उस कमरे में लाल रौशनी थी. पूरा कमरा ही लाल था. इतना लाल की चेहरे का रंग भी लाल दिखने लगा.
वो उस कमरे के एक लाल कोने में बैठी थी. कमरे के ऊपर छत नहीं थी.
छत के ऊपर का रंग काले और लाल रंग का मिक्स था.
आसपास सारे घर टूटे पड़े थे, पूरा शहर टूटा पड़ा था, लोग टूटे पड़े थे, लोगों के टूटने से पहले विचारों का टूटना हुआ था, विचारो के टूटने से पहले संवेदनाएँ बिखरी थीं. संवेदनाओं ने पानी को खत्म किया, पानी ने नदियों को, पहाड़ों को और जंगलों को. नदी, पहाड़, जंगल के लिये जरुरी था पानी का बचे रहना.
फिर पूरा देश ही बिखर गया. जैसे कोई बड़ा युद्ध हुआ हो. बस वो कमरा बचा रह गया था,
कमरा नहीं बस उसकी दिवारें, लाल दिवारें, उनके बीच लाल रंग और लाल कोना. जहां वो बैठी थी. अपने घुटनों को पेट में घुसाये.
आँखों को घुटनों में घुसाये. सारे बिखराव को आँख मीच कर खत्म कर देने की कोशिशों में.
तभी उसे दूर नदी की आवाज सुनायी पड़ी. उससे भी दूर सरहद के पार एक सूखा हुआ पेड़ जिसमें एक पत्ता लटक रहा था.
पत्ते का रंग लाल था.
जो अभी भी टूटा नहीं था.
उसी लाल रंग से कमरे तक लाल रौशनी आ रही थी. जहां वो अब भी घुटनों में मुंह घुसाये बैठी थी.