Monday, May 25, 2015

दो बात क्रांतिकारी लेखकों के नई देल्ही दस्ते के लिये

एक भाषा में सबसे ज्यादा साहित्यकार, लेखक हैं, जो खुद को क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हैं, लेकिन उनकी बदकिस्मती तो देखिये, बेचारों के लिखे पर आजतक एक पुलिस केस भी दर्ज न हुआ। पुलिस केस तो छोड़िये उनके लिखे को पढ़कर दो-चार सौ गालियों से भरे खत ही आ जाते सो भी न हुआ।
अरे कुछ न हुआ तो कम से कम परसाई की तरह कुछ फासिस्ट ताकतों, लंफगों से एकाध लप्पड़-थप्पड़ ही खाए लिये रहते तो समझ आता कि हां, उनके लिखे से कट्टरपंथी, सामंतवादी असहज हो गए हैं।
लगता है देश के कट्टरपंथी लुच्चे-लंफगे अहिंसा के रास्ते बढ़ चले हैं या फिर क्रांतिकारियों का लिखा उनको असहज नहीं करता। मुझे तो लंफगों की अहिंसा पर शक ही है, दूसरा विकल्प ज्यादा सटीक जान पड़ता है।
उल्टे क्रांतिकारी लेखकों ने सरकार की आलोचना करते-करते साहित्य अकादमी ले लिया, कॉर्रोपोरेट सिस्टम पर हल्ला बोला तो ज्ञानपीठ लेकर माने। कई क्रांतिकारी लेखकों को पुलिस के चक्कर लगाने पड़े भी तो पत्नी को मारने-पीटने के मामले में, गालियां खाई भी तो फेसबुक पर लड़कियों को उट-पटांग मैसेज करने में।
बस यूं ही इस्मत आपा की कागजी पैरहन पढ़ते हुए लिखने पर कोर्ट-कचहरी, गालियों से भरे खत का जिक्र आया तो क्रांतिकारियों की नई देल्ही दस्ते की तरफ ध्यान चला गया। इग्नोर इट।

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