Sunday, April 13, 2014

खुद से बात #1

बहुत तेजी से लग रहा कि श्रेष्ठता के अजीब बोध से भर गए लोग हैं हम।
अच्छा लिखना, शब्दों को चुन चुन कर बुनना। अच्छी तस्वीर लेना। ये सब उतना ही सामान्य या असाधारण है जितना आगंन में बैठी माँ का चावल बीनना या फिर घर में बैठी भाभी का चूल्हे पर रोटी सेंकना।

बहुत कुछ है जो इस आत्ममुग्धता से, किसी थोपे या प्रमोट किए गए महानता के उस पार इंतजार में है।

मैं जानता हूं अच्छी नहीं लिख पाता, अपने शब्दों में जादू नहीं भर पाता, दो-चार लोगों की ताली की जरुरत भी नहीं।


लेकिन फिर भी स्ट्रांगली फील करता हूं कि आत्ममुग्धता के फेर में फंसे लोगों के बीच उचक-उचक कर उस पार देखने की कोशिश करता रहता हूं।


लिखने-पढ़ने वालों को अपने काम की साधारणता को स्वीकार करना चाहिए।

श्रेष्ठता का बोध लिये बिना अपने कर्म करते चलिये....खुद को अच्छा लगेगा।

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