हम बड़े शहरों में चले आए। हमारे गाँव, छोटे शहर की पहचान पीछे रह गए। बड़े शहरों में सालों-साल रहते हुए हम अपनी पहचान टटोलने की कोशिश करते रहते हैं।
वहां दूर गाँव में लोग हमें अब भी याद करते हैं। तब भी करते थे। एक-दूसरे को जानते थे, पहचानते थे। आसपास कहीं चले जाओ, हर जगह दुआ-सलाम करने वाले लोग मिल जाते थे।
लेकिन बड़े शहरों में, एक ही दफ्तर और मकान के नीचे काम करने वाले लोगों में भी दुआ-सलाम नहीं, कोई जान-पहचान नहीं होती।
वहां दूर गाँव में लोग हमें अब भी याद करते हैं। तब भी करते थे। एक-दूसरे को जानते थे, पहचानते थे। आसपास कहीं चले जाओ, हर जगह दुआ-सलाम करने वाले लोग मिल जाते थे।
लेकिन बड़े शहरों में, एक ही दफ्तर और मकान के नीचे काम करने वाले लोगों में भी दुआ-सलाम नहीं, कोई जान-पहचान नहीं होती।
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