Monday, August 20, 2012

“लूट लई अर्जुन मुंडबा”



लूट लई है राज हमराहो रो राजा ह लूट लई हो रजबा।
लूट लई नागपुर रजवा हो।बीच में कोई जोड़ता है – “लूट लई  अर्जुन मुंडबा
फिर समवेत स्वर में- अर्जुन मुंडवा हमरे के कर अ हई कृषि भूमि क विनाश , लूट लई हे अर्जुन मुंडबा
नगरी गांव की महिलाएं अपने जमीन पर रोपाई करते हुए ये लोकगीत गा रही थी। उन्हीं में से एक मंजुला टोकस मुझे इस गाने का अर्थ समझाती है- हमारा राज लूटा जा रहा हैहमारा सोना है ये जमीनहमारा हीरा है ये जमीन। तुम क्यों रो रही होअर्जुन मुंडा हमारे कृषि भूमि का विनाश कर रहा है। पिछले कुछ महीनों से चर्चित रांची से 15 किमी दूर नगरी वो गांव है जहां सरकार ने आईआईएमआईआईटीलॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान खोलने के लिए गरीब आदिवासियों की जमीन को हड़पने का एलान कर दिया है।
  हमलोग 15 अगस्त को उस समय नगरी पहुंचेजब आदिवासी अपनी उसी जमीन पर रोपाई का काम कर रहे थेजिसको लेकर पिछले कुछ महीनों से सरकार और इनके बीच आर-पार की लड़ाई चल रही है। सड़क से कुछ दूरी पर ही पुलिस की एक वैनडीएसपी की गाड़ी लगी हुई थीजो माहौल में व्याप्त तनाव का और भारी कर रही थी। खेत में रोपाई का काम कर रही महिलाओं से जब मैं पूछता हूं कि पुलिस और सरकार को इस तरह चुनौती देने में डर नहीं लगता?”  तो उनमें से एक तपाक से कहती है : डरबे काहेमर जईबई लेकिन अपन जमीन नई छोड़बे। कौनो चोरी है अपन जमीन पर रोपाई कर रहे हैं।करीब आठ महीनों से इन आदिवासियों का साथ दे रही और झारखण्ड की लगभग हर आंदोलन की प्रतीक बन गई दयामणि वारला भी वहीं जमीन पर बैठ कर रोटी खा रही हैं। वे हमारी तरफ रोटी बढ़ाते हुए कहती हैं- आज 15 अगस्त आजादी का दिन है। आज ही के दिन हमारा देश आजाद हुआ था और आज ही के दिन हम नगरी वाले भी अपनी जमीन पर रोपाई करके अपनी आजादी की घोषणा करते हैं।वे आगे समझाते हुए कहती हैंआजादी का क्या मतलब होता है। यही न की हम जी सकेखा सके तो हम जीने और खाने के लिए रोपाई शुरू कर आजादी का जश्न मना रहे हैं।बातचीत के बीच में ही वहां मौजूद महिलायें हमसे बड़े प्यार से रोटी खाने की जिद्द करने लगती हैं। हम भी थोड़े ना-नुकुर के बाद वहीं बैठ कर रोटी खाने लगते हैं। खाने के दरम्यान ही दयामणि और वहां मौजूद महिलाएं हमें पूरी घटना बता रही हैं कि
2008 में
 कैसे 2008 में ही सरकार ने रिंग रोड के नाम पर उनसे जमीन मांगी थी और उन्होंने बिना ना-नाकुर के मुआवजा लेकर जमीन दे दी थी। उस समय उन्होंने सोचा था कि सड़क विकास के लिए जरूरी है इसलिए जमीन दे देनी चाहिए। लेकिन उन्हें क्या पता था कि ये सड़क उनके लिए नहीं बल्कि कथित विकास के नाम पर कॉरपोरेट हित को साधने और देश में तेजी से पनप रहे अपर मिडिल क्लास की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनकर तैयार हुआ है।
1957 में
नगरी में जमीन के लिए यह लड़ाई नई नहीं है। 1957 में भी बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के लिए सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की बात हुई थी। लेकिन उस समय कुल 153 रैयतों में से 25 ने ही सरकार से जमीन के पैसे लिए थे। बाकि लोगों के हिस्से के पैसे सरकार ने ट्रेजरी में डाल दिये थे। उस समय के आंदोलनकारी जवाहरलाल नेहरू से मिले थे। तब नेहरू ने भरोसा दिलाया था कि उनकी जमीन नहीं हड़पी जाएगी।
2012 में
अब सरकार कह रही है कि जमीन हमारी है और इस जमीन पर आदिवासियों ने अवैध कब्जा जमा रखा है। यहां सरकार खुद अपने ही कामों से सवाल के घेरे में आ गई है। बड़ा सवाल है कि अगर जमीन सरकार की थी तो फिर 2008 में रिंग रोड के लिए ली जाने वाली जमीन का मुआवजा इन नगरी वालों को क्यों दिया गया?

न्याय भी सवालों के घेरे में,
नगरी के आंदोलनकारी अपनी जमीन बचाने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा ठक-ठकाते हैं लेकिन उन्हें यहां से भी निराशा ही हाथ लगती है। हाईकोर्ट सरकार के पक्ष में फैसला देती है। दूसरी ओर देश के सबसे बड़े न्याय के मंदिर का दरवाजा तक नगरी वालों के लिए नहीं खुलता है। सुप्रीम कोर्ट इस केस को यह कर देखने से इन्कार कर देती है कि ये केस 50 साल पुराना हैजबकि याद हो कि यही कोर्ट बाबरी-राम मंदिर वाले इससे भी पुराने केस को बड़े ही गंभीरता से लेती है।
दूसरी बात जिस जमीन को लेकर विवाद है उस जमीन पर एक लॉ यूनिवर्सिटी भी प्रस्तावित हैजिसमें ज्यादातर बड़े पद किसी जज को ही दिया जाता है। ऐसे में देखें तो मामला जजों के हित से भी जुड़ा है और इसलिए हितों के टकराव का भी मामला बनता है। शायद यही वजह है कि बार काउंसिल भी नगरी वालों के खिलाफ जनहित याचिका दायर करता है और हाईकोर्ट उस जमीन को 48 घंटे के भीतर कब्जे में लेने का आदेश भी दे देता है।

उपजाऊ जमीन और उसर जमीन का मामला-
देश भर में  जमीन बचाने को लेकर चल रहे आंदोलनों को विकास विरोधी बता कर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन समझने की जरूरत है कि ऐसे आंदोलन न तो विकास विरोधी है और न ही आईआईएम जैसे संस्थान का। अभी नगरी में जिस जमीन पर विवाद चल  रहा है उससे करीब दो किमी दूर 1900 एकड़ उसर जमीन खाली पड़ी है।  जमीन बचाने को लेकर चल रहे आंदोलनों के नेता भी इस बात पर आश्यचर्य जताते हैं कि आखिर सरकार को परती जमीन क्यों नहीं दिख पाता।

राज्य के दूसरे आंदोलन पर प्रभाव-
नगरी-आंदोलन झारखण्ड में चल रहे ऐसे ही लगभग 40 आंदोलनों को दिशा देने का काम कर रहा है। लातेहार से लेकर सिमडेगा तक लोग अपने जमीन पर रोपाई का काम शुरू कर चुके हैं। नगरी में चले लंबे अनशन ने भी बढ़िया प्रभाव डाला है।
महिलाओं की भागीदारी

विकास विरोधी नहींलेकिन बुनियादी विकास हो

जमीन सिर्फ पैसे और मुआवजा भर का मामला नहीं

सरकारी दमन
आईआईएम किसके लिए

ग्रेटर रांची का विस्तारिकरण

झारखण्ड के आदिवासी नेताओं का सच-
बीजेपी के पांच विधायक जिसमें आदिवासी आयोग के अध्यक्ष भी। इस्तीफा देने के नाम पर बिदके

झारखण्ड सरकार ने कुल 104 एमओयू पर साइन किया है।

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