Friday, May 4, 2018

पुल का खोजते रहना

आज फेसबुक पर स्क्रॉल करते हुए दिव्या, स्मारिका और मिकी के प्रोफाइल पर चला गया। वो होता है न कि कहीं पहुंचना आप चाह रहे होते हैं तो वहां तक पहुंचने के लिये कई सेतु खोजने की कोशिश करते हैं।

पुराने दिनों में लौटने का पुल। कैसे कैसे लोग बदल गए, कैसे लोगों की जिन्दगी में बहुत आगे चली गयी।

बस हम रुके रहे। वहां पुराने मोहल्ले में। गंगा के किनारे कविताएँ पढ़ते हुए। पीछे साईकिल चोरी हो गयी है।

अच्छा वो समोसे की दुकान बंद हो गयी है। गांधी मैदान वाले लिट्टी के ठेले अब ज्यादा तड़क-भड़क भरे हो गए हैं। लेकिन खैर,


कुछ चीजों का लौटना नहीं होता....

 क्या ऐसे भी बुदबुदाया जा सकता है?  कुछ जो न कहा जा सके,  जो रहे हमेशा ही चलता भीतर  एक हाथ भर की दूरी पर रहने वाली बातें, उन बातों को याद क...