Thursday, August 23, 2012

निकहत से क्यों नहीं मिलते नीतीश!

nikhat sang phansi



देश में लगातार एक खास समुदाय के लोगों को आतंकी कौम घोषित करने की अघोषित साजिश चल रही है। इस साजिश के तहत ही आजमगढ़ जैसे उत्तर प्रदेश के कई इलाकों को आतंकी जमीन घोषित करने की साजिश भी चली लेकिन अब लगता है कि आजमगढ़ की अगली कड़ी बिहार के दरभंगा और मधुबनी जैसे इलाकों को बनाने की तैयारी सुरक्षा एजेंसियों ने शुरू कर दी है।
कुछ महीने पहले कर्नाटक से आई एटीएस की टीम ने बिना राज्य सरकार को सूचना दिए दरभंगा से कई युवकों को गिरफ्तार किया था और असंयोग से ये सभी मुस्लिम समुदाय के ही थे। उस समय मीडिया में खबरे आई कि इन गिरफ्तारियों से बिहार की सुशासन की सरकार बहुत गुस्से में है, सुशासन बाबू ने भी बढ़चढ़ कर अपने गुस्से का इजहार किया। लेकिन अन्य सारे नाट्य कर्म जो नीतीश बाबू अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के लिए और मुस्लिम वोट के सहारे प्रधानमंत्री बनने तक के सपने को पूरा करने के लिए कर रहे हैं ये बयानबाजी भी उसी की एक कड़ी नजर आ रही है।
नीतीश बाबू लगातार खुद को अल्पसंख्यक हितैषी घोषित करते आ रहे हैं, जबकि वे देश की सबसे घोर साम्प्रदायिक पार्टी के साथ लंबे अरसे से सत्ता-लाभ भी ले रहे हैं। इसी मामले को देखें तो दरभंगा में हो रही गिरफ्तारियों के खिलाफ जिस तरह से नीतीश सरकार की तरफ से बयान आ रहे थे लग रहा था कि अल्पसंख्यकों के लिए नीतीश बाबू के दिल में कांग्रेसिया दर्द से भी ज्यादा दर्द छिपा बैठा है लेकिन हकीकत में ये सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो इन गिरफ्तारियों पर वे सिर्फ बयानबाजी करते या फिर चिट्ठी लिखते नहीं रह जाते। सच्चाई तो ये है कि सुरक्षा एजेंसियों के आगे नीतीश सरकार ही नहीं खुद केन्द्र सरकार भी लाचार नजर आ रही है। वैसे आप सबको मालूम है कि कांग्रेस पार्टी के नेता सबसे ज्यादा अपने अल्पसंख्यक प्रेम को मीडिया के सामने जाहिर करते रहते हैं। ये अलग बात है कि कांग्रेस सरकार में आतंकी के नाम पर अनेकों ऐसे मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारियां हुई जो बाद में निर्दोष साबित हुए। इसी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने फशीं मुहम्मद के मामले में बार-बार झूठ बोले और अपने बयान बदले।
हाल ही में अपनी शादी में भारत आये थे फँसी 
दरभंगा के युवक फशीं मुहम्मद सउदी अरब में इंजिनियर के रूप में कार्यरत थे। 13 मई को वे अपने घर में खाना खाने की तैयारी कर ही रहे थे कि तभी में दो सउदी पुलिस और दो भारतीय उनकों गिरफ्तार करने उनके घर पर आयी। उनको बिना वारंट के पूछताछ के नाम पर अपने साथ ले गए। पुलिस ने फशीं की पत्नी निकहत को कहा कि कुछ आरोप होने की वजह से फशीं को भारत भेजा जा रहा है। इसके बाद 16 मई को निकहत भी भारत आ गयी। यहां उन्होंने भारत सरकार के सुरक्षा एजेंसियों से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों तक सबसे मुलाकात की। सबने एक ही बात कही कि हमें फशीं मुहम्मद की तलाश नहीं है और न ही हमने उन्हें गिरफ्तार किया है। लेकिन फिर भी सवाल तो उठता ही है कि एक भारतीय नागरिक की विदेश में गिरफ्तारी पर सरकार की क्या जिम्मेदारी बनती है। हद तो तब हो जाता है जब न्याय के लिए निकहत उच्चतम न्यायालय पहुंचती है और फिर सरकार को फशीं एक आतंकी नजर आने लगता है और आनन-फानन में वो रेड कार्नर नोटिस जारी कर कहती है कि फशीं 2010 से फरार है। सरकार भूल जाती है कि इसी देश की राजधानी दिल्ली के एयरपोर्ट से इस बीच अपनी शादी से लेकर घर के अन्य कामों से फशीं घर आता जाता है। पुलिस उस समय उसे गिरफ्तार नहीं करती है। फिलहाल तो सरकार फशीं के गिरफ्तारी का हु खुलासा नहीं कर रही है।
देश की जांच एजेंसियां किस पूर्वाग्रह से काम करती है इसका उदाहरण है कि लगातार पकड़े गए मुस्लिम युवक बेगुनाह साबित हो रहे हैं। भले इन एजेंसियों के पूर्वाग्रह के कारण उन्हें तीन साल से लेकर बारह साल तक जेल में रहना पड़ रहा है, उनकी जिंदगी बर्बाद हो रही है लेकिन सवाल के घेरे में तो सबसे ज्यादा सरकार है। क्योंकि केन्द्र सरकार भी उसी पूर्वाग्रह से काम करती नजर आ रही है। हाल ही में अमरीका के सुरक्षा प्रमुख ने मुसलमानों के बारे में विवादास्पद बयान दिया है। हर काम में अमरीका का पिछलग्गू बन कर वाहवाही लूटने में लगी सरकार लगता है अल्पसंख्यकों के मामले में भी अपने बड़े भाई का अनुकरण कर रही है।
लेकिन बिहार की नीतीश सरकार इतना हो-हल्ला मचाने के बाद भी अपने राज्य के मुस्लिम युवकों को क्यों नहीं बचा पा रही है। अभी तक किसी भी सरकारी प्रतिनिधि ने निकहत से मिलने की जहमत नहीं उठायी। वो लगातार नीतीश से मिलने की कोशिश कर रही है लेकिन उसे वहां से समय तक नहीं दिया जा रहा है। अन्य अल्पसंख्यक नेता अली अनवर राज्य भर के मुस्लिमों के अगुआ बने घूमते हैं लेकिन वे भी पीड़ित परिवार से मिलने की जहमत नहीं कर पाये हैं।
दरअसल, नेताओं की ये प्रवृति कोई छिपी हुई चीज नहीं है। सभी देश में बढ़ रहे अल्पसंख्यक वोट को बटोरने के प्रयास में लगे हुए हैं। किसी को अल्पसंख्यकों के सवाल को लेकर कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। हां ये अलग बात है कि मीडिया के सहारे ये लोग अपने अल्पसंख्यक प्रेम को जगजाहिर करते रहते हैं और अल्पसंख्यक समुदाय भी इनके बहकावे में आता रहता है।
फिलहाल निकहत सउदी अरब जाकर अपने पति से मिलना चाह रही है लेकिन सरकार की तरफ से उसके वीजा पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है। निकहत चाहती है कि फशीं को जल्द से जल्द सरकार भारत लाए और उसपर कानूनी कार्यवायी करे क्योंकि उसे अब भी देश के कानून पर भरोसा है। 
एक सॉफ्टवेर इंजिनियर है फँसी 

Monday, August 20, 2012

“लूट लई अर्जुन मुंडबा”



लूट लई है राज हमराहो रो राजा ह लूट लई हो रजबा।
लूट लई नागपुर रजवा हो।बीच में कोई जोड़ता है – “लूट लई  अर्जुन मुंडबा
फिर समवेत स्वर में- अर्जुन मुंडवा हमरे के कर अ हई कृषि भूमि क विनाश , लूट लई हे अर्जुन मुंडबा
नगरी गांव की महिलाएं अपने जमीन पर रोपाई करते हुए ये लोकगीत गा रही थी। उन्हीं में से एक मंजुला टोकस मुझे इस गाने का अर्थ समझाती है- हमारा राज लूटा जा रहा हैहमारा सोना है ये जमीनहमारा हीरा है ये जमीन। तुम क्यों रो रही होअर्जुन मुंडा हमारे कृषि भूमि का विनाश कर रहा है। पिछले कुछ महीनों से चर्चित रांची से 15 किमी दूर नगरी वो गांव है जहां सरकार ने आईआईएमआईआईटीलॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान खोलने के लिए गरीब आदिवासियों की जमीन को हड़पने का एलान कर दिया है।
  हमलोग 15 अगस्त को उस समय नगरी पहुंचेजब आदिवासी अपनी उसी जमीन पर रोपाई का काम कर रहे थेजिसको लेकर पिछले कुछ महीनों से सरकार और इनके बीच आर-पार की लड़ाई चल रही है। सड़क से कुछ दूरी पर ही पुलिस की एक वैनडीएसपी की गाड़ी लगी हुई थीजो माहौल में व्याप्त तनाव का और भारी कर रही थी। खेत में रोपाई का काम कर रही महिलाओं से जब मैं पूछता हूं कि पुलिस और सरकार को इस तरह चुनौती देने में डर नहीं लगता?”  तो उनमें से एक तपाक से कहती है : डरबे काहेमर जईबई लेकिन अपन जमीन नई छोड़बे। कौनो चोरी है अपन जमीन पर रोपाई कर रहे हैं।करीब आठ महीनों से इन आदिवासियों का साथ दे रही और झारखण्ड की लगभग हर आंदोलन की प्रतीक बन गई दयामणि वारला भी वहीं जमीन पर बैठ कर रोटी खा रही हैं। वे हमारी तरफ रोटी बढ़ाते हुए कहती हैं- आज 15 अगस्त आजादी का दिन है। आज ही के दिन हमारा देश आजाद हुआ था और आज ही के दिन हम नगरी वाले भी अपनी जमीन पर रोपाई करके अपनी आजादी की घोषणा करते हैं।वे आगे समझाते हुए कहती हैंआजादी का क्या मतलब होता है। यही न की हम जी सकेखा सके तो हम जीने और खाने के लिए रोपाई शुरू कर आजादी का जश्न मना रहे हैं।बातचीत के बीच में ही वहां मौजूद महिलायें हमसे बड़े प्यार से रोटी खाने की जिद्द करने लगती हैं। हम भी थोड़े ना-नुकुर के बाद वहीं बैठ कर रोटी खाने लगते हैं। खाने के दरम्यान ही दयामणि और वहां मौजूद महिलाएं हमें पूरी घटना बता रही हैं कि
2008 में
 कैसे 2008 में ही सरकार ने रिंग रोड के नाम पर उनसे जमीन मांगी थी और उन्होंने बिना ना-नाकुर के मुआवजा लेकर जमीन दे दी थी। उस समय उन्होंने सोचा था कि सड़क विकास के लिए जरूरी है इसलिए जमीन दे देनी चाहिए। लेकिन उन्हें क्या पता था कि ये सड़क उनके लिए नहीं बल्कि कथित विकास के नाम पर कॉरपोरेट हित को साधने और देश में तेजी से पनप रहे अपर मिडिल क्लास की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनकर तैयार हुआ है।
1957 में
नगरी में जमीन के लिए यह लड़ाई नई नहीं है। 1957 में भी बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के लिए सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की बात हुई थी। लेकिन उस समय कुल 153 रैयतों में से 25 ने ही सरकार से जमीन के पैसे लिए थे। बाकि लोगों के हिस्से के पैसे सरकार ने ट्रेजरी में डाल दिये थे। उस समय के आंदोलनकारी जवाहरलाल नेहरू से मिले थे। तब नेहरू ने भरोसा दिलाया था कि उनकी जमीन नहीं हड़पी जाएगी।
2012 में
अब सरकार कह रही है कि जमीन हमारी है और इस जमीन पर आदिवासियों ने अवैध कब्जा जमा रखा है। यहां सरकार खुद अपने ही कामों से सवाल के घेरे में आ गई है। बड़ा सवाल है कि अगर जमीन सरकार की थी तो फिर 2008 में रिंग रोड के लिए ली जाने वाली जमीन का मुआवजा इन नगरी वालों को क्यों दिया गया?

न्याय भी सवालों के घेरे में,
नगरी के आंदोलनकारी अपनी जमीन बचाने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा ठक-ठकाते हैं लेकिन उन्हें यहां से भी निराशा ही हाथ लगती है। हाईकोर्ट सरकार के पक्ष में फैसला देती है। दूसरी ओर देश के सबसे बड़े न्याय के मंदिर का दरवाजा तक नगरी वालों के लिए नहीं खुलता है। सुप्रीम कोर्ट इस केस को यह कर देखने से इन्कार कर देती है कि ये केस 50 साल पुराना हैजबकि याद हो कि यही कोर्ट बाबरी-राम मंदिर वाले इससे भी पुराने केस को बड़े ही गंभीरता से लेती है।
दूसरी बात जिस जमीन को लेकर विवाद है उस जमीन पर एक लॉ यूनिवर्सिटी भी प्रस्तावित हैजिसमें ज्यादातर बड़े पद किसी जज को ही दिया जाता है। ऐसे में देखें तो मामला जजों के हित से भी जुड़ा है और इसलिए हितों के टकराव का भी मामला बनता है। शायद यही वजह है कि बार काउंसिल भी नगरी वालों के खिलाफ जनहित याचिका दायर करता है और हाईकोर्ट उस जमीन को 48 घंटे के भीतर कब्जे में लेने का आदेश भी दे देता है।

उपजाऊ जमीन और उसर जमीन का मामला-
देश भर में  जमीन बचाने को लेकर चल रहे आंदोलनों को विकास विरोधी बता कर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन समझने की जरूरत है कि ऐसे आंदोलन न तो विकास विरोधी है और न ही आईआईएम जैसे संस्थान का। अभी नगरी में जिस जमीन पर विवाद चल  रहा है उससे करीब दो किमी दूर 1900 एकड़ उसर जमीन खाली पड़ी है।  जमीन बचाने को लेकर चल रहे आंदोलनों के नेता भी इस बात पर आश्यचर्य जताते हैं कि आखिर सरकार को परती जमीन क्यों नहीं दिख पाता।

राज्य के दूसरे आंदोलन पर प्रभाव-
नगरी-आंदोलन झारखण्ड में चल रहे ऐसे ही लगभग 40 आंदोलनों को दिशा देने का काम कर रहा है। लातेहार से लेकर सिमडेगा तक लोग अपने जमीन पर रोपाई का काम शुरू कर चुके हैं। नगरी में चले लंबे अनशन ने भी बढ़िया प्रभाव डाला है।
महिलाओं की भागीदारी

विकास विरोधी नहींलेकिन बुनियादी विकास हो

जमीन सिर्फ पैसे और मुआवजा भर का मामला नहीं

सरकारी दमन
आईआईएम किसके लिए

ग्रेटर रांची का विस्तारिकरण

झारखण्ड के आदिवासी नेताओं का सच-
बीजेपी के पांच विधायक जिसमें आदिवासी आयोग के अध्यक्ष भी। इस्तीफा देने के नाम पर बिदके

झारखण्ड सरकार ने कुल 104 एमओयू पर साइन किया है।

Sunday, August 19, 2012

मां तुम पछताओगी


गर्भ समापन होगा कल सुन,
कन्या का दिल डोल उठा।
माँ मुझको आ जाने दो न,
कन्या भ्रूण यह बोल उठा।

       बेटा और बेटी दोनों ही
       एक समान पीड़ा से होते,
        बेटे की सब खुशी मनाते,
        क्यों मेरे आने पर रोते।
मां मैं आश्वासन देती हूं,
तेरी पीड़ा को समझुँगी
जब भी तू बीमार पड़ेगी
सेवा तेरी खूब करूंगी।

अपने छोटे हाँथों से मां,
हाथ बटाउंगी मैं तेरी,
भैया को सबकुछ देना,
दूजा नम्बर होगा मेरा।

                                  मुझको मत धिकयाओ मम्मा,
                                   खूब पढूंगी, खूब लिखूंगी।
                                 बनू कल्पना या विलियम में
                                  जग में तेरा नाम करूंगी।
                                 इंदिरा गांधी भी मिहला थी,
                                 पूर्व राष्ट्रपति भी थी महिला।

अफसोस मुझे नष्ट कर देनेवाली,
क्रूर डाक्टर भी है महिला।

यदि नहीं मानोगी मां तुम,
एक समय पछताओगी
बेटे की दुल्हन ढूंढोगी
कहीं नहीं फिर पाओगी।

मां एक दिन तुम पछताओगी,
एक दिन तुम पछताओगी।

मिल भी जाएगी यदि लड़की,
तुम  पर अब विश्वास नहीं है।
कोख कत्ल करने वाली मां,
कल बहु को नहीं जलाओगी,
  मां एक दिन तुम पछताओगी, एक दिन तुम पछताओगी।

-
अनामिका भारद्वाज, रघुनाथपुर बक्सर की रहने वाली हैं और दसवीं की छात्रा हैं।

Saturday, August 4, 2012

इंतजार।


इंतजार


मैंने कहा रोटी
तुमने कहा इंतजार करो
मैंने कहा कागज
तुमने कहा इंतजार करो
मैंने कहा नौकरी
तुमने फिर कहा इंतजार करो
मैंने कहा बदलाव
तुमने फिर घिसा-सा उत्तर दिया -इंतजार करो।
मैं भी उन लाखों-करोड़ो लोगों की भीड़ में शामिल हो गया
जो इंतजार करते हैं...राशन की दुकानों पर, राहत शिविरों के कैम्पों में,
कभी वो इंतजार करते दिखते हैं मुझे
कब तक इंतजार?
रोजगार कार्यालय के दफ्तरों में,
समय और जगह तय करती है उम्र इस इंतजार करती भीड़ की।
पेंशन की लाइन में ये भीड़ बहुत थकी-सी, बुढाई सी नजर आती है
तो रोजगार के लिए बुलाए किसी दफ्तर के बाहर खड़ी ये भीड़
अचानक से बदल जाती है जोश से भरे किसी शोर में
लेकिन जल्द ही उठने लगती है वहां से- हताश, निराश, विक्षोभ से भरे धीमे-धीमे स्वर।
ये भीड़ कभी-कभी
शहरी, मध्यवर्गीय घरों के ड्रांइग रुम में रिमोट दबाते आदमी की शक्ल में बदल जाती है
जो हर सरकार को कोसती, तेल की कीमत बढ़ोत्तरी
पर भी करता है पांच साल और इंतजार।
मेरा इस भीड़ में घुटने लगता है -दम
मैं भागने की कोशिश में
करने लगता हूं
इंतजार।

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...