Tuesday, June 10, 2014

मुंबई का एक दिन


____________________
प्रेस क्लब में कॉफ्रेंस खत्म होते ही फियेट लिया। कुछ दूरी पर लाल झंडा लिये रैली में लोगों को जाते देखा तो उतर देखने चला गया। जाकर पता चला एनसीपी की मजदूर रैली है। मजदूरों के संगठन का झंडा लाल ही होता है-देख अच्छा लगा। खैर, मैं फिर फियेट में जा बैठा। फियेट या पद्मिनी मुंबई की सिगनेचर टोन माफिक है। उसमें बैठे-बैठ मुंबई को देखते चलना बेहतरीन अनुभव है खासकल मुझ जैसे रेट्रो लवर के लिए।
फियेट वाले से बात करते-करते चौपाटी पहुंच गया। कोई खास मकसद था नहीं। फियेट वाले ने पूछा भी कहां उतारुं, मैंने कहा-जहां मर्जी उतार दो। चौपाटी पर एक तस्वीर ली। कुछ देर बैठा रहा। हवा के साथ समुद्र की लहरें बार-बार किनारे आ जाती। अपनी बांहों को किनारे पड़े चट्टान में डालती और पीछे भाग जाती। काफी देर तक दोनों के इस खेल को देखता रहा। हर बार चट्टान और ज्यादा उदास होता दिखता रहा।
सर में दर्द और सर्दी ने ज्यादा देर तक वहां बैठे रहने नहीं दिया। धीरे-धीरे मैं टहलता हुआ चौपाटी से मरीन ड्राइव की ओर मुड़ गया। चौपाटी और मरीन ड्राइव के बीच समुंद्र के किनारे-किनारे सीमेंट के बने चबुतरे पर लोग बैठे रहते हैं। इनमें ज्यादातर कपल्स। इनमें एक जोड़े की फोटो मेरे साथ हो लिया- दोनों ने एक-दूसरे के लगभग उपर चेहरा रख छोड़ा था लेकिन एक धागा भर स्पेस बचा रह गया था- दोनों अपनी जीभ से उस स्पेस को बार-बार भर दे रहे थे। 
मन हुआ इनकी तस्वीर उतारी जाय। लेकिन प्यार के इतने खूबसूरत और गहरी अभिव्यक्ति को सामाजिक अश्लिलता के दायरे में धकेल दिया गया है।
खैर, दिमाग पर जो फोटो उतार लाया हूं वो काफी हैं महीनों अपने प्यार को खूबसूरत बनाते रहने के लिए।
मरीन ड्राइव से जहांगीर आर्ट गैलरी की तरफ पैदल ही निकल गया। आर्ट गैलरी से निकलने पर शाम का झुरमुट आ धमका था। थोड़ी दूर पर टी-सेन्टर देखा हुआ था। अंदर का माहौल पूरा इंटेलक्चुअल टाइप। मंहगी चाय और रुमानियत माहौल। सड़कों पर जिस चाय की वैल्यू बढ़ती मंहगाई भी छह रुपये से ज्यादा नहीं कर सका, वही चाय टी-हाउस में एक सौ बीस रुपये में मिल रही है। मेरे सर में दर्द है। मैं चाय पीउंगा। अभी मेरे पास कुछ नोट पड़े हुए हैं। चाय का प्लेट आते ही मैं उसे सूंघता हूं, फिर चम्मच से टेस्ट भी- कोई खास अंतर तो नहीं लग रहा है- शायद असम की चाय है। इससे पहले दूरदर्शन भोपाल के डायरेक्टर ने पिलायी थी बीस हजार किलो की पत्तियों वाली चाय। शायद सर्दी होने की वजह से मुझे सुगंध महसूस नहीं हो रहा (रही)।
होटल ताज के बगल में खड़ा था गेटवे ऑफ इंडिया

टी हाउस

मरीन ड्राइव


मैं संभ्रांत तौर-तरीके से चाय पीना चाहता हूं लेकिन चीनी उछल कर टेबल पर गिर ही जाता है। चाय तो मैं धीरे-धीरे ही पीता हूं- तिस पर इतनी मंहगी चाय और भी इंटलेक्चुअल फीलिंग के साथ पीने में मजा आता है।
मेरे मेज पर सामने वाली कुर्सी खाली है- अकेला होने कई बार मेरे लिए अच्छा होता है अगर बेहतर पार्टनर न हो तो। मैं कुछ इंटेलक्चुएलनुमा लोगों को देख सोचता हूं- अब मुझे एक चश्मा खरीद लेना चाहिए। पास में तीन लड़कियां बात कर रही हैं-अंग्रेजी में दो और एक सिर्फ स्माइली से काम चला ले रही है। वो भी मेरी तरह अंग्रेजी को स्माइली से झेलना जान गयी हो शायद, क्या पता। मैं चाय पीने और उसकी वेरायटी से हर आदमी के बैकग्राउंड का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं। टी-हाउस के सबसे कोने वाली सीट पर बैठे-बैठ ये अतिरिक्त सुविधा मुझे मिल गयी है। एक कप चाय के दौरान काफी कुछ सोचा जा सकता है- एक जिन्दगी जी और मरा भी जा सकता है।
टी-हाउस से निकल फियेट का इंतजार करने लगता हूं। फियेट अब मुंबई में कम हो गए हैं। सरकार ने एकाध सालों में इसे हटाने का फैसला कर लिया है। फियेट की जगह सेंट्रो ने ले ली है। हालांकि मैं फियेट का इंतजार करुंगा- उसकी सवारी मुझे विरासत की सवारी लगती है। काफी देर हो गया है लेकिन कोई फियेट नहीं आयी। मैं थोड़ा निराश हो सेंट्रो में बैठता हूं- गेटवे ऑफ इंडिया।

परिवार के लोग, कुछ पर्यटक जो गेटवे और ताज के गुंबदों को छूने के अहसास वाले पोज में फोटो खिंचा रहे हैं। मैं चुपचाप बैठ जाता हूं। चाय वाला- चाय, चाय,चाय कहकर वहां से गुजरता है लेकिन मेरी तरफ देखता भी नहीं । शायद उसने जान लिया हो- ये काईयां इन्सान है। नहीं पीयेगा चाय। मैं उसे बताना चाहता हूं- मेरे मुंह में अभी तक एक सौ बीस की चाय घुली हुई है, मैं उसे बताना चाहता हूं लेकिन वो मुझे इग्नोर मार निकल लेता है।
ये दस रुपये में कितना चना दे देता है- खत्म ही नहीं हो रहा- एक-एक दाना कुतरा जा रहा हूं। चलो खत्म तो हुआ। अब चला जाय। गेटवे से बाहर निकलने पर एक मार्केट है- इंडियनों के लिए सस्ता, विदेशियों को मंहगा।
एंटीक, कुर्ता, शर्ट सबकुछ। उसके लिए कुछ ले लेता हूं लेकिन कुछ भी पसंद नहीं हो रहा। अपने लिए एक टी-शर्ट लिया है-मुंबई के लोगो वाला। कुछ चक्कर लगा चर्च गेट के लिए टैक्सी ले लेता हूं। शुक्र है इस बार फियेट ही मिली है।

लोकल से संताक्रुज आना है मुझे। लोकल में अब मैं भी सीट पर नहीं बैठता। कई बार तो लटकने या गेट से बाहर झांकने में सुख की तलाश करता हूं, वही सुख जो लाखों मुंबईकरों को हर रोज मिलता है।
इस बीच मैंने लोकल में चढ़ने-उतरने की एक तरकीब खोज निकाली है। आप खुद को भीड़ में घुलने दो। भीड़ की लहरों में खुद को छोड़ दो- धक्का खाते कब बाहर और कब अंदर। बस ख्याल रहे कहीं किसी तीसरे स्टेशन पर अंदर से बाहर मत हो जाना।
इस बीच कुछेक दोस्तों का फोन, कुछ मैसेज का जवाब देते हुए भी मन अच्छा नहीं रहा। कई चीजें एक साथ उभर कर आड़ी-तिरछी खिंच सी गय हैं- काश, कोई दोस्त पेंटर होता- मैं उसे अपनी मन के इस आड़े-तिरछे बातों को बताता और वो इस पेंट करता।
उन एब्सट्रैक्ट रेखाओं से जो चित्र तैयार होती शायद उसमें मैं समझ पाता अपनी जिन्दगी के पन्ने को।

सी लिंक
ऑटो वाले ने ज्यादा घूमा दिया है। रास्ता मुझे याद नहीं रह पाता। पैसा देते समय शायद मैंने पचास का नोट ही थमाया है लेकिन लगा है कि सौ का दिया। ऑटो वाले ने मना किया है मैं बिगड़ गया हूं उसकी जेब पर हाथ डाल दिया है। लेकिन फिर गलती का अहसास हुआ है। शर्म से हाथ पीछे खिंच लिया है। क्या हुआ थोड़ ज्यादा पैसे ही ले लिया तो...वो भी ठीक नहीं कि लिया ही हो। मैं भी उसी सोच का शिकार हो गया- कि ऑटो वाले या गरीब लोग चोर ही होते हैं।
करता रहूं बड़ी-बड़ी बातें- क्या फर्क पड़ जाता है। व्यवहार में नंगई दिख ही जाती है। मैं चुपचाप लिफ्ट में आता हूं- बारहवें फ्लोर की बटन दबा देता हूं।
कल मेरे बाकी साथी फ्लाईट से दिल्ली जा रहे हैं, मैं ट्रेन से। खुद मना कर दिया है फ्लाईट की टिकट के लिए।
शायद एक किताब पढ़ने का लोभ है, या शायद..पता नहीं।

1 comment:

  1. पढने के बाद मुंबई का मानसिक सैर हो गया ।
    पूरा फिल्म आँखों के सामने चल गया ।
    लिखावट में सम्पूर्णता का झलक महसूस हुआ।

    ReplyDelete

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...