तस्वीरें आती रहती हैं। याद बनकर। कभी मेट्रो की। कभी किसी मेले की। कभी किसी कमरे की। कभी किसी कैफे की। कभी पहाड़ों की। कभी गंगा किनारे की। तस्वीरें आती रहती हैं लौट-लौट कर। बस नहीं लौटता तो.....
वे दिन..
कभी-कभी सोचता हूं डिलीट क्यों नहीं करता। तस्वीरें, यादें और जिन्दगी सबकुछ को।
तस्वीरें आती रहती हैं
कभी पैरों के जोड़े बनकर
कभी माथे में चिपकी बड़ी बिन्दी बनकर
कभी कान से लटकता झूमका
कभी जयपुर का लंहगा
कभी आँचल रंगीन
तस्वीरें आती रहती हैं
कभी मंडी हाउस की
उँगलियों में फँसी सिगरेट की
रंग महोत्सव की
उस घर की।
कभी किसी जंगल की, कभी गाँव की
तस्वीरें आती रहती हैं
गजरे की और दो कप साथ के चाय की।
शर्माये से चेहरे की
ढ़ेर सारे फूलों की
एकदूसरे को मुंह चिढ़ाने की
पीली रौशनी और केक खाने को बाया बड़ा सा मुंह
तस्वीरें आती रहती हैं...पुराने पुराने गलियों की
नावों की, बनारस की
भोपाल की, साईकिल की..
जेएनयू की, ढ़ाबे की, मिठायी की
ट्रेन की, पानी की, झरने की,
पुराने जैकेट की, सिंगरौली की...
और
तस्वीरें आती रहती हैं,
नये लोगों की...
बस वो नहीं आते, जिनका आना तय था।
वे दिन..
कभी-कभी सोचता हूं डिलीट क्यों नहीं करता। तस्वीरें, यादें और जिन्दगी सबकुछ को।
तस्वीरें आती रहती हैं
कभी पैरों के जोड़े बनकर
कभी माथे में चिपकी बड़ी बिन्दी बनकर
कभी कान से लटकता झूमका
कभी जयपुर का लंहगा
कभी आँचल रंगीन
तस्वीरें आती रहती हैं
कभी मंडी हाउस की
उँगलियों में फँसी सिगरेट की
रंग महोत्सव की
उस घर की।
कभी किसी जंगल की, कभी गाँव की
तस्वीरें आती रहती हैं
गजरे की और दो कप साथ के चाय की।
शर्माये से चेहरे की
ढ़ेर सारे फूलों की
एकदूसरे को मुंह चिढ़ाने की
पीली रौशनी और केक खाने को बाया बड़ा सा मुंह
तस्वीरें आती रहती हैं...पुराने पुराने गलियों की
नावों की, बनारस की
भोपाल की, साईकिल की..
जेएनयू की, ढ़ाबे की, मिठायी की
ट्रेन की, पानी की, झरने की,
पुराने जैकेट की, सिंगरौली की...
और
तस्वीरें आती रहती हैं,
नये लोगों की...
बस वो नहीं आते, जिनका आना तय था।
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