कुछ लोग कितने अपने से लगते हैं। दूर होकर भी।बिना किसी भेंट मुलाक़ात के। बिना कहे सुने वे अपने लगते हैं। ऐसे लोगों को आप बस जाते हुए देखते हैं। उनके लिए आप इतने सेंटिमेंटल होते हैं कि आप उनको रोकने से डरते हैं। आप उन्हें पीछे से आवाज़ नही लगा पाते- बहुत चाहने के बावजूद।
आप डरते हैं उस सामने वाले की अच्छाइयों, भावुकताओं और ईमानदारी से। आप डरते हैं- उस इमेज के टूट जाने से, जिसने आपके मन में उस सेंटिमेंट को गढ़ा है। ये सेंटीमेंट इतना गाढ़ा बन पड़ता है कि आप उसके सामने झूठ नहीं बोल पाते। अगर दुखी हैं तो हो सकता है आप हालचाल पूछने जैसी सामान्य बात पर भी उसके सामने रो दें। ऐसे अनजान लोगों के बीच फूट फूट कर रोना कितना अजीब होता होगा न!
ऐसे लोगों से मिलने से पहले हम सुख का इंतज़ार करते हैं- सुख में ही बात की जा सकती है। जब तक सुख न हो- तब तक आप बस उन्हें कनखियों से गुजरते हुए देखते रह जाते हैं। और फिर करीब जाने के बाद अलग हो जाना कितना painful प्रोसेस है न?
ऐसे लोगों से मिलने से पहले हम सुख का इंतज़ार करते हैं- सुख में ही बात की जा सकती है। जब तक सुख न हो- तब तक आप बस उन्हें कनखियों से गुजरते हुए देखते रह जाते हैं। और फिर करीब जाने के बाद अलग हो जाना कितना painful प्रोसेस है न?
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