Tuesday, October 24, 2017

गम और खुशी में कोई फर्क महसूस न हो जहां...

सुनो दगाड़िया,
आजकल फर्क पड़ना बंद हो गया है। रात-रात भर लोग पकड़ कर रोते रहते हैं और मुझे अंदर एक इंच भर भी फर्क नहीं पड़ता।

तुम्हारी दिवाली अच्छी रही, ये अच्छा लगा देखकर ।

मैं सोचता हूं दिवाली जैसे वक्तों में क्या तुम्हें याद आती होगी...
मैं तो हमेशा से इन चीजों को तबज्जो नहीं देता था...तुम भी तो उसमें साथ हो जाया करता।
अब तो वो साथ भी नहीं...तो फर्क भी नहीं..

क्या तो लिखने के लिये बैठा था, याद ही नहीं रहता आजकल..
भूल बैठा।
एक अँधेरे में जाकर बैठ गया हूं..न सुख और दुख, न धूप न शाम, बस एक उदासी रहती है..

तुम्हें विदा करने का ख्याल आता है कभी-कभी मन से, पूरा का पूरा
लेकिन मुश्किल है..नहीं शायद नामुमकिन..

प्यार तो था ही हमारे बीच, है भी, साथ हो न हो क्या फर्क पड़ता है- फर्क पड़ता तो है ही.. है न!


आजकल मरने का ख्याल आता है तो सोचता हूं आखरी बात क्या लिख कर जा रहा हूं..क्या वो तुम्हारे लिये लिखा रहेगा...क्या वो आखिरी बात पढ़कर तुम्हें रोना आयेगा..

मरने से पहले भी तुम्हें ही लिखने का ख्याल रहता है...


मैं कितना बुरा रहा..मनोरोगी..क्या तुमने इतना लंबा साथ एक मनोरोगी के साथ बिता दिया...

क्या तुम्हें उन साथ के दिनों में ये ख्याल आया, भान हुआ..या तुम जानबूझकर इग्नोरेंट बने रहे..

रोग का ईलाज करवा रहा हूं वैसे...
मन का क्या किया जाये..अभी समझ नहीं आया है..

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