगाया है। आप जैसे विकास पुरुष तक पहुंचाने के लिये हम सब मीडिया के साथियों का शुक्रगुजार हैं।

माननीय मोदी जी, असल मुद्दे पर आता हूं पिछले दिनों विकास को खोजने के क्रम में देश के कई हिस्सों में भटका तो मालूम चला कि विकास एक ऐसा शब्द हो चला है जो सारे शब्दों पर भारी पड़ने लगा है। आपको बताना जरुरी है कि आपकी मेहनत और कृपा से विकास अब इतना भारी हो गया है कि अब नियम-कायदे, संविधान, लोकतंत्र और मानवता पर भी भारी पड़ने लगा है।

इस देश में सारी सरकारें, आपके सारे मंत्री, सारे नौकरशाह, सारे बड़े-बड़े अमीर लोग विकास लाने में लगे हैं, लेकिन हम अभागे की किस्मत देखिये कि इ विकास मिलिये नहीं रहा है।

का-का बताये। इ विकास को खोजने कहां-कहां नहीं गए। छत्तीसगढ़ और झारखंड में पता लगा कि विकास एमओयू साइन करके लाया जाता है। बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू साइन कीजिए, फिर नियमों में ढ़ील दीजिए, कानून बदलिये, सेना-पुलिस बुलाकर आदिवासियों-किसानों को उनकी जमीन से बेदखल कीजिए, कहीं झूठे मुकदमे, कहीं घर पर बुलडोजर चलवाये जाते हैं तब जाकर कहीं विकास चाचा जमीन पर उतरते हैं।

सुना है विकास चाचा भी जमीन देखकर उतरते हैं। एकदम चकाचक, टाइल्स लगे किसी बड़े साहब, अफसरान की जमीन हो तो बड़े ही नजाकत से हिलते-डूलते, इतराते हुए, झक सफेद धोती-कुरता पहने तो कभी सूट-बूट में विकास चाचा पहुंचते हैं और जो जमीन धूल-मिट्टी में लिपटी किसी गरीब की हो तो विकास इंदिरा आवास के छत पर ही लटके रह जाते हैं।
बड़ी मुश्किल है। विकास को गाँव के बड़े बुड्डे बहुत याद करते हैं। प्यार से वो विकास को विकसवा बुलाने लगे हैं। कहते हैं एकबार इ विकसवा से भेंट हो जाए तो चैन से जान छूटे यही सोचकर मोदी जी को इतना बहुमत से जीताकर दिल्ली में बैठाए हैं।

लेकिन देखिये न सुनने में आता है कि आप जब-जब विकास-विकास करके गरजते हैं गाँव में मनरेगा मजदूर फेकन महतो को काम मिलना बंद हो जाता है, इंदिरा आवास योजना के बजट में कटौती हो जाती है, गरीबों की सब्सिडी खत्म करके अमीरों को टैक्स में 5 प्रतिशत छूट दे दिया जाता है, उन्हीं उद्योग धंधों के लिये भारी-भरकम सब्सिडी मुहैया करायी जाती है, स्वास्थ्य सेवाओं का बजट हो चाहे सरकारी शिक्षा सब जगह कटौती शुरू कर दी जाती है। किसान अपनी जमीन छिनने के डर से व्याकुल हो जमीन पर अहोरिया मारने (लोटने) लगते हैं।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि विकास का कोई सूराग नहीं मिल सका। मुझे एकाध बार लगा है कि आप ही वो युगपुरुष हैं जो विकास लायेंगे और सच में आपने गाँव-गाँव विकास लाने का एलान किया और विकास भी गाँव के टॉयलेट में जाकर बैठने लगा है। हम कैसे कह दें कि विकास नहीं दिखा है। हां टॉयलेट में जाकर नहीं देखे लेकिन फील तो किये ही हैं।

आपके भक्त बताते हैं कि विकास कोई एक दिन का खेल नहीं है। सच बताउं तो हमको भी पहले यही लगता था, लेकिन आपका चुनावी भाषण सुने तो आत्मविश्वास जगा, लगा नहीं विकास चार महीने में मेरे बैंक खाते में होगा। 15 लाख रुपया का वेश धरकर वो पहुंचने ही वाला होगा लेकिन एक साल बाद पता चला उ विकास नहीं चुनावी जुमला था।

महोदय, अंत में क्या लिखें। बस इतना कहना चाहते हैं कि आप अच्छे आदमी हैं। अच्छे से रहते हैं। हमको फख्र होता है कि हमारा प्रधानमंत्री खुद को प्रधान सेवक बताता है। वो अच्छा-अच्छा रंग का कपड़ा बदलता है, विदेश में भी स्टाईल मारते हुए सेल्फी लेता है, नौ-नौ लाख का सूट पहनता है। इस सबसे देश का बड़ा नाम हो रहा है। आप हमारे देश की संस्कृति, विज्ञान को लेकर गंभीर हैं, गणेश वाला प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण देकर विदेशियों को अपने चिकित्सा विज्ञान पर सोचने के लिये मजबूर कर दिया है। वो दिन दूर नहीं जब देश का डंका पूरी दुनिया सुनेगी, लेकिन महोदय इन सबके बीच, यह जानते हुए भी कि दुनिया में फोकसबाजी जरुरी है, जरा ख्याल कीजिए हमारे लिये भी, हमारे गाँव के लोगों के लिये भी, फेकन महतो जैसे मनरेगा मजदूर के लिये भी, छत की आस लिये इंदिरा आवास योजना का राह बटोरते उस बीपीएल वाले के लिए भी थोड़ा सा विकास आए। थोड़ा सा हम भी विकास को देख पायें, महसूस पायें और बचे तो अपने बाल-बच्चों को भी दिखा पायें और गाँव के बुढ्ढे भी विकास को देखकर चैन से मर पायें।
आपकी गर्वशील जनता।
अविनाश कुमार चंचल, जिला बेगूसराय, बिहार।

Monday, May 25, 2015

जयपुर के कॉफी हाउस में बैठे-बैठे

कॉफ़ी हाउस एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ता है। जिस शहर में कॉफी हाउस है वो अजनबी शहर भी अपना सा लगने लगता है। एक ऐसी जगह जहां आप अकेले भी घंटों बैठे रह सकते हैं। अपने पसंदीदा राइटर के लिखे में सर झुकाये। कॉफ़ी हाउस कभी अकेला नहीं होने देता।
आसपास बैठे लोग कुछ पत्रकार, कुछ लेखक, कोई थिएटर कलाकार या आपस की हँसी में डूबा एक जोड़ा।
सब के सब अपने से लगते हैं। अपनी दुनिया के लोग। अकेले होकर भी अपनों के बीच होने जैसा एहसास।
इतना अपनापन जितना अपने इस कमरे में भी फिलहाल महसूस नहीं कर पा रहा।
अकेले कमरे में सबकुछ कितना निर्जन हो जाता है। मानों एक अजनबी दुनिया है जहां मेरी खरीदी चीजें भी मुझे नहीं पहचान पा रही हैं। कमरे में रखा हर सामान अपना अधूरापन लिए मुंह लटकाये है.. मोबाइल में पड़ी पुरानी तस्वीरों को देखते हुए.. यादों में भींगते हुए.. शहर दर शहर की तस्वीरों से गुजरते हुए ढेर सारा अकेलापन भीतर भर जाता है और मैं निराशा में डूबते उतरते अपने घर पहुँच जाता हूँ। घर की याद। घरवालों की याद।
मोबाइल फोन ने भले शहर दर शहर की खूब तस्वीरें उतारी हो लेकिन घर को कैद करना भूल गया सा लगता है।
कभी कभी जो हमारे पास है उसे हम कितना गैर जरुरी बना लेते हैं जबकि उसकी भरपाई म्यूजिक, फ़िल्म, किताबें, कॉफ़ी, सिगरेट और कमरे की सुस्त जर्द पीली दीवारे भी नहीं कर पाती।
और अकेलापन तकिये में मुंह छिपाये पड़ा रह जाता है।

जयपुर वाले दोस्त को याद करते हुए

रोज की ज़िन्दगी में कई चौराहे तिराहे आते हैं। ऐसी ही किसी चौराहे पर कोई हमें मिलता है बिलकुल अपनी तरह का, बेहद करीब हो जाने वाला। हम थोड़े से मिलते हैं, थोड़ा बतियाते थोडा आपस में घुलते हैं।
फिर वो चला जाता है, लेकिन बेहद कम पल वाले इस साथ के बावजूद वो पूरा जा नहीं पाता। रह जाता है थोड़ा-थोड़ा कहीं भीतर
न भूली जाने वाली स्मृतियों की तह में। फिर कभी कहीं किसी अनजान से शहर की सुस्त सड़क पर वो फिर मिल जाता है। महीनों पहले की फ़ोन पर हुई बातचीत और सालों बाद की मुलाकात के बावजूद वो वैसे ही खड़ा मिलता हैै।
बिना किसी दुराव-छिपाव, गिला-शिकवा के। उससे फिर बातें होती हैं।
बीच के जीवन में घटे को साझा करते, अपने रोज के करीबियों से न बांटे गए अपने सुख-दुःख के रहस्य को भी बाँटते ऐसा महसूस होता है मानो मन के सारे सांकड़ खुल गये हों। और अंत में फिर अपनी अपनी ज़िंदगियों में लौटते हम विदा लेते हैं- नम आँखों और संतुष्ट मन से भरे।

दिल्ली के तीन कॉमरेड...

एक जमाने की बात है।  दिल्ली में दो क्रांतिकारी रहते थे। एक राजधानी के टॉप इलाके में रहता था। टॉप बोले तो पॉश जैसे ग्रेटर कैलाश, लूटियन जोन और ऐसी ही कई सारे जगहों पर। अपने  बंगले-कोठियों में। बॉलकनी, लॉन में सुबह-शाम कॉफी की चुस्की लेते हुए। दूसरा वो था जो मुनिरका, कटवरिया सराय या ऐसे ही गली-कुचे में हर महीने कमरे का किराया भरते सुबह-शाम पानी का इंतजार करते दिखता था।
दोनों क्रांतिकारियों का कभी-कभी मिलन भी हो जाया करता।  शहर के किसी बड़े सेमिनारों में। किसी बड़े मुद्दे पर टॉप क्रांतिकारी अपनी बुलंद आवाज में नारे उछालता था। गली-कुचे वाला उन नारों को बड़े ही श्रद्धा भाव से लपकने दौड़ता, लेकिन तबतक टॉप कॉमरेड अपनी गाड़ी में फुर्र हो चुका होता।
टॉप कॉमरेड ट्विट करता था। गली कुचे वाला कॉमरेड फेसबुक पर लंबा-लंबा पोस्ट लिखता।
लेकिन एक तीसरा कॉमरेड भी था, जो टॉप कॉमरेड को रिट्विट करता और गली-कुचे वाले के पोस्ट पर जाकर गाहे-बगाहे कमेंट कर आता । ये तीसरा कॉमरेड गली-कुचे से निकल वसुंधरा-गाजियाबाद के फ्लैट में शिफ्ट हो चुका था। वो अब टॉप के संगत में रहना चाहता था। हिन्दी अखबारों में लेख लिखता, लेकिन गली-कुचे वालों से भी साथीपन बनाये रखता था। बीच-बीच में चंदा देता। वो क्रांतिकारियों के विशाल मीडिल क्लास का हिस्सा बन चुका था, जिसके पास टू बीएचके, एक बिना ड्राईवर वाली गाड़ी थी।
कभी-कभी इन तीनों तरह के क्रांतिकारियों के दर्शन जनता को भी हो जाते। कभी-कभी तीनों क्रांतिकारी जंतर-मंतर पर मिलते। टॉप के प्रति विशेष सम्मान लिये गली-कुचे वाला, गली-कुचे वाले को हिकारत से देखता टॉप वाला और दोनों के बीच सेतू की तरह डोलता मीडिलक्लासी कॉमरेड।
आगे चलकर देखा गया कि मीडिलक्लासी कॉमरेड का बेटा ही टॉप कॉमरेड बन पाया और पहले से टॉप कॉमरेड अमेरिका के किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो इस फासिस्ट कंट्री को अलविदा कह गया। गली-कुचे वाला साथी भी वसुंधरा के किसी फ्लैट में शिफ्ट हो चुका था।
कहते हैं उन्हीं दिनों देश के किसानों की जमीन छिनी जा रही थी। आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा था और क्रांति दिल्ली के किसी ट्रैफिक सिग्नल में फँसकर दबी रह गयी थी।

जवान होते लड़के का शहर…

अकेले रहना। ढ़ेर सारे दोस्तों के बीच घिरे रहना। प्रेम में डूबे रहना। दिन-दिन भर कुछ न करना। कॉलेज बंक करना। नाव लेकर गंगा के उस पार चले जाना। अशोक सिनेमा के बाहर लाइन में घंटों खड़े हो फर्स्ट शो सिनेमा का टिकट लेना। दरभंगा हाउस की तरफ गंगा किनारे बैठे रहना। कविताएँ सुनाना-पढ़ना-लिखना। यूनिवर्सिटी वाली चाय दुकान पर हाथों में अखबार लिये घंटों बहस करते रह जाना। नोट्स बनाना। एक-दूसरे को बांटने का सुख जानना। दोस्त को प्रेमिका संग सिनेमा जाने अपनी बाईक दे देना और खुशी-खुशी कॉलेज से गाँधी मैदान पैदल आ जाना। कुरता पहने, खादी का झोला लटकाए, यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के बाहर खुद को तुरम्म खां समझना। कम पैसे होने पर भी दसों लोगों के साथ खाना खा लेना। रात-रात भर फ्री टॉकटाइम वाले फोन पर बातें करते रह जाना। गाँधी मैदान में बिना काम ही दिन-दिन भर बैठे रह जाना। बोरिंग रोड में शाम ढ़ले दिल्ली को उतरते देखना। मोर्या लोक के बाहर ठेले पर दोस्तों के अच्छे नंबरों से लेकर प्रेमिका की सहमति तक के बाद पार्टी कर लेना। राजीव नगर से अशोक राजपथ तक दस किमी का सफर दिन में दो-दो, तीन-तीन बार तय करना। किसी दोस्त को छूड़ाने थाने पहुंच जाना। ट्रैफिक पुलिस को रिश्वत देना। दोस्त के लिये सेकेंड हैंड मोबाईल दिलाने चाँदनी मार्केट पहुंच जाना। महीने के खर्च से पैसे बचा बाकरगंज जाकर कलर टीवी सेट ले आना। एक स्कूटी पर तीन सवारी बैठ गुरुद्धारे में लंगर खाने चले जाना।
पटना शहर ने 16 और 18 की उम्र में घर,  दुनिया, समाज, के  लिये मेरे गुस्से,  कुंठा,अवसाद,  दुख,  प्रेम, नफरत सबको एक साथ झेला है। मेरी सफलता और असफलता में चुपके से मेरे साथ खड़ा रहा है। मेरी आत्मनिर्भर बनने की लड़ाई में, नासमझी में गलती करते, प्रेम के लिये सफल-असफल प्रयास करते यही शहर था जिसने सहारा दिया था।
पटना को उस तरह से याद नहीं कर पाता। लेकिन वो रहता है कहीं भीतर जमा हुआ। एक ऐसा शहर जिसने मेरे बचपन और जवानी के बीच के समय को एक साथ जीया है।
जब पटना में था। जबतक पटना में था। मन वहां से भाग जाने को करता। कभी गाँव। कभी किसी दूसरे बड़े शहर की तरफ। कुछ छोटे-छोटे कोमल सपने लेकर पटना आया था। इसी शहर ने बड़े सपने देखना सीखाया। ऊँगली पकड़ चलना, गिरना और फिर संभलना इसी शहर ने सिखाया।
आज दिल्ली में रहते, जीवन की राह पर गिरते-पड़ते इस शहर की कमी हमेशा खलती है, जहां पहुंचने के लिये पार करना होता था एक नदी…तय करना होता था रेल का सफर..और बोलना होता था एक व्याकरण रहित बेलौस बोली।।
(पटने का लड़का)

दो बात क्रांतिकारी लेखकों के नई देल्ही दस्ते के लिये

एक भाषा में सबसे ज्यादा साहित्यकार, लेखक हैं, जो खुद को क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हैं, लेकिन उनकी बदकिस्मती तो देखिये, बेचारों के लिखे पर आजतक एक पुलिस केस भी दर्ज न हुआ। पुलिस केस तो छोड़िये उनके लिखे को पढ़कर दो-चार सौ गालियों से भरे खत ही आ जाते सो भी न हुआ।
अरे कुछ न हुआ तो कम से कम परसाई की तरह कुछ फासिस्ट ताकतों, लंफगों से एकाध लप्पड़-थप्पड़ ही खाए लिये रहते तो समझ आता कि हां, उनके लिखे से कट्टरपंथी, सामंतवादी असहज हो गए हैं।
लगता है देश के कट्टरपंथी लुच्चे-लंफगे अहिंसा के रास्ते बढ़ चले हैं या फिर क्रांतिकारियों का लिखा उनको असहज नहीं करता। मुझे तो लंफगों की अहिंसा पर शक ही है, दूसरा विकल्प ज्यादा सटीक जान पड़ता है।
उल्टे क्रांतिकारी लेखकों ने सरकार की आलोचना करते-करते साहित्य अकादमी ले लिया, कॉर्रोपोरेट सिस्टम पर हल्ला बोला तो ज्ञानपीठ लेकर माने। कई क्रांतिकारी लेखकों को पुलिस के चक्कर लगाने पड़े भी तो पत्नी को मारने-पीटने के मामले में, गालियां खाई भी तो फेसबुक पर लड़कियों को उट-पटांग मैसेज करने में।
बस यूं ही इस्मत आपा की कागजी पैरहन पढ़ते हुए लिखने पर कोर्ट-कचहरी, गालियों से भरे खत का जिक्र आया तो क्रांतिकारियों की नई देल्ही दस्ते की तरफ ध्यान चला गया। इग्नोर इट।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...