Tuesday, August 2, 2016

पिता

बचपन में बहुत दिन तक, तुम बने रहे उम्मीद का दूसरा नाम
लगता रहा
तुम हो यहीं कहीं
पुकारने पर आ जाओगे- झटपट
पीठ पर महसूसता रहा – तुम्हारी आँखें
बहुत दिनों तक
तुम्हारी आँखें हर सही गलत करते वक़्त
लगा घूर रही हैं मुझे
मैं अकेले में भी नही कर पाया
बचपन में की जाने वाली बदमाशियां
इस तरह पूरा बचपन महसूस होते रहे
तुम
सोता रहा चैन की नींद तुम्हारे ही भरोसे
और चोरी-छिपे आता रहा
रोने, बताने
अकेले उस कोठरी में जहाँ टंगी है तुम्हारी वह तस्वीर,
जिसमें तुम्हारी आँखें हैं बड़ी गोल-गोल
और होंठ मुस्कुराते हुए, आँखें शून्य को ताकते
तुम्हारी अनुपस्थिति बहुत बाद में मालूम हुई, जब होश संभाला, बड़ा हुआ
जब दुःख झेलने लगा,
जब माँ को अकेले में रोते देखता रहा- एकटक, चुपचाप
और कोई आँसू पोंछने नही आया
जब किस्सों में सुनता रहा तुम्हारी बातें
तुम्हारा संघर्ष,
तभी उस तस्वीर का मतलब समझ आया- जिसमें तुमने लहरा रखे हैं हाथ अपने हवा में,
और तुम उसी दिन मेरे जीवन से चले गए
मेरे ख्यालों में तुम बन गए
एक लाल सूरज
एक जादुई यथार्थ
अब वो तुम्हारी दो आँखें नही दिखती
वो लाल सूरज दीखता है
तुम्हारे आने का भरोसा नहीं आता
एक अफ़सोस आता है
दो आँखें नहीं महसूस होती,
एक भरम के टूटने का दुख घर कर जाता है ।
अब अकेले में रोने में कोई उम्मीद नही नज़र आती
और बड़े होने का दुःख और गहरा हो जाता है….

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