Tuesday, June 10, 2014

बम्बई पर कुछ स्टेट्स

बम्बई कामगारों का शहर है- अ सिटि ऑफ वर्किंग क्लास। दरअसल कामगार तो हर शहर में होते हैं लेकिन शहर के भीतर उनके लिए कितना स्पेस है ये महत्वपूर्ण है। बम्बई के लोकल में हों चाहे बेस्ट या फिर टैक्सी तक में। दस रुपये के टिकट पर शहर के इस छोर से उस छोर तक चले जाओ। ऑटो रिक्शा वाले मीटर से ही ले जाएंगे, ऑकेजनली टैक्सी में बैठ कार सा फीलिंग भी लिया जा सकता है।
आपको कहीं भी संभ्रातपन नहीं दिखेगा जो दिल्ली के मेट्रो में दिखता है। मेट्रो में तो मुझ जैसे देहात के रहने वाले को भक्का मार जाता है। माहौल में अजीब सा संभ्रांतपना घुला रहता है। तो मैं निकल रहा हूं लोकल डब्बों में बैठी भीड़ में घुल जाने के लिए।


बम्बई का मरीन ड्राइव, जुहु बीच जैसी जगह मैक-डी और सीसीडी कल्चर के खिलाफ एक विद्रोह है। यहां आप दस रुपये का भुना बदाम कुतरते हुए , छह रुपये वाली चाय की चुस्की के साथ घंटों बैठे अपने आने वाले भविष्य के सपने बुन सकते हैं।
दिल्ली में सेन्ट्रल पार्क, पालिका पार्क भी कुछ ऐसा ही है। ये जगहें उस देश के समाज और कथित संस्कृति के खिलाफ भी रिबेल है जो प्यार करने वाले अपने ही बच्चों को मौत के घाट उतारता आया है।
बांकि पटना जैसे शहरों का हाल यह है कि कपल्स छिंटा-कशी और भद्दे कमेंट से बचने के लिए मजबूर होकर मंहगे रेस्ट्रा की तरफ रुख करते हैं (अगर जेब में थोड़े पैसे हुए तो)।


बम्बई की चकाचौंध में बहुत संभव है कि आपको पता भी न चले कि इसी राज्य में विदर्भा भी है, जहां दस-बीस रुपये रोजाना भी मजदूरी नही मिलती, हजारों किसानों को आत्महत्या एक मात्र रास्ता नजर आता है। 
राजनीतिक रुप से आज तक उस क्षेत्र से कोई ऐसा नेता निकल कर नहीं आ पाया जो राज्य की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभा पाए। सुगर मिलों के सहारे राजनीति में बने बड़े लोगों ने इतना जरुर किया है सूखाग्रसित विदर्भ को मिलने वाले पानी को पावर प्लांटों को बांट दिया है।


बॉम्बे में शिवसेना वाम संगठनों के उपर पैर रखकर खड़ी हुई है। टेक्सटाइल और तमाम दूसरे कारखानों के कामगार मजदूरों का शहर रहा है बम्बई। इन कामगारों के बीच वाम संगठन-यूनियन काफी मजबूत भी था। अस्सी के दशक में कई फिल्मों में हड़ताल, मिल-मालिक के शोषण की खिलाफत वगैरह में इसकी झलक देखी जा सकती है।
लेकिन नब्बे आते-आते शिवसेना ने मराठी मानुष का नारा देकर इन संगठनों को तोड़ दिया। और हमेशा की तरह इस बार भी वाम संगठन इस आईडेंटी पॉलिटिक्स को टुकुर-टुकुर देखते रहे- कोई रास्ता नहीं।


बम्बई स्ट्रीट शहर है। स्ट्रीट फूड, बारिश में छाता खोले स्ट्रीट वॉक, स्ट्रीट से सट-सटा चलते लोकल-बेस्ट, शहर के वसीयतनामे की तरह स्ट्रीट कार सेवा (टैक्सी), आपस में स्ट्रीट संवाद सबकुछ है इधर। मतलब आपके लेवल पर उतर ही उतर कर बात करेगा ये शहर आपसे।
और एक बात है- भीड़ और टाइम का रोना सिर्फ मुंबई ही नहीं लगभग हर शहर का है। देश के शहरों को इन दोनों को इन्जवॉय करना सीख लेना चाहिए।


दादर, ठाणे, कल्याण, अंधेरी, बोरवली, कुर्ला। आईला, ये सब नाम फिल्मों ने जेहन में फिट कर रखा है। शायद इसलिए बंबई अजनबी-सा फील नहीं दे रहा। हर लोकल स्टेशन, टैक्सी, बेस्ट (बस), लोगों की हिन्दी सब जानी-पहचानी सी लग रिया है।
कुर्ला से लोकल वाया परेल होते हुए सीएसटी की तरफ। प्रेस क्लब और कॉफी हाउस का जायजा भी लिया जाएगा।
आपके पास टाइम हो तो (सॉरी मुंबई में किसी के पास टाइम नको)..


कल चर्चगेट से संताक्रूज के लिए लोकल में बैठा। मुंबई सेन्ट्रल से आगे बढ़ने पर पता चला कि पहला दर्जा (फर्स्ट क्लास) में बैठ गया हूं। झट एक मुंबई के साथी को फोन किया। घिर..घिर.. के बीच इतना ही सुन पाया- नये आदमी को देख हजार-दो हजार फाइन।
अगले स्टेशन पर लोकल से लगभग कूदते हुए पिछे वाले गेट से अंदर हो लिया।
सुन रखा था, देख भी लिया- बंबई है पैसे वालों की।


गणेश विसर्जन के दिन बम्बई पहुंचा हूं। गणेश विसर्जन के दौरान हर राजनीतिक दल ने अपना-अपना स्टॉल लगा रखा है। सभी पार्टियां गणेश को अपने-अपने दुकान से बेच रहे हैं- कांग्रेस, भाजपा, मनसे सब हैं।
सेकुलरिज्म एक मिट्टी का खिलौना है इस देश में। जिसे हरेक पार्टी खेलती और तोड़ती रहती है।

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