टूट कर बिखर जाने का मौसम है,
यह वह मौसम है
जब क्रान्ति..क्रान्ति चिल्ला कर
मार्क्स को अपना नाना बता कर
दुनिया को बदलना भी है
और जे.एन.यू के किसी हॉस्टल में
दोपहर का भोजन 25 रूपये में पाकर
ठूंस-ठूंस खाना भी है...ताकि रात के खाने के
पैसे बच सके
और बचे हुए पैसे से
कोई तीसरी दूनिया की पत्रिका खरीदी जा सके..
लेकिन अपने कमरे में देर रात इसी पत्रिका को
पढ़ते-पढ़ते
जब पेट के अंदर की भूख जवाब दे देती है
तब कॉरपोरेटी मीडिया को गलियाते हुए
देर रात गंगा ढ़ाबा पर 4 रूपये के एक पराठे को
किसी लाल रंग के रस में डूबा-डूबा खाना भी है
और भूख को सांत्वना देते हूए
पढ़े हूए किसी उपन्यास के नायक के संघर्ष को
याद करते हुए
कमरे पर लौटना भी है..
इस बिखड़ने के मौसम में भी
सच पूछो भगवान
पता नहीं तुम याद भी नहीं आते।
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