रेशमा चार साल की थी जब उसके बाप ने उसे कानपुर रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया
था। आज उसकी उम्र 28 साल है। पिछले चौबीस सालों से वो एक ऐसी गलती की सजा भुगत रही
है जो उसने की ही नहीं।
रेशमा एक किन्नर है। वही
किन्नर जिसे हमारा समाज हमेशा कौतुहल से देखता है, वही किन्नर जिसे हर-रोज हमारे
हिकारत भरी नजरों का सामना करना पड़ता है। देश में लगभग पांच से दस लाख किन्नर हैं।
लेकिन किसी भी पार्टी या सरकार के लिए इनका कोई महत्व नहीं है। किन्नरों को हर
किसी ने अपने भाग्य भरोसे छोड़ रखा है।चाहे उसके मां-बाप हों या सरकार या फिर
हमारा जागरूक समाज।
अगर हमें राह चलते,ट्रेनों
में, बसों में कोई किन्नर मिल जाता है तो हम उसके हरकतों को देखकर हंसते हैं, डरते
हैं और अंत में परेशान होकर कुछ पैसे उसकी तरफ उछाल देते हैं। लेकिन हम कभी जानने
की कोशिश नहीं करते इन किन्नरों के बारे में, इनके रहन-सहन के बारे में, इनके दिल
में उठने वाले हलचलों के बारे में। हम नहीं सोचते कि ताली बजाकर रूपये ऐंठने का
अलावा भी इनकी निजी जिंदगी है जो समाज के उपहास, उपेक्षा को झेलने के लिए अभिशप्त
है। वो किन्नर जो न तो बच्चे पैदा कर सकते हैं और न ही सेक्स।
भगवान राम और धर्म ने इनको भी
छला है। राम कथा के अनुसार इन किन्नरों को राम ने शुभ काम के लिए अति-शुभ बताया था।
तब से ये किन्नर कुछ शुभ अवसरों पर तालियां बजा कर नाचने,बधाई देकर अपना पेट भरने
को अभिशप्त हैं। हमारे समाज में इन किन्नरों के लिए इससे ज्यादा जगह नहीं है। उनके
नौकरी करने की कोई व्यवस्था नहीं है। न तो वो अपना कोई व्यवसाय कर सकते हैं। अपना
पेट भरने के लिए इन्हें अपने जिस्म तक का सौदा करना पड़ता है क्योंकि इनके शरीर का
उपरी हिस्सा कुछ-कुछ औरतों से मिलता है ,जो हमेशा से मर्दों के वहसीपन का विशेष
आकर्षण रहा है।
हारमोनल इनबायलेंस के कारण आयी एक बिमारी की वजह से किन्नरों को समाज
के हाशिये पर धकेला जाता है। सैंकड़ों वर्षों से उपेक्षित किन्नरों को हिजड़ा और
छक्का तक कहा जाता है। ये शब्द आम-बोलचाल में हम गाली के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
हमेशा से हमारे मनोरंजन के साधन रहे इन किन्नरों को समाज यदि सही जगह नहीं दे पाता
है तो फिर ऐसे समाज पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होना चाहिए।
हमारे यहां सदियों से
उपेक्षित नारी और दलित के सवालों को लेकर बहुतों उठ खड़े हुए हैं। लेकिन क्या ये
वक्त सही नहीं है किन्नरों के सवालों को भी लोगों के सामने लाया जाय। क्या
दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श के बाद किन्नर विमर्श का दौर नहीं आना चाहिए। लेकिन
इस मुद्दे पर हर कोई खामोश है चाहे वो समाज हो या फिर समाज-प्रहरी साहित्य। आज
लोकपाल विधेयक को लेकर आंदोलन हो रहे हैं लेकिन क्या इन किन्नरों के हित से जुड़े एक
भी विधेयक की हम मांग कर सकते हैं।
और हां, किन्नर समाज हमसे
बेहतर है क्योंकि वहां कोई जाति या धर्म नहीं। कोई ऊंच-नीच नहीं। यदि हमारा समाज
इन्हें नहीं स्वीकार करने का साहस रखता है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि “हिजड़े कौन हैं-
किन्नर या फिर हमारा
समाज?”