Wednesday, June 17, 2015

घर से भागे हुए लड़के

मेटिक (मेट्रिक) बोर्ड का रिजल्ट आने वाला होगा। गाँव में ये मौसम लड़कों के भागने का होता है। रिजल्ट से डरे लड़के घर से छिपकर शहर की तरफ चले जाते हैं। भागे हुए लड़के के घर में हाय तौबा का आलम होता है। सबसे पहले लड़के के दोस्तों से तफ़सील की जाती है। किसी प्यार-व्यार के मामले को जानने की कोशिश होती है। लड़के की किताब वाले ताखे में चिट्ठी या गुलाब के सूखे पत्तियों को खोजा जाता है।
फिर आसपास के गाँव तक में किसी लड़की के गायब होने की खोजबीन की जाती है। और थकहार कर लड़के के लौट आने के इंताजर किया जाता है। इस बीच मुफ्त चाय पीने की आदत वाले पड़ोसी अचानक शुभचिंतक हो जाते हैं। घर में उनका आना जाना बढ़ जाता है।
दूसरी तरफ कई बार भागे हुए लड़के के पास सिर्फ इतनी रकम होती है कि वो टिकट और दो समय का खाना खाकर पटना तक ही पहुंच पाता है। ट्रेन में बेटिकट पकड़े जाने पर कोई भलामन टीटी कभी डांट-फटकार कर घर भेज देता है। तो कभी ट्रेन उतार देता है।
उन दिनों मैंने भी कई बार भागने का प्लान बनाया। लेकिन रेलवे टीशन तक जाते-जाते हिम्मत जवाब दे जाता।
हर भागे हुए लड़के के सपनों में होता है उसका अपना एक शहर। मसलन मेरे लिये वो शहर दिल्ली थी। मैं इमेजिन करता- गर्म दुपहर में कनॉट प्लेस के किसी वातानकूलित शो रुम के बाहर अखबार बेच रहा हूं कि अचानक दरवाजा खुलता है और ऐसी की ठंडक से मन अंदर तक भींग जाता है। उस इमेजिनेशन में रहने के लिये बापानगर। नागलामाची। नागलोई। मुंडका जैसे जगह होते।
कलकत्ता और बम्बई जाने का ख्याल नहीं आता। शायद इसलिए भी क्योंकि उन दिनों सुना करता दिल्ली है दिल वालों की। कलकत्ता कंगालों की और बंबई पैसे वालों की। और मुझे दिल वाला मामला ज्यादा लुभाता था।
बहरहाल, दिल्ली आने के बाद उन जगहों पर कभी नहीं जा पाया। उन जगहों का नक्शा भी नहीं मालूम। सुनता हूं कॉमनवेल्थ के बाद नागलामाची जैसे इलाके नई देल्ही के नक्शे से हटा दिये गए हैं। नहीं पता क्या अब भी कोई भागने वाला लड़का देखता होगा नागलामाची में रहने का सपना। नहीं पता भागने वाले लड़कों के सपनों में अब आता है कौन सा शहर। नहीं पता क्या अब भी मेरे भागे हुए दोस्त मिलते हैं कनॉट प्लेस। रहते हैं बापा नगर। जो नयी देल्ही की सीमा से है बहुत दूर। नहीं पता। अपना अतीत। भूलने लगा हूं अपने लोग, रहते हुए न्यू देल्ही की सीमा में। हां, देल्ही दिल्ली नहीं है और न ही दिल वालों के लिये कुछ रखा है इस शहर में
जवान होते लड़के का शहर सीरीज से।

Friday, June 12, 2015

सुसाइडल नोट्स

"उदासीनता मृत्यु है. एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने को बचाते-बचाते अचानक देखेंगे कि बचाने की कोशिश में सब कुछ गँवा दिया है. यह ज़िन्दगी का हमारे लिखने से सही प्रतिशोध होगा- न कम न ज़्यादा. सही."- निर्मल वर्मा
पिछले कुछ दिनों से उदासीनता तारी है। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा जनवरी और फरवरी की सर्दियों में दिल्ली के सड़कों पर लंबे-लंबे वॉक करते हुए रहा था। बेवजह ही। रोज की चीजों के प्रति बेमन बना रहा था।
उस समय लगता रहा कि हो सकता है सर्दी का असर हो। या फिर लिखने के मोह का। लेकिन जून में। जेठ की तपती दोपहरों में दफ्तर में बैठे हुए चाहे कमरे में आधी रात को ठंडक की तलाश में लेटे हुए ठीक वैसी ही उदासी तारी है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि ये उदासीनता दुनिया से प्रतिशोध का ही एक फॉर्म है। उदासीनता के जड़ों को तलाशों तो वो भी कुछ स्पष्ट सा नहीं दिखता। कुछ धुंधलका सा छाया रहता है। आँखों पर बहुत जोर डालो तो अकेलेपन जैसा कुछ प्रतीत होता है। लेकिन वो भी अजीब है। अकेलापन। आसपास दिन और रात  दोस्ती, प्रेम, रिश्तों से ही घिरे रहने के बाद का यह अकेलापन बहुत अजीब सा है।
फिर धुंधलके के बावजूद पास जाकर उस अकेलेपन को टटोलने की कोशिश करो तो समझ आता है कि सारा दुख न कह पाने का है। उससे भी ज्यादा क्या कहना है ये समझ न आने का है। कोई भी ऐसा नहीं जिसे हाथ पकड़कर बैठा लिया जाय और सबकुछ कह दिया जाय। कोई भी ऐसा नहीं जिसे कहने के सारे जोखिम उठा लिये जाये। मन में हमेशा गलत समझे जाने का खतरा बना रहता है।
और फिर जब कुछ कहने का कथ्य खुद भी पता न हो तो ये डर कितना और बढ़ जाता है न। इस बीच जबरदस्ती दुनिया से भागने का ख्याल भी आता रहा है। इस बीच गायब हो जाने का मोह बढ़ा है। अपने ही अस्तित्व को खत्म करने के प्रति अट्रैक्ट हुआ हूं। जी चाहता है सारे बाहरी संपर्क खत्म हों। जी चाहता है एक सुबह उठो और दुनिया के लिये अजनबी हो जाओ। लेकिन इन सबके लिये हिम्मत नहीं पड़ता।
कभी-कभी तो यहां तक कि लगने लगता है इस बोसीदा सी जिन्दगी को अलविदा कहा जाय। मानो जितना जीना था, जितना भोगना था, जितना कहना और लिखना था। पूरा हो चुका है। अब कुछ भी नया नहीं। स्थिरता के सिवा। जिसे कहा जाना चाहिए, जिसे भोगने का लोभ बचा हो, जिसे जीने का मोह बाकी हो।
लगता है। एक ही उम्र में कई सारी जिन्दगी बीताने के लिये मजबूर किया जा रहा हो। और एक जिन्दगी जीने के बाद दूसरे के प्रति मोह न बचा हो। मृत्यु से पहले अक्सर लोगों को जीवन के प्रति मोह करते देखा है, लेकिन जीवन के भीतर ही एक जीवन-सा जी लेने के बाद दूसरे की दहलीज में घुसने की हिम्मत शायद बची नहीं है।
कुछ दिनों बाद 25 साल का होउंगा। कितना कुछ था जो किया जाना था इस 25 से पहले। कितना कुछ था जिसे जिया जाना था इस 25 से पहले। लेकिन सबकुछ हाथ में रखे रेत की तरह फिसलता चला गया।
क्या मुमकिन नहीं है कि आने वाले 25 और साल ऐसे ही गुजर जायें और मैं 50 की उम्र में फिर से यही सब कहते हुए किसी पार्क के खाली बेंच पर बैठा मिलूं।
अब मन होता है कह दूं...अगला 25 साल। अगला एक जीवन और। न। नहीं हो पायेगा। छूट्टी करो। 
निर्मल ने सही कहा है लिखने के मोह में खुद को खोते चले जाना ही जीवन का हमारे खिलाफ असली प्रतिशोध होगा।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...