Monday, May 25, 2015

जयपुर वाले दोस्त को याद करते हुए

रोज की ज़िन्दगी में कई चौराहे तिराहे आते हैं। ऐसी ही किसी चौराहे पर कोई हमें मिलता है बिलकुल अपनी तरह का, बेहद करीब हो जाने वाला। हम थोड़े से मिलते हैं, थोड़ा बतियाते थोडा आपस में घुलते हैं।
फिर वो चला जाता है, लेकिन बेहद कम पल वाले इस साथ के बावजूद वो पूरा जा नहीं पाता। रह जाता है थोड़ा-थोड़ा कहीं भीतर
न भूली जाने वाली स्मृतियों की तह में। फिर कभी कहीं किसी अनजान से शहर की सुस्त सड़क पर वो फिर मिल जाता है। महीनों पहले की फ़ोन पर हुई बातचीत और सालों बाद की मुलाकात के बावजूद वो वैसे ही खड़ा मिलता हैै।
बिना किसी दुराव-छिपाव, गिला-शिकवा के। उससे फिर बातें होती हैं।
बीच के जीवन में घटे को साझा करते, अपने रोज के करीबियों से न बांटे गए अपने सुख-दुःख के रहस्य को भी बाँटते ऐसा महसूस होता है मानो मन के सारे सांकड़ खुल गये हों। और अंत में फिर अपनी अपनी ज़िंदगियों में लौटते हम विदा लेते हैं- नम आँखों और संतुष्ट मन से भरे।

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