Saturday, April 12, 2014

गली के चौराहे पर मिलते हैं हर रोज : गुलजार के शब्द

गुलजार को अपने कैमरे में कैद किया था। पटना लिटरेचर फेस्ट में।

"मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।
"


गुलजार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने की खबर ने मन को संतोष से भर दिया है। गुलजार से इत्ता लगाव। पता नहीं क्यों, शायद उनके शब्द ज्यादा करीबीयत का एहसास कराते हैं । उनके शब्दों से अपने  घर-आंगन-दालान और नुक्कड़-चौराहे पर हर रोज मुलाकात होती रहती है।


गुलजार के शब्दों के प्रति प्यार के लिए एक वाकया शेयर कर रहा हूं। भोपाल से लौट रहा था। पटना के लिए। इटारसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन काफी देर रुकती है। मैं घूमते-घामते पहुंच गया किताब स्टॉल पर। नजर गयी गुलजार की किताब "पन्द्रह पाँच पचहत्तर" पर। लेकिन नहीं। किताब की कीमत 200 रुपये। मेरे जेब में सिर्फ 300 के नोट पड़े थे। मतलब 100 रुपये में पटना पहुंचना था। पूरे बीस घंटे के सफर को तय करने के लिए 100 रुपये कम ही होते हैं।


लेकिन किताब के पहले पन्ने पर ही कुछ कविताओं के हेडिंग पढ़कर ही- 'हिचकी-हिचकी बारिश आई' तो 'सर में कैक्टस उगे' और 'आसमान की कनपट्टियां पकने लगी', 'शहर ये बुजुर्ग लगने लगा'। नतीजा, किताब खरीदने से खुद को रोक न सका।  मुझे  याद आता है कि पटना जंक्शन पर उतरते वक्त मेरे जेब में सिर्फ दस का एक नोट बचा रह गया था। तो गुलजार के शब्दों की यही अहमियत है जो उनपर लगे लाख तोहमत एक तरफ और उनकी नज्म एक तरफ।


गुलजार के शब्दों का लैंडस्केप प्रकृति के विशाल फलक से लेकर हमारे निजी अँधेरे कमरे तक फैला हुआ है। गुलजार खुद कहते हैं कि शायरी सिर्फ अल्फ़ाज का फ़न नहीं, उसमें मौसीक़ी और मुसव्वरी दोनों शामिल है। वो न हों तो नज्म सिर्फ एक बयान बन के रह जाती है। न रस- न रंग।


गुलजार साहब को बधाईयों के साथ उनकी कलकत्ता पर लिखी एक कविता साझा कर रहा हूं। जो उन्होंने पन्द्रह पाँच पचहत्तर संग्रह में शहर ये बुजुर्ग लगता है शीर्षक से लिखी है। तीन बार टिकट कैंसल करवाने के बावजूद कलकत्ता जाने की ख्वाहिश इस कविता ने फिर बढ़ा दी है।

कलकत्ता (कोलकाता)


कभी देखा है बिल्डिंग में, किसी सीढ़ी के नीचे,
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाए मैले दाँतों की तरह

कुछ फ्यूज वाली प्लेट्स रक्खी हैं।

पुराने पेच, मेंखें जो निकाली थीं, वहीं रक्खी हैं, कोने में
कई रंगों की तारों के सिरे जोड़े हुए सीढी के नीचे,
  ठोककर कीलें,

कई धागों से बाँधे होल्डर पर बल्ब नंगा झूलता है
बेहया बदमाश लड़के की तरह जो
खिलखिला के हँसता रहता है  ! 


बहुत कटती हैं तारें, फ्यूज उड़ते हैं
मगर बत्ती हमेशा जलती रहती है
ये कलकत्ता है कलकत्ता !
बहसूरत हमेशा जिन्दा रहता है  !!!

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