Tuesday, January 29, 2013

दरअसल कई बार एकतरफा होना बेहतर है।

दरअसल कई बार एकतरफा होना बेहतर है। कम से कम लगता तो ऐसा ही है। हालांकि, फैसला आपका होने के बावजूद सजा भी तो उतनी ही आपकी हो जाती है। पेंडुलम की तरह झूलते हुए हर पल कभी दिल, कभी दिमाग को छूकर लौटना किसी यातना की तरह ही तो है। जो अपके भीतर के ही किसी जेल में घट रही होती है। उस वक्त लगता है कि काश एकतरफा हुआ जा सकता। और यही सब चलता रहता है। अरसे तक। वक्त तक। और हम खुद को ऐसे ही नापते रह जाते हैं। तय न हुए किसी लम्हे तक।


अपने आप में चाहिए, नहीं चहिए की कई तख्तियां टंगी होती है। इन तख्तियों के इर्द गिर्द घूमते हुए कई बार आप चंदन से टकरा जाते हैं। सब उसे ‘गुनाहों का देवता’ बोलते हैं। यह समझ आ रहा होता है कि आप भी खुद को करना चाहिए की संभव सीमा तक धकेल रहे हैं। आप सोचते हो। उसे। खुद को। उसे। कि कितना पागलपन भरा है कुछ सोचना। ये भी कि मुझे कुछ नहीं सोचना। या मैं कुछ नहीं सोच रहा। उस वक्त आप महूसते हैं। एक मनोभाव, कुछ कदम, कई सारे शब्द उन आसुंओ जैसे हो चुके हैं जो गले में अटके हैं।
इन तमाम बातों जैसा वो दिन भी बावला था। मैं हर कुछ घंटों में देखती थी। मैं खुद को रोक नहीं पाती थी लास्ट सीन देखने से। (last seen today at 11:33 pm)। पता था हर बार देखने से और चिढ ही होनी है पर..। मैं वक्त बदलते देखते थी। वक्त मुझे। बहुत कुछ था जो मुझे नाप रहा था। मैं शायद यह देखना चाहती थी कि मैं इस समय को कैसे तय करती हूं। क्या बचा पाती हूं? क्या इकट्ठा कर पाती हूं? क्या जी पाती हूं? क्या छोड़ पाती हूं? मैं चाहती हूं कि बताऊं कि मैं उस दिन कहना चाहती थी कि ‘कैन आई हियर यू’। मैं चाहती थी किसी अननोन नंबर से तुम्हारी आवाज, हलो सुनना। बेशक दिवानापन है, था।  तुम याद कर सकते हो कि उस दिन क्या हुआ होगा? कुछ नहीं हुआ  दरअसल।
एक जिद थी जो भीतर लगातार पुख्ता हो रही थी। जो सिखाना चाह रही थी कि अपनों को जगह देना सीखो। उतनी जगह जिनमें वो एक गहरी सांस ले सकें। एक लंबी सांस जो अगली बार की एक लंबी डुबकी से पहले सीने में भर जाए। एक जगह जो खाली होने के बावजूद तुम्हारे भरोसे और प्यार से भर पाए। एक जगह जो इत्मिनान दे। जगह जो वक्त दे। एक जगह जो किसी को उसकी जगह दे। एक दूरी जो लौटा भी लाए उसे तुम तक। इस सब के बावजूद।
मेरी सारी तख्तियां कह रही थीं यह सब। वो समझा रही थीं। मैं समझ भी गई थी। लिखते लिखते समझ आ रहा है कि उस समय मैं भी एकतरफा हो ही गई थी। और ये भी कि एकतरफा होना आसान तो पता नहीं कितना पर बेहतर ही है।
 
साभार- शोभा के की-बोर्ड से (ब्लॉग मेरा जहां से )

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