Tuesday, April 22, 2014

सुनील भाई का चले जाना


स्तब्ध हूं। हमसब। हमारी पूरी टीम। महान संघर्ष समिति के कार्यकर्ता। सभी। सुनील भाई नहीं रहे। महान की लड़ाई को सिंगरौली से लेकर भोपाल तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा करने वाले सुनील भाई। महान संघर्ष समिति को लेकर उनकी चिंताओं, उनके सुझावों की जरुरत आज भी है लेकिन वो नहीं हैं। हमारे बीच से उठकर चल दिए। बिना कहे।

पिछले कुछ दिनों से एम्स में भर्ती थे। रात 11.30 बजे उनके निधन की खबर मिली। उसी समय मन आसूँओं से भींग गया। कुछेक लोगों को खबर करके बैठा तो बहुत कुछ सोचने लगा। मन हुआ कुछ लिखूं । लेकिन वो भी नहीं लिखा पाया।

अभी जब उनके चले जाने को कुछ घंटा बीत चुका है। और जब  मैं यह लिख रहा हूं तो उसी समय दिल्ली में उनका शरीर भी हमसे विदा हो रहा होगा।

लेकिन सुनील भाई जैसे लोग क्या सच में इस दुनिया से चले जाते होंगे ? क्या उनके शरीर के जाने भर से वो प्रेरणा चली जायेगी जो उनके केसला में संघर्ष से पैदा हुआ है, या फिर वो ऊर्जा खत्म हो जायेगी जिसने उन्हें जेएनयू जैसे संभ्रांत विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद भी किसी सरकारी नौकरी में जाने की बजाय केसला में आदिवासियों की लड़ाई के लिए प्रेरित किया होगा।

नहीं।

सुनील भाई जैसे लोग सिर्फ एक शरीर थोड़े न हैं कि जिसके चले जाने से सुनील भाई का अस्तित्व भी चला जायेगा। आज अगर सिंगरौली से लेकर केसला तक, भोपाल से लेकर दिल्ली तक आदिवासियों और हाशिये पर खड़े लोगों की आँखों में आँसू है तो सुनील भाई उन्हीं आँसूओं में कहीं जरुर बैठे हैं।

सुनील भाई जेएनयू में अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। जेएनयू का यह वह जमाना था जहां से हरेक पढ़ने वाला छात्र या तो सीविल सेवाओं में या फिर बड़े यूनिवर्सिटि में प्रोफेसर बनता था।
अभी तक के जेएनयू की तरह ही उस समय भी वहां कई ऐसे युवा थे जिनके सपनों से लेकर बहसों तक में हाशिये के लोग हुआ करते थे। लेकिन कैंपस के बाद बहस छूट जाता और सपने बदल जाते थे।

लेकिन सुनील भाई ने कैंपस की समतल धरती से निकल मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों को अपना कार्य  क्षेत्र बनाया। विस्थापितों की लड़ाई लड़ी। किशन पटनायक को अपना आदर्श मानते हुए सामायिक वार्ता जैसी पत्रिकाओं का संपादन करते हुए जनसरोकारी पत्रकारिता को जारी रखने का जोखिम उठाया।

सुनील भाई ने वह सब किया जिसका हम जैसे तमाम नौजवान कैंपस में रहते हुए सपने  देखा करते हैं। और कैंपस से निकल भूल जाया करते हैं।

सुनील भाई से पहली मुलाकात पिछले साल ही अगस्त में हुई। सिंगरौली में महान संघर्ष समिति की तरफ से आयोजित वनाधिकार सम्मेलन में आए हुए थे। दो दिन तक उनके साथ रहा था। कई मुद्दों पर बात हुई थी। अभी पिछले महीने सामायिक वार्ता में एक लेख के लिए काफी देर तक बात हुई थी। बहुत समझाये थे। कैसे करना है...क्या करना है...किस दिशा में आगे बढ़ा जाय।


उनसे सीखने का सिलसिला अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था कि बीच में ही टूट गया। उनकी आवाज की सौम्यता, समझाने का सहज तरीका, जीने का सादा ढंग। कितना कुछ है जो प्रभावित करता है।

जानता हूं। सुनील भाई चले गए हैं। लेकिन इसके बावजूद उनका जीवन, संघर्ष, सौम्यता, सहजता, सपने, ऊर्जा हमारे बीच रह गया है।

लगता है अभी सुनील भाई अपने गर्दन पर लटकते चश्मे को आँख में लगायेंगे और चश्मे के भीतर से झांकते हुए कहेंगे- बचा कर रखना। कुछ सपने, असीम ऊर्जा, संघर्ष का साहस। जिन्दाबाद।





(सुनील भाई समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय महामंत्री थे। साथ ही सामायिक वार्ता के संपादक भी।)

(दोस्त इकबाल अभिमन्यू से दिल्ली आने के एकाध महीने बाद ही संयोगवश मुलाकात हुई थी। करीब तीन साल पहले। उसकी बातों ने काफी प्रभावित किया था। फिर कुछेक मुलाकात और लगातार बातचीत होती रही। पिछले साल ही पता चला कि वो सुनील भाई के बेटे हैं। फिर इकबाल का कहा याद आया- जेएनयू से निकल मध्यप्रदेश के गांवों में ही जाने का इरादा है। उनके दुख को समझना मुश्किल है, हिम्मत नहीं हो रही उनको फोन भी करने की। इस मुसीबत के वक्त हजारों लोग उनके साथ खड़े हैं, शायद यही बात उन्हें ताकत दे)

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