Tuesday, August 2, 2016

अकेले हो जाने का फैसला

हमारे यहाँ ‘अकेले रहना है’ का decision लेना कितना कठिन है न !
अकेले रहने को एक अजीब से डर और संदेह से भर दिया गया है। परिवार, प्रेम, रिश्ते सबको एक धागे में बांधना पड़ता है। लेकिन सबकुछ एक बंधन से ज्यादा क्या है? अपने खुद के अकेलेपन को भी छीन कर ही हासिल किया जा सकता है। जाहिर है अकेले रहने का सुख जब तक समझ आता है बहुत देर हो चुकी होती है। आपको कोई न कोई एक धागा तोड़ना होता है। और ये टूटना मन को कितना गिल्ट से भर देता है। उस मुलायम से धागे से एक मोह बंधा रहता है। अगर एक झटके में धागे के बंधन को तोड़ दो , तो जीवन भर लंबे रगड़ के बाद पड़े निशान को ढोना ही पड़ेगा।
क्या सच में आपसी समझ से उस धागे को खोलना बहुत मुश्किल है? जबकि हम सब किसी खास क्षण में अकेले होने को एन्जॉय करते हैं। उस अकेलेपन में बरसों पीछे छूट चुकी कवितायेँ वापिस लौट आती हैं, आप शायरी करने लगते हैं, खोज-खोज कर सैडिस्ट गाने सुनते हैं, खूब लिखना चाहते हैं, नयी किताब शुरू करते हैं, किसी कैफ़े में खुद को एक कप कॉफ़ी ऑफर करते हैं, नए लोगों से खूब बातें होने लगती हैं, जिनके किसी धागे में बंधने का डर नही। आप कभी दुःख में डूबते हैं, फिर जीने की ठानते हैं, गिरते हैं, अचानक low फील करते हैं , फिर हवा में उड़ने का मन करने लगता है, उस छूट गए धागे के लिए मन में कोई गिला- शिकवा नही बचता, बस प्रेम आता है, जीवन का फलक बहुत विशाल लगने लगता है, खुली हवा को मुंह खोल अंदर भरने का मन होता है।
मन के खाली जगह को पत्ते, पेड़, पार्क में पड़ा खाली बेंच, लॉन्ग ड्राइव, लंबे वॉक, शाम, दुपहर, बारिश की टप टप, डायरी के पन्ने, फिल्म, शहर की कोई एक्टिविटी, प्रदर्शन कितना कुछ है, जो भरने लगते हैं। हमें थोड़ी देर रुकने का वक़्त मिलता है, खुद को कई बार लहरों के साथ बहने देने का मन होता है, तो कभी रूककर चुपचाप नदी को बहते देखने में सुख लगता है। खुद से शायद पहली बार इतनी मुहब्बत होती है, हम अपने ही प्रेम में पड़ जाते हैं। अपने उस अकेलेपन में हम सबसे ओरिजिनल होते हैं। दुनियादारी में ये अकेलापन भले फैन्टेसी जैसा लगे, कई अर्थों में मानसिक रोग जैसा भी, लेकिन अपने खुद के लिए वही सच, अपना यथार्थ समझ आता है। 

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