वक्त के सेल्यूलाइड पर्दे पर किस्सा पहले आया या
बोसा? या कि दोनों इक दूजे का हाथ थामे साथ साथ चले आए थे. किसके किस्से
में सबसे पहले बोसा आया था और किसके बोसे पर पहला किस्सा बना. इन सब पर
किस्से कहे जा सकते हैं लेकिन युवा पत्रकार जे सुशील ने अपने ढंग से इनकी
बात कही है.... पृथ्वी परिहार
मेरे पास किस्से थे
उसके पास बोसे थे
ऐसे ही किस्से और बोसे की दोस्ती हो गई.
जादूगरों के किस्से, जंगलों के किस्से, अय्यारों के किस्से.
बोसा बदलता नहीं वही मिठास, वही ललक और उसी प्रेम से.
बोसा वहीं रहा किस्सा बदलता गया.
किस्से को किस्सागो बनना था दास्तान लिखनी थी वो शहर आ गया.
बोसा वहीं रह गया जहां वो था. याद करता किस्सों को और यादों में ही बोसे देता.
उधर किस्सा नित नए किस्से गढ़ने लगा, सुनाने लगा, किस्मत चमकी किस्से की. दास्तान पर दास्तान लिखता चला गया
और बना बड़ा किस्सागो.
इमारतें मिलीं, चेहरे मिले, दौलत मिली पर किस्से को फिर कभी वो बोसा न मिला.
उन दीवारों के जंजाल में, किस्सों की परतों में बोसे को खोजता फिरता किस्सागो बावला हो गया.
अपने कपड़े फाड़ रोने लगा और मांगने लगा हर आने जाने वाले से एक बोसा..बस एक बोसा.
दुनिया पैसे फेंकती उसके इस किस्से पर और कहती..देखो कितना बड़ा किस्सागो और क्या उसका किस्सा है एक बोसे का.
फिर एक दिन उसने भरे बाज़ार में कपड़ों के चीथ़ड़े कर डाले और दौड़ने लगा. बोसे की तलाश में.
लोगों ने रोका. टोका, खूब मनाया कि एक बोसे की कीमत ही क्या है. पर किस्सा जानता था बोसा तो बोसा है.
लौटा
अपने फिर उन्हीं दरकती सीढ़ियों में जहां वो बैठी थी किस्सा
सुनने....अधखुली पलकों से उसने किस्से को देखा था और आंख मूंद ली थी ये
कहते हुए...बस एक छोटा सा किस्सा सुना तो दो.
किस्से ने सुनाना शुरु किया वही किस्सा जिसका नाम था...किस्सा एक बोसे का.
किस्सा
खत्म हुआ तो बोसा किस्से के गालों पर था. ढलका हुआ सा, दम तोड़ता हुआ
सा...किस्सा अब भी गली गली फिरता है एक तारा लिए और गाता रहता है अकेला
किस्सा एक बोसे का.
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जे सुशील