Thursday, January 29, 2015

स्मृतियों को ढ़ोता ये सुस्त सा शहर

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि तुम्हारे बिना सबकुछ थम सा गया हो, कि रोजमर्रा के काम नहीं निपट रहे हों। तुम्हारे बिना न तो गीत सुनना बंद हुआ है न फ़िल्में देखना और न कविताओं का पढ़ना ही।
लेकिन कुछ है जिसकी कमी संग है।
कवितायें अधूरी छूट जा रही हैं। फ़िल्में पूरी नहीं देख पा रहा हूँ। गाने स्लो ही अच्छे लगते हैं। इन दिनों महीनों में भरने वाला ऐश ट्रे दो दिन में ही खाली करना पड़ रहा है।
अचानक से खूब सारे लोगों से मिलने लगा हूँ। अब अकेले होने से डर लगने लगता है। घर आने से भी बचने लगा हूँ। रह रह कर कमरे में मौन पसर जाता है। गजरे की दुकान के सामने से गर्दन झुकाये ही निकल जाता हूँ।
अगर बस मेट्रो में बगल की सीट खाली हो तो लगता है तुम अभी वहाँ आकर बैठ जाओगी।

जैसा छोड़ के गए हो तुम सब कुछ वैसा ही रहे इसलिए कमरे के हर सामान को चार बार ठीक करने लगा हूँ।
तुम नहीं हो तो भी ज़िन्दगी तो चल ही रही है लेकिन शहर सुस्त लगने लगा है.. रुका सा..थमा सा। एक बुजुर्ग.. अकेला ..बिखरा सा ये शहर तुम्हारी स्मृतियों को ढ़ो रहा है, तुम्हारी यादों को कुरेद रहा है।।

फिलहाल चार्ल्स बुकोवसकी की ये कविता सुनिये

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