Thursday, February 16, 2017

अँधेरे में रहते हुए

हम सब एक अँधेरे को जी रहे हैं। हम सब नहीं शायद सिर्फ मैं। मैं पूरी दुनिया की तरफ से अपनी बात नहीं कह सकता। खाली दिन हैं...शायद नहीं...खुद ही खाली सा है।
फरवरी की दुपहरें कितनी लंबी होती हैं, उतनी खामोश भी और रातें उदास।
बस एक शाम का वक्त है जो इन दिनों राहत सी लेकर आती है।  गुमनामी के अँधेरे में भी ये बातचीत बनी रहे...मोमबत्ती की रौशनी ही सही, कुछ तो दिखना चाहिए...हल्की सी भी उम्मीद की तरह।
हालांकि उम्मीद अपने आप में बड़ा सा झूठ जैसा है। लगता है उम्मीद है वहां, वहां पहुंचो तो पता चलता है वो कहीं दूर झिटक कर जा गिरा है।  हम फिर उस दूरी को तय करने की कोशिश करने लगते हैँ।
शायद सिसफश सी जिन्दगी है.....उम्मीद एक पत्थर है हम हर रोज, हर बार कोशिश करते हैं और पत्थर को उपर पहुंचा आते हैं, जब लौटते हैं तो पाते हैं पत्थर फिर लूढ़क कर वापिस अपनी जगह लौट आया है...
हम रातभर सुस्ता फिर पत्थर को उपर ले जाने की सुबह वाली तैयारी करते हैं। पता नहीं नॉनसेंस सा कुछ भी टाइप कर रहा हूं।
आजकल एक नशा सा लगता है। लगता है किसी हैंगओवर में सबकुछ लिख रहा हूं, जी रहा हूं, कह रहा हूं।

रहती है रोशनी
लेकिन दीखता है अँधेरा
तो
कसूर
अँधेरे का तो नहीं हुआ न
और
न रोशनी का
किसका कसूर?
जानने के लिए
आइना भी कैसे देखू
कि अँधेरा जो है
मेरे लिए
रोशनी के बावजूद

वेणु गोपाल

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