Monday, November 2, 2015

अकेले की डायरी #1

वह कभी ऑरिजनल रहा ही नहीं। न उसका लिखा, न उसका जिया। यहां तक कि उसका जीवन, उस जीवन में उछाले गए सारे नारे। सब वक्त-वक्त पर दूसरों से उधार ली गयी थी। कभी किसी अमूक ने प्रभावित किया, कभी किसी फलां साहब के विचारों पर चलने लगा। किसी ने ज्यादा प्रभावित किया तो उसी सा जीवन जीने की कोशिश करने लगा। फिर एक समय आया, जब उससे मन उचटने लगा, फिर दूसरे को पकड़ा..फिर तीसरा..फिर चौथा..पांचवा..और अनगिनत। ढ़ेरों मिले, ढ़ेरों ने उसे गढ़ा, कुछ ने बनाया, कुछ ने बिगाड़ दिया। अब जाकर पीछे देखो तो उसकी पूरी नींव ही कृत्रिम नजर आती है। पूरा निर्माण ही बनावटी-सा हो गया।

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