Thursday, August 16, 2018

सांप्रदायिक राजनीति के सबसे छुपे और घातक चेहरे थे अटल बिहारी वाजपेयी, अलविदा।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मरने की खबर के बाद देशभर में उनके प्रशंसक शोक में डूबे हैं। वाजपेयी की एक खास बात थी कि उन्हें कट्टर हिन्दू राजनीति करने वाले तो पसंद करते ही थे, वे आजीवन कट्टर धार्मिक राजनीति को बढ़ावा देने वाली राजनीति के साथ ही खड़े रहे। लेकिन फिर भी देश के उदारवादी और सेक्यूलर तबके में भी उनकी लोकप्रियता बनी रही।

वाजपेयी को कई चीजों के लिये याद किया जायेगा। उनके मरने के पहले से ही सोशल मीडिया से लेकर बड़े-बड़े मीडिया हाउस तक हर कोई उन्हें महान नेता बनाने में तुले हुए हैं। ऐसे वक्त में इतिहास को पलटना जरुरी हो जाता है। उन अध्यायों को देखना जरुरी हो जाता है जिससे अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का संपूर्ण मूल्यांकन हो सके।

हालांकि हमारे देश में मरने के बाद बुरे आदमी के बारे में भी अच्छा-अच्छा ही बोलने का रिवाज है। लेकिन अगर बात किसी पूर्व प्रधानमंत्री की हो, देश के इतिहास में दर्ज एक महत्वपूर्ण नेता की हो तो मुझे लगता है कि अगर उसका पूरा मूल्यांकन किया जाना जरुरी है, नहीं तो न वो सिर्फ इतिहास के साथ बल्कि आने वाले भविष्य के लिये नाइंसाफी ही होगी।

अमूमन देश का उदारवादी तबका अटल बिहारी वाजपेयी को सेक्यूलर और कट्टरपंथ से मुक्त नेता मानते हैं। मैं भी सालों तक वाजपेयी को महान नेता मानता रहा लेकिन इतिहास कुछ और ही बताता है। वो बताता है कि 14 मई 1970 को जनसंघ के सासंद के रूप में सदन में बोलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि मुस्लिम हर दंगे और सांप्रदायिक तनाव के जिम्मेदार हैं। वे कहते हैं कि ‘दंगा शुरू क्यों होता है? मैं सदन से मांग करता हूं कि वो इसपर विचार करे। मैं किसी परिणाम पर नहीं पहुंचा हूं। कुछ मुस्लिम दंगा शुरू करते हैं यह जानते हुए कि उनकी जिन्दगी और संपत्ति खतरे में है। ऐसा लगता है कि मुस्लिमों ने सोच लिया है कि भारत में उनके लिये जगह नहीं है, उनका कोई अभिभावक नहीं है, इसलिए जीने से अच्छा है कि मर जाया जाये। दूसरी वजह हो सकती है कि कुछ मुस्लिम पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं, तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण वजह जो दिखता है कि मुस्लिम नेता मुस्लिमों को राष्ट्रीय मुख्यधारा से नहीं जोड़ने देना चाहते।’

जाहिर है जो वाजपेयी संसद में बोल रहे थे ये विचारधारा और मत आजतक उनके संगठन आऱएसएस के लोग बोलते रहते हैं।

सन् 1983 में भी, अटल बिहारी वाजपेयी ने असम में चुनावी हिंसा और विदेशियों के बाहर करने के मुद्दे पर विवादास्पद बयान दिया था। याद रहे कि ये वही वक्त था जब असम में खासकर नेली में हजारों मुस्लिमों को मार दिया गया था। बाद में 28 मई 1996 को इन्द्रजीत गुप्ता ने संसद में उस विवादित भाषण के हिस्से को पढ़ा था जिसमें वाजपेयी कहते हैं- ‘ विदेशी यहां आये और सरकार ने कुछ नहीं किया। अगर वे असम के बदले पंजाब में आये होते तो लोग उन्हें काट कर वापिस फेंक देते’।

अपने कुप्रसिद्ध गोवा भाषण में अटल वाजपेयी कहते हैं, जहां जहां मुसलमान हैं, घुलमिलकर नहीं रहते हैं। इतना ही नहीं मुस्लिम विरोध में आगे कहते हैं, दूसरों से घुलना मिलना नहीं चाहते। शांतिपूर्ण तरीके से प्रचार करने के बजाय आतंकवाद से डरा-धमका कर अपने मत का प्रचार करना चाहते हैं।
वे धमकी भरे स्वर में कहते हैं हमने उन्हें (मुस्लिम और क्रिश्चन) को अपना धर्म फॉलो करने दिया है।
वाजपेयी यहीं नहीं रुकते और कहते हैं, हर जगह जहां मुस्लिम बहुत संख्या में रहते हैं, उनकी चिंता है कि कहीं इस्लाम उग्र रूप ना ले ले।
वो मुसलमामों पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, मुस्लिम लगातार सांप्रदायिक होते जा रहे हैं।

मई 1995 में पांचजन्य में लिखे आर्टिकल में वाजपेयी आरएसएस की तारीफ करते हुए कहते हैं कि ‘संघ को हिन्दुओं को इकट्ठा कर, मजबूत हिन्दू समाज बनाना चाहिए।’
वाजपेयी की 1998 में बनी सरकार के बाद लागातार देशभर में क्रिश्चन समुदाय पर जिस तरह हमले बढे थे उसे भी नहीं भूला जा सकता है।

हालांकि कुछ लिबरल लोग वाजपेयी को सांप्रदायिक नहीं मानते। उनका तर्क होता है कि उन्होंने गुजरात दंगों के वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस्तीफ़ा मांग लिया था। लेकिन दूसरी तरफ हकीकत है कि उसी गुजरात दंगे में हजारों मुस्लिमों की हत्या कर दी गयी थी, महिलाओं के साथ बालात्कार हुए थे और राज्य सरकार कानून व्यवस्था को लागू करने में असफल रही थी। कई मंत्रियों और बीजेपी के नेताओं पर दंगा करवाने का आरोप लगा, चार्जशीट दाखिल हुए थी। इतना सब होने के बावजूद वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी की सरकार को हटाने का साहस नहीं किया। वहां के स्थिति को सामान्य बनाने के लिये छह महीने के लिये भी राष्ट्रपति शासन नहीं लगा सके। उल्टे कुछ ही दिनों बाद गोवा में अपने भाषण में मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलते नजर आये।

ठीक ऐसा ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढ़हाने के समय भी वाजपेयी ने किया। उन्होंने मस्जिद गिराने से पहले ‘जमीन को समतल’ करने वाला विवादित भाषण दिया और फिर दिल्ली आकर अपने ही पार्टी के खिलाफ धरने पर बैठ गए। राजनीति को करीब से जानने वाले इसे वाजपेयी की नाटकियता मानते हैं। बीजेपी को सत्ता में आना था और वो जानती थी कि अपनी कट्टर छवि के साथ वो सत्ता में कभी नहीं आ पायेगी। इसलिए उसे वाजपेयी का उदारवादी चेहरा चाहिए था जो मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में अपनी पैठ बना सके और ऐसा हुआ भी।

गैर-भाजपाई पृष्ठभूमि के लोगों ने भी वाजपेयी को खूब पसंद किया। उन्हें उदारवादी माना।

अटल बिहारी वाजपेयी को इसलिए भी याद रखा जायेगा क्योंकि उन्होंने धर्म की कट्टर राजनीति को पूंजीपतियों के साथ जोड़ा। उनके प्रधानमंत्री रहते ही देश में विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया गया, कई सारे सरकारी उपक्रम को बेचकर उसे निजी हाथों में दिया गया और चुनावी राजनीति में शाइनिंग इंडिया जैसा प्रोपगेंडा शुरू हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो आजकल हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी के रास्ते ही आगे बढ़ रहे हैं। हिन्दुत्व का एजेंडा छिपाकर दिखाने के लिये विकास की बात कर रहे हैं।

हालांकि अटल जी को भारत-पाकिस्तान के बीच दोस्ती के प्रयास के लिये भी याद किया जायेगा। भले वो प्रयास काफी असफल रहा।

फिलहाल इस लेख को अटल बिहार वाजपेयी की आत्मा को शांति मिलने की कामना के साथ खत्म करता हूं।

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