अचानक सेे उसने टेबल लैम्प की बत्ती बंद कर दी। कमरे में पीली रौशनी की जगह घुप्प अंधेरे ने ले लिया। लड़का अँधेरे में ही चुपचाप खाने की कोशिश करता रहा। अचानक मन उदास हो चला। रोने जैसा कुछ हुआ। जबिक दिन काफी सुन्दर बीता था। देर रात तक जगकर उसने डेडलाइन से पहले ही अपना काम निपटा लिया था।
Sunday, October 28, 2018
Tuesday, October 16, 2018
ओ रे मनवा
मन के भीतर कितना कुछ चलता रहता है लेकिन आप चाहकर भी उन चीजों को लिख नहीं पाते।
आसपास कितना सारा शोर है, भीड़ है। लेकिन फिर भीतर अपने झांक कर देखो तो समझ आता है कि वहां भी कम शोर और भीड़ नहीं है।
मुश्किल होता है अचानक से इन सबको कम कर लेना, भीतर के शोर को और भीड़ को।
लेकिन चुप रह जाना भी किसी एहसान से कम नहीं है। इस बीच कैसी-कैसी खबरें आती रहीं लेकिन भीतर का शोर काफी हदतक नियंत्रण बाँधे रखा।
कई बार दो लोगों को बेहतर तरीके से साथ रहने के लिये एक बाहरी दुश्मन चाहिए होता है। अब आपकी बदकिस्मती है कि वो दुश्मन आप बन बैठें।
खैर,
प्रेम, दोस्ती, इंगेजमेंट, रिश्ते, शादी, वफा, बेवफाई, ढ़ेर सारे प्रेम के बीच खुद के गुम हो जाने का एक रिस्क सा रहता है।
सारे चक्रवात और झंझवातों से खुद को बचा रखना भी बड़ा जोखिम लेकिन साहस का काम है। नईँ ?
आसपास कितना सारा शोर है, भीड़ है। लेकिन फिर भीतर अपने झांक कर देखो तो समझ आता है कि वहां भी कम शोर और भीड़ नहीं है।
मुश्किल होता है अचानक से इन सबको कम कर लेना, भीतर के शोर को और भीड़ को।
लेकिन चुप रह जाना भी किसी एहसान से कम नहीं है। इस बीच कैसी-कैसी खबरें आती रहीं लेकिन भीतर का शोर काफी हदतक नियंत्रण बाँधे रखा।
कई बार दो लोगों को बेहतर तरीके से साथ रहने के लिये एक बाहरी दुश्मन चाहिए होता है। अब आपकी बदकिस्मती है कि वो दुश्मन आप बन बैठें।
खैर,
प्रेम, दोस्ती, इंगेजमेंट, रिश्ते, शादी, वफा, बेवफाई, ढ़ेर सारे प्रेम के बीच खुद के गुम हो जाने का एक रिस्क सा रहता है।
सारे चक्रवात और झंझवातों से खुद को बचा रखना भी बड़ा जोखिम लेकिन साहस का काम है। नईँ ?
शिउली
कोई अक्टूबर का महीना था
जब शिउली आयी थी
ठीक पुजा से पहले का वक्त
हर सबुह तीन बजे हम जग जाते
शिउली भी ठीक तीन बजे ही आती थी
उसकी खूशबू
आह, तीन बजे सुबह शिउली की खुशबी
दिनभर जेब में और ख्याल में डूबी रहने वाली खुशबी
हम जाते....
Tuesday, October 2, 2018
people come and go...dont worry about them
लोग आयेंगे-जायेंगे...
उनके बारे में सोच-सोच कर
उनकी यादों में मर-मर कर क्या ही जीना ...
एक लंबी जिन्दगी में सात साल कितना कम है
उससे भी कम है चार साल
और उससे कहीं कम साल भर
और भी कम दो महीने
दो दिन
दो घंटे...
लेकिन इसी बीच लोग आते हैं
इतने दिनों के लिये भी
और लगता है जैसे पूरी जिन्दगी पर उनका हो अधिकार
और फिर जब जाते हैं तो
अपने साथ ले जाते हैं
उतनेउतने समय भर का हिस्सा
मानो
जिन्दगी का हिस्सा न हो
हो शरीर के मांस का कोई लोथड़ा...
मुझे आश्चर्य होता है
कि ऐसे किसी का हिस्सा बनकर
कि ऐसे अपना हिस्सा खोकर
भी
लोग चुपचाप जिये चले जाते हैं...
सच में लोग आते हैं जाते हैं
उनकी चिंता करने का कोई मतलब नहीं
उनके बारे में सोच-सोच कर
उनकी यादों में मर-मर कर क्या ही जीना ...
एक लंबी जिन्दगी में सात साल कितना कम है
उससे भी कम है चार साल
और उससे कहीं कम साल भर
और भी कम दो महीने
दो दिन
दो घंटे...
लेकिन इसी बीच लोग आते हैं
इतने दिनों के लिये भी
और लगता है जैसे पूरी जिन्दगी पर उनका हो अधिकार
और फिर जब जाते हैं तो
अपने साथ ले जाते हैं
उतनेउतने समय भर का हिस्सा
मानो
जिन्दगी का हिस्सा न हो
हो शरीर के मांस का कोई लोथड़ा...
मुझे आश्चर्य होता है
कि ऐसे किसी का हिस्सा बनकर
कि ऐसे अपना हिस्सा खोकर
भी
लोग चुपचाप जिये चले जाते हैं...
सच में लोग आते हैं जाते हैं
उनकी चिंता करने का कोई मतलब नहीं
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कुछ चीजों का लौटना नहीं होता....
क्या ऐसे भी बुदबुदाया जा सकता है? कुछ जो न कहा जा सके, जो रहे हमेशा ही चलता भीतर एक हाथ भर की दूरी पर रहने वाली बातें, उन बातों को याद क...