आजकल हमारे देश में बहुत कुछ भीड़ तय करती है। एक खास तरह की भीड़। जो उन्मादी है, जो भावुक है, जो क्रूर है, जो असंवेदनशील है, जो नफरत का ढ़ेर खुद के भीतर समेटे चल रहा है, जो देश और समाज के असल समस्याओं के बारे में नहीं सोच पा रहा है, जो प्रोपगेण्डा का शिकार हो चला है। इस भीड़ के कुछ नेता हैं, कुछ दल हैं जो निजी फायदे को साधने के लिये किसी खास विचारधारा का हौव्वा ख़ड़ा करते हैं और भीड़ है जो लोगों की हत्या कर देता है, जो महिलाओं के साथ बालात्कार करता है, जो अदालतों में न्याय का मजाक उड़ाता है, जो खूब गाली देता है, नफरत का एक पहाड़ लिये चलता है।
मेरी चिन्ता है कि मेरे आसपास, उठते-बैठते कई ऐसे लोग हैं जो इसी भीड़ का हिस्सा हैं। उनके साथ उठना-बैठना, लाइक-कमेंट मैं सबकुछ साझा करता हूं। मैं बैचेन हो जाता हूं जब इन आसपास वाले लोगों से धर्म, जाति के नाम पर नफरत फैलानी वाली बातें सुनता हूं...क्या मैं कुछ नहीं कर सकता इन्हें बदलने में? एक बेसिक आदमी होने में?
क्या ऐसे लोगों से दूरी बनाना ही एकमात्र च्वॉइस बच गया है मेरे पास। क्या यह मुमकिन है कि इन सबको छोड़ अपने लिये एक अलग दुनिया बना ली जाये। शायद नहीं..फिर रास्ता क्या है?
जवाब मेरे पास भी नहीं है।
मेरी चिन्ता है कि मेरे आसपास, उठते-बैठते कई ऐसे लोग हैं जो इसी भीड़ का हिस्सा हैं। उनके साथ उठना-बैठना, लाइक-कमेंट मैं सबकुछ साझा करता हूं। मैं बैचेन हो जाता हूं जब इन आसपास वाले लोगों से धर्म, जाति के नाम पर नफरत फैलानी वाली बातें सुनता हूं...क्या मैं कुछ नहीं कर सकता इन्हें बदलने में? एक बेसिक आदमी होने में?
क्या ऐसे लोगों से दूरी बनाना ही एकमात्र च्वॉइस बच गया है मेरे पास। क्या यह मुमकिन है कि इन सबको छोड़ अपने लिये एक अलग दुनिया बना ली जाये। शायद नहीं..फिर रास्ता क्या है?
जवाब मेरे पास भी नहीं है।
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