Tuesday, April 9, 2024

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी झिलमिल.

जैसे मेरा मन. झिलमिल. लेकिन झिलमिल के बाद की शांति भी. कबीर को सुनते हुए. पूरी दुनिया एक अजीब से एक तरीके की जिन्दगी में. रिल्स. सीरीज. नौकरी. फाईनेंस. एसआईपी. फिर कहीं लॉन्ग वीकेंड का चक्कर.

इस जाल में फँसे रहने का. जान कर भी. 


छोटे-छोटे दिन कितने खूबसूरत हो सकते हैं. खुद को सजा कर किसी बाजार में घूम आना. उसके न रहने पर मैं कैसे बेकाबू हो जाता हूं. बेकाबू. 


अब तक. इतने सालों में. बेकाबू. भटकता. सयाना बनते रहने की कोशिश. 

फिर क्या करें? खुद को काबू? कहो तो

कितनी शांति है. एक ग्लास आधी भरी वाइन जैसी. एक जलती हुई सिगरेट. जो उँगलियों से मुंह तक आने की कोशिश में है.

उतनी ही शांति. एक उम्मीद की शांति. कुछ खोज लेने की.

No comments:

Post a Comment

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...